श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
वरदराज भगवान् आविर्भाव कि कहानी
जब ब्रह्मा ने निर्णय पिष्ट पशु के हित में दिया, तो ऋषि और मुनि गण उल्लासित हुए, विजय भाव में आनंद से नृत्य कियाI परंतु देव गण ब्रह्मा का इस न्याय से दुःखित थेI उन्होंने अभियोग लगाया कि ब्रह्मा अवैध रूप से शास्त्रों के विरुद्ध बोलेI इस दोष के लिए ब्रह्मा दण्डनीय हैंI सभी ने दृढ़ता से इस पर विश्वास कियाI
न्यायपूर्णता से देखा जाये तो जीवित पशु का हि यज्ञों में प्रयोग किया जाना चाहिए परंतु आश्चर्यजनक तरीके से यह सिफारिश किया गया है की पिष्ट पशु को (अट्टे से बना हुआ मुर्ती) पवित्र अग्नि में अर्पण किया जा सकता हैI इस अपराध के लिए उचित दंड क्या होसकता है?…. देव गणों की आपस में तर्क-वितर्क हो रही थीI
बृहस्पति अति ध्यान और सहनशीलता से इस कार्यवाही को देख रहे थेI वे क्या राय देंगे? सभी ने आशापूर्वक उनकी तरफ देखाI देवताओं के पुरोहित ने अपना मौन तोडाI
ब्रह्मा! आप शापित होI आपने तपस्या की परम्परा और सिद्धांतों के नियन्त्रक के विरुद्ध बोलाI आप इस के पश्चात ब्रह्मा के इस पद को खों देंगेI
आपको आदेश दिया जाता है कि एक नहीं एक हज़ार अश्वमेध याग दोष रहित होकर करना पड़ेगाI तभी, आपको यह पद वापस मिलेगाI इसके अतिरिक्त, आप यह यज्ञ असली और जीवित पशु से हि पूर्ति करेंगेI पिष्ट पशु से नहीं जैसे आपना निर्णय में सुनाया था…… यह था शाप!!
चिंतित और क्रोधित ब्रह्मा बदले में कुछ अभिशाप बृहस्पति पर लगायाI
(तत्पश्चात यह बाद में प्रकाश में आयेगा कि वे दोनों वरदराज भगवान् के दिव्य कृपा से मुक्त हो जाते हैं)
इतना अन बन के होते हुए भी ब्रह्मा का पद शोचनीय बन चुका थाI
सचमुच…. कोई भी यज्ञ को, परिणाम देना कठिन हैI अश्वमेध यज्ञ असाधारण और कठिन होता हैI एक हज़ार अश्वमेध यज्ञ, क्या करना भी संभव है? ब्रह्मा के शीर्ष घूमने लगेI एक हज़ार अश्वमेध यज्ञ संपन्न करने के लिए, सिर का घूमना स्वाभाविक हैI
वे आश्चर्य चकित हुए कि ” ऐसा क्यों? वे पुनर्विचार के लिये प्रार्थना कर सकते थे अगर मेरा निर्णय स्वीकार्य नहीं था तोI
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आपके साथ – पाठकों
कई पाठक सहमत होंगे कि ब्रह्मा ने उचित फैसला दियाI यज्ञ में, यह प्रकट हो सकता है कि पशुओं के चित्र और प्रतिरूप बलि में अर्पण किया जा सकता हैI
शास्त्र नियम ” न हिम्सयाथ सर्वा भूतानि” – जीवित प्राणी को हानी नहीं करना चाहियेI यही धर्मग्रंथ स्वीकृति देती है कि यज्ञ में पशुओं का अर्पण किया जा सकता है यथा उनको कष्ट पहुंचाते हैI अतः संग्रहित करना कठिन है क्योंकि वे एक दूसरे को खण्डित करते हैI
परंतु वेदों में विसंगतियां है ही नहींI कुछ यज्ञों में, रेखांकित किया गया है कि प्राणी को अग्नि आहुति कर सकते हैंI यह न अहिंसा के विरुद्ध है और न यज्ञ का पवित्र स्वरुप का विरुद्ध हैI
एक वैद्य, शल्य चिकित्सा के समय गरम चाकू से शरीर के अंग को काटता हैI यह चोट पहुँचाने के रूप में दिखाई देता है, परंतु रोगी जो चिकित्सा करवा रहा है, उनके लिए एक अलग कहानी होगीI वह वैद्य से प्रसन्न होगा क्योंकि वह आश्वस्त है कि यह चिकित्सा उनका कल्याण के लिए हैI हालाँकि इस समय पीड़ायुक्त होगा परंतु भविष्य में उनकी स्वास्थ्य के लिए अच्छा होगा I
इसी प्रकार प्राणी जो तपस्या में अपना जीवन अर्पण करते हैं, उनकी आत्माएं स्वर्ग (स्वर्गम) पहुंचाती हैं और ऐसे ऊपरी दुनिया में पवित्र निवास करते हैं तो यह क्रिया दोषपूर्ण नहीं है।
श्री भाष्य इस पर विस्तार से ध्यान केन्द्रित किया है – निष्कर्ष निकालना कि यज्ञों में बकरी या अश्व का अर्पण करना कोई पाप नहीं हैI
इस श्री भाष्य का स्पष्टीकरण ब्रह्मा सूत्र में दिया गया है, चरण – ” असुध्धामिति चेतना न सब्धात…” ३.१.२५.
