यतीन्द्र प्रवण प्रभावम – भाग २०

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम

<< भाग १९

श्रीशैलेश स्वामीजी ने श्रीनालूराच्चान पिळ्ळै को साष्टांग दण्डवत प्रणाम कर उनके समक्ष प्रस्तुत हुए। श्रीनालूराच्चान पिळ्ळै ने उन्हें स्वीकार कर उन्हें ईडु (श्रीसहस्रगीति पर कालक्षेप जिसे श्रीकृष्णपाद स्वामीजी ने श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के कालक्षेप के आधार पर लिखे थे) सिखाना प्रारम्भ किया। यह सुनकर कि श्रीनालूराच्चान पिळ्ळै श्रीशैलेश स्वामीजी को ईडु के अर्थ सिखा रहे हैं, तिरुनारायणपुरम (मेलकोटे) के आचार्य गण जैसे जनन्याचार्यार् (तिरुनारायणपुरत्तु आयी), तिरुवाय्मोऴि आच्चान पिळ्ळै, आदि श्रीनालूराच्चान पिल्लै को श्रीरामानुज स्वामीजी का संदेश दिये। यह देख श्रीनालूराच्चान पिळ्ळै स्वामीजी श्रीशैलेश स्वामीजी सहित मेलकोटे कि ओर प्रस्थान किये। 

जैसे कहा गया हैं 

आरुह्यामल याद्वाद्रि शिकरम् कल्याणितीर्थं ततः

स्नात्वालक्षमणयोगिनः पदयुगम नत्वातुगत्वान्ततः।

श्रीनारायणमेत्यत्यतत्र धरणी पद्मालया मध्यकं

पश्येयं यदिकिं तपः फलमतः सम्पत्कुमारं हरिम्॥

(पवित्र यादवाद्री के ऊपर चढ़ना, कल्याणी तीर्थम में पवित्र स्नान करना, श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों कि पूजा करना, तिरुनारायणन् कि ओर आगे बढ़ना, अगर में सम्पत कुमार (सेल्व पिळ्ळै, उत्सव विग्रह) कि पूजा कर सकूँ जो श्रीदेवी और भूदेवी के मध्य में निवास कर रहे हैं तो इससे और क्या उच्च तप हो सकता हैं?)

वें एक सही क्रम में बड़े प्रेम से आगे बड़े, सम्पत्कुमार भगवान के दिव्य चरण कमलों को अपना कवच समझ आगे बड़े; उन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी कि पूजा किये और उनके पुरुषकार से यदुगीरी नाच्चीयार (श्रीअम्माजी), सेल्वपिळ्ळै (उत्सव विग्रह) और तिरुनारायणन (मूल विग्रह) कि पूजा किये। श्रीरामानुज स्वामीजी को प्रसन्न करने हेतु जैसे श्रीरामानुज नूऱ्ऱन्दादि के १९वें पाशुर में लिखा गया हैं “उरुपेरुम सेल्वमुम् …” (श्रीसहस्रगीति स्थायी धन हैं …) उन्होंने मेलकोटे में निवास स्थान लिया और श्रीरामानुज स्वामीजी के सन्निधि में श्रीनालूराच्चान पिळ्ळै से ईडु सीखा। श्रीनालूराच्चान पिळ्ळै ने भी कृपाकर पूर्ण अर्थ उन्हें बताया जैसे उपदेश रत्नमाला के ४९वें पाशुर में कहा गया हैं “मेलोर्क्कीन्दार् …” (उच्च जनों को अर्थ दिया)। श्रीशैलेश स्वामीजी बड़ी गहराई से श्रीनालूराच्चान पिळ्ळै के दिव्य चरण कमलों के सामने साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया और उन्हें आऴवारों के दिव्य प्रबन्धों के अर्थों को कहने को कहा। श्रीनालूराच्चान पिळ्ळै को सुबोध हुवा की श्रीशैलेश स्वामीजी में ज्ञान भक्ति वैराग्य गुण है, उनके प्रति विशेष सम्मान विकसित हुवा और श्रीशैलेश स्वामीजी को अपनि तिरुवाराधन पेरुमाळ् (विग्रह जिसकी पूजा वें स्वयं करते थे) इनवायर तलैवन (मवेशी गजेर का सर यानि भगवान कृष्ण) को उन्हे सौंपदिया। 

जैसे यह श्लोक में कहा गया हैं 

देवादिपात्समधिगम्य​ सहस्रगीतेर्भाष्यं निगूढमपियः प्रयतां चकार​।

कुन्तीपुरोत्वमुं शरणं भजेsहं श्रीशैलनाथ मुरुभक्ति पृतं शठारौ ॥

(मैं श्रीशैलेश स्वामीजी के शरण होता हूँ जिन्होने श्रीनालूराच्चान पिळ्ळै जिन्हें देवादिपर् से भी बुलाया जाता हैं से ईडु मुप्पत्ताऱायिरम् सीखा जो श्रीसहस्रगीति पाशुर के गूढ़ार्थ हैं। तत्पश्चात श्रीशैलेश स्वामीजी जिन्हे श्रीशठकोप स्वामीजी के प्रति गहरा प्रेम था; वे इन अर्थों को बहुत प्रसिद्ध बनाया ; स्वामीजी का जन्म कुंती नगर में हुवा), श्रीशैलेश स्वामीजी जिन पर कांचीपुरम के श्रीवरदराज भगवान कि असीम कृपा थी वे श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों के प्रति बहुत प्रेम विकसित किया। जैसे श्रीरामायण में कहा गया हैं “आजगाम मुहूर्त्तेन” (कुछ हीं समय में), उन्होनें तिरुक्कणाम्बि कि ओर प्रस्थान किया जहां श्रीशठकोप स्वामीजी निवास करते थे, आऴवार् के दिव्य चरण कमलों को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया और आऴवार् के प्रति अपने प्रेम को पूर्ण किया और आऴवार् को तिरुक्कणाम्बि से आऴवार्तिरुनगरि लाने का निर्णय किया। इससे संबन्धित उन्होंने सबसे पहिले आऴवार्तिरुनगरि कि ओर प्रस्थान किया और आऴवार्तिरुनगरि के जंगलों को साफ कर उसे रहने लायक बनाया जैसे आऴवार् के पाशुर में कहा गया हैं “नल्लार पलर वाऴ कुरुगूर् ” (कुरुगूर जहाँ बहुत महान जन रहते हैं)। उन्होंने तत्पश्चात बड़ी करूणा से श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य विग्रह को बड़ी पवित्रता से अपने मूल स्थान पर स्थापित किया जैसे कहा गया हैं 

शठकोपमुनिं  वन्दे  शठानां  बुद्धि  दूषणम्।

अज्ञानां  ज्ञानजनकं  तिन्द्रिणी  मूल  सम्श्रयम्॥

(मैं श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों को नमन करता हूँ जिन्होंने कपटी जनों कि मेधा को नष्ट किया, अज्ञानी जनों को भगवान के विषय पर ज्ञान दिया और जिन्होंने बडि कृपा से  अपनि निवास इमली के पेड़ के नीचे बनाया)। अपने उद्देश को पूर्ण करने के पश्चात और उन्होंने जैसे श्रीशठकोप स्वामीजी कि पूजा किए उन्हें श्रीशठकोपदास (श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य दास) उपाधि श्रीशठकोप स्वामीजी से (अर्चकों के माध्यम से) प्राप्त हुई। उन्होंने बहुत समय तक यह सेवा करते हुए इसे अपनी दिनचर्या बनाते हुए आऴवार्तिरुनगरि  में निवास किया।     

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/04/yathindhra-pravana-prabhavam-20-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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