श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीशैलेश स्वामीजी ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को उडयवर् के दिव्य चरणों में संलग्न करना
पिळ्ळै (इसके बाद तिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै (श्रीशैलेश स्वामीजी) को पिळ्ळै कहकर संभोधित करेंगे और अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ नायनार् (यानि अपने पूर्वाश्रम में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) को नायनार् कहकर स्ंभोधित करेंगे) खुशी से नायनार् जिन्हें परमपुरुषार्थम् (सर्वोच्च लाभ) प्राप्त होने पर खुश हुए, को उडयवर् के दिव्य चरणों के दर्शन करवाये जैसे श्रीरामानुज नूट्रन्दादि के पाशुर में उल्लेख किया गया हैं “उन्पदयुगमे कोण्ड वीट्टै एळिदिनिल् एय्दुवान् ” (मैं बड़ी आसानी से दिव्य धाम प्राप्त कर लूँगा जो आपके दिव्य चरण हैं)। पिळ्ळै भी श्रीरामानुज स्वामीजी (जो श्रीशठकोप स्वामीजी के प्रति प्रेम के कारण उनके दिव्य चरणों में कैङ्कर्य करने में व्यस्त थे) के दिव्य चरण कमल में कैङ्कर्य करने कि इच्छा प्रगट किये और इसे आगे निभाये और इसे अपना धारक आदि (जीविका, पोषण और आनन्द का साधन) जैसे रखा. उन्होंने उडयवर् के लिये अलग से मंदिर का निर्माण किया और चार रस्तों का निर्माण कर उसे रामानुज चतुर्वेदि मङ्गलम् , कहकर बुलाया और श्रीवैष्णव विद्वानों को उन मार्गों पर निवास करने दिया ताकि वें निरन्तर श्रीरामानुज स्वामीजी कि आराधना कर सके। यह सब करने के पश्चात वें आनन्द से रहने लगे।
नायनार् (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) द्वारा यतिराज विंशति कि रचना
श्रीशैलेश स्वामीजी कृपा कर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को श्रीरामानुज स्वामीजी के विषय में बताए और वें भी इस हद तक श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरणों में समर्पित हो गये कि उन्हें यतीन्द्र प्रवणर् (वह जो गहराई से श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति स्नेही हैं) ऐसे बुलाया गया। इस स्नेह के परिणाम स्वरूप उन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी के विषय पर यतिराज विंशति कि रचना किये। इस परोपकारी कार्य के लिये उनकी बहुत प्रशंसा हुई जो आगे आनेवाले जनों के लिये लाभ होगा जैसे इस पाशुर् में कहा गया हैं
वल्लार्गळ् वाऴत्तुम् कुरुकेसर् तम्मै मनत्तु वैत्तुच्
चोल्लार् वाऴत्तुम् मणवाळ मामुनि तोण्डर कुऴाम्
एल्लाम् तऴैक्क एदिराजविञ्जदि इन्ऱळित्तोन्
पुल्लारविन्दत् तिरुत्ताळ् इरण्डैयुम् पोट्रु नेञ्जे
(श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने श्रीशठकोप स्वामीजी जिनकी शिक्षित जन प्रशंसा करते हैं को अपने मन में स्थान दिया और अपने शब्दों के माध्यम से प्रशंसा किये। ऐसे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने बीस श्लोक मिलाकर भक्तों के समूह के समृद्धि के लिये यतिराज विंशति कि रचना किये। हे मेरे मन! ऐसे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों कि प्रशंसा करिये)।
यतिराज विंशति को श्रवण करने के पश्चात पिळ्ळै बहुत आनन्दविभोर हुए और प्रसन्न होकर उन्हें उडयवर् कि दिव्य विग्रह प्रदान किये जो उन्हें तिरुप्पुळुयाऴवार् (वह दिव्य इमली का वृक्ष जहाँ श्रीशठकोप स्वामीजी अपना पूर्ण जीवन काल उसे अपनी तिरुमाळिगै बनाकर रहे) में प्राप्त हुई। उडयवर् कि उत्सव विग्रह जो चतुर्वेदी मङ्गलम् के भविष्यदाचार्य सन्निधी में स्थापित हैं उसकि एक कथा हैं जिसे प्रख्यात जनों से सुना जा सकता हैं। श्रीमधुरकवि आऴ्वार् (श्रीशठकोप स्वामीजी के विग्रह को पाने के इच्छुक) को स्वप्न में जैसे श्रीशठकोप स्वामीजी बताया वैसे तामिरबरणि के जल को उबाला। प्रारम्भ में उडयवर् के विग्रह को प्रगट किया जिसे अपने दिव्य मन से देखकर श्रीमधुरकवि आऴ्वार् ने श्रीशठकोप स्वामीजी से कहा “यह विग्रह आपकी दिव्य रूप नहीं हैं”। आऴ्वार् ने उन्हें कहा “यह भविष्यदाचार्य कि विग्रह हैं जिसे श्रीसहस्रगीति के ४.३.१ के पोलिग पोलिग पाशुर् के संबन्ध से किया जायेगा। उनका अवतार इस तरह होगा कि कलि पुरुष भी भाग जायेँगे जैसे कलियुम् केडुम् कण्डुकोण्मिन् पाशुर् में उल्लेख किया गया हैं। उनकी पूजा करो, तामिरबरणि जल को पून: उबालो, हम अर्चा विग्रह ऐसे व्यक्त होंगे”। श्रीमधुरकवि स्वामीजी ने श्रीशठकोप स्वामीजी के कहे अनुसार किया और प्रख्यात जन यह कहेंगे कि श्रीशठकोप स्वामीजी का दिव्य स्वरूप उपदेश मुद्रा (अन्य को निर्देश देने का प्रतीक) में हैं जैसे आऴ्वार्तिरुनगरि के मन्दिर में देखा जा सकता हैं। दंतकथा में हैं कि जब आक्रमणकारी आये तब यह उडयवर् कि विग्रह आऴ्वार्तिरुनगरि के मन्दिर में इमली के पेड़ के नीचे राखी गयी थी और श्रीशठकोप स्वामीजी को मन्दिर से उत्प्रवास करना पड़ा। प्रख्यात जन कहे कि यह विग्रह को श्रीशठकोