श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीअऴगिय मणवाळ मामुनिगळ (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) का दिव्य अवतार
तुर्की से आक्रमण और अन्य कारणों से प्रपत्ति मार्ग (शरणागति मार्ग या भगवान के शरण होना) शिथिल हो गया। श्रीरङ्गनाथ भगवान जो श्रीमहालक्ष्मी अम्माजी के स्वामी हैं, जो दया से भरे हैं और जो निरन्तर इस संसार की रक्षा के विषय पर विचार करते रहते हैं, जो श्रीरङ्गम में आदिशेष पर शयन कर रहे हैं, सम्प्रदाय की ओर देख जो एक हीं आचार्य के माध्यम से बढ़ रहा हैं चिन्तित होकर यह निर्णय करते हैं कि “चलो हम एक और व्यक्ति को उत्पन्न करें जो इस संसार को श्रीरामानुज स्वामीजी जैसे ऊपर उठाएंगे”। एक उचित व्यक्ति को देखने के लिये उनकी दिव्य कृपा आदिशेष पर हुई और उन्हें संसार को सुधारने कि आज्ञा करें। वें भी जैसे श्रीरङ्गनाथ भगवान कि इच्छा हुई और जैसे कहा गया हैं
तदस्तदिङ्गितं तस्य जानत्वेन जगन्निधे: ।
तस्मिन्धाम्नि शठाराते: पुरे पुनरवातरत् ॥
(तत्पश्चात तिरुवनन्दाऴवान श्रीरङ्गनाथ भगवान के दिव्य मन को महसूस किया और आऴवारतिरुनगरि में हीं अवतार लिया जो श्रीशठकोप स्वामीजी का निवास स्थान हैं)
शम्सन्नि समयन्तस्य तुलां प्राप्ते द्विषाम्पतौ ।
मूलं हि सर्वसिद्धीनां मूलरुक्षं प्रचक्षते ॥
(आचार्यजन कृपाकर पुष्टि करन करते हैं कि तिरुवनन्दाऴवान का दिव्य अवतार मूला नक्षत्र में हुआ – परिवर्तन के समय जब तुला राशी सूर्य के पास पहुंचता हैं यह नक्षत्र सभी योजनाओं कि वजह हैं)
यन्मूलमाश्वयुजमास्यवतार मूलं कान्तोपयन्तृयमिनः करुणैकसिन्धोः ।
आसीतसत्सुगुणितस्य ममापिसत्तामूलं तदेवजगदप्युदैयैक मूलम् ॥
(आश्विन (तुला) मास के उस मूलम में जो दया के सागर के नक्षत्र में अवतार हुआ और पूरे संसार को जीवित रखने और इस पुरुष के अस्तित्व का कारण हैं जिसे असत् माना गया हैं) [यह श्लोक श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के एक प्रमुख शिष्य श्रीएरुम्बियप्पा ने रचा हैं]
आऴवारतिरुनगरि में श्रीतिगऴक्किडन्दान तिरुनावीरुडय दासर अण्णन कि धर्मपत्नी के गर्भ में प्रवेश कर नौ महीने तक वास किया।
जैसे इस श्लोक में कहा गया हैं
पादेरभावं गतायां कलियुग शरति श्रद्धराये शकाप्ते
वर्षे साधारणाक्ये समधिगततुले वासरे धीरसन्ख्ये ।
वारे जीवेचतुर्थ्यां समजनिसतितौ शुक्लपक्षे
सुकर्मा प्राजन् मूलाक्यतारे यतिपतिरपरो रम्यजामातृ नामा॥
(कल्यत्वम ४४७१, सकाप्तम १२९२, साधारण वरुषम में जब सूर्य तुला राशी तक पहुंचता हैं, आश्विन मास के २६वें दिन, गुरुवार को मूला नक्षत्र में शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथी, जिनका दिव्य नाम मणवाळ मामुनि हैं जिनका बहुत नेक आचारण हैं, जिने रम्यजामातृ मुनि से भी जाना जाता हैं जो यतिपति भगवद श्रीरामानुज स्वामीजी के अपरावतार हैं का अवतीर्ण हुआ), कलियुग के प्रारम्भ से ४४७१वें वर्ष में, साधारण वर्ष में आश्विन मास के शुक्ल पक्ष के चतुर्थी और मूला नक्षत्र को श्रीतिगऴक्किडन्दान तिरुनावीरुडयप्पिरान तादरण्णर अरैयर के वंश में उनके पुत्र रूप में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का अवतार हुआ।
तत्काल कली पुरुष (कलियुग के स्वामी) वहाँ से कोसो दूर भाग गये जैसे इस श्लोक में कहा गया हैं
यस्मिन् स्वपादपद्मेन स्पर्श पृथिवीमिमाम्।
कलिश्च तद्क्षणेनैव दुतृवे दूरदस्तराम्॥
(जिस समय जब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने कमल पुष्प जैसे दिव्य चरणों को इस पृथ्वी पर रखे तब उसी समय कली पुरुष पृथ्वी छोड़ कोसो दूर भाग गया)।
अत: इनके जैसे पुत्र जो आत्मा को ऊपर उठाने के लिये अवतार लिये हैं अण्णर ने उनका जातकर्म (जन्म के ग्यारवें दिन संचालित कार्यक्रम) उत्सव मनाया और बारहवें दिन पञ्चसंस्कार (वैष्णवदीक्षा) (तिरुविलच्छीनै) किये। उन दिनों जब बालक को पुण्याकवचनम (जातकर्म जैसे हीं) प्राप्त होने के पश्चात पुष्प समाश्रयण किया जाता था। इसमें गरम धातु से बने सुदर्शन चक्र और पांचजन्य के बजाय बालक को तिरुमण्काप्पु और श्रीचूर्ण को सुदर्शन चक्र और पांचजन्य के समान बनाकर लगाया जाता हैं। यह आज भी कुछ श्रीवैष्णवों के तिरुमाळिगै में किया जाता हैं।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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