स्वयं तुष्टी के लिए प्राणी को हानी पहुंचाना अनुचित हैI परंतु यही कार्य उस आत्मा कि तिष्टि के लिए करें तो दुष्कर्म नहीं हैI
शास्त्र उल्लेख करता है कि “हिरन्य शरीर ऊर्ध्व स्वर्गम लोकमेति” – यज्ञ में बलि चढ़ाया प्राणी को एक स्वर्ण देह मिलता है और स्वर्ग पहुचकर आनंद से जीता हैI
“यत्रयान्ति सुकृतो नाभिदुश्क्रुताह तत्र त्वदेव सविता धधातु – आप पशु, उस निवास तक पहुंच जाएंगे जहां पहुंचना में आसान नहीं है, भगवान स्वयं आपको उस स्थान पर ले जा सकते हैं ” समर्पण किया गया पशु से, ऐसा वेद कहता हैI
वास्तव में बृहस्पति क्रोधित हुए, ब्रह्मा के इस निर्णय से, जो शास्त्र विरुद्ध जाता हैI
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एक हज़ार अश्वमेध…..हाँ!! परिणाम देना होगा I इस पद का स्वाद चकने के बाद, और सर्वोच्छ पद इतने सुलभ से नहीं प्राप्त होगा!!….. ब्रह्मा ने सोचा I
अगली कठिनाई यह है कि पत्नी के बिना यज्ञ में अधिवेशन कैसे करे, विशेषतः यज्ञ में उनकी भूमिका के कारणI
केवल सरस्वती हि प्रमुख और सर्वप्रथम हैं हालाकिं अन्य पत्नियाँ भी हैंI ब्रह्मा यह विपत्तियों का सामना करने के लिए निश्चित थे…. जैसे जैसे विपत्तियां दुगनी होति गयी और अपने और चली आ रही थी, वे धरती पे उतर आये, त्रिवेणी संगमं और नैमिशारंयम में तपस्या करने कि तैयारी करने लगेI
इन यज्ञों द्वार, वह इन पापों से शुद्ध हो जायेंगे और जो अन्याय पूर्ण अधिनिर्णय देने से उत्पन्न आरोप से भीI वह अपने पिता को देखने की अपनी इच्छा पूरी करने की भी कामना करते थे जिनके समरूप कोई नहीं I
“चक्शुशाम् अविशयम्” – नेत्रों के लिए अदृश्य वह भगवान् की विलक्षणता हैI तब भी उन्हें देखने का दृढ़ निश्चय “येन्ऱेन्ऱुम् कट्कण्णाल् कानाद अव्वुरुवै” – उस अस्पष्ट, अदृश्य मूर्ती, ब्रह्मा तैयार हो गये I
यह संभव है क्या? ज़रूर है I परंतू स्वयं के प्रयासों से नहीं I वह केवल अपने अनुग्रह से दर्शन दे सकते हैंI
ब्रह्मा दृढ़ता से विश्वास रखते हैं कि वह कर सकेंगेI तब हि एक दिव्य वाणी (असारिरी) सुनाई दी; कोई दृश्य दर्शित नहीं था परंतु केवल एक दिव्य वाणी सुनाई दीI उसने क्या व्यक्त किया ? – अगले उपाख्यान में….
अडियेन श्रीदेवी रामानुज दासी
Source – https://granthams.koyil.org/2018/05/13/story-of-varadhas-emergence-4-english/
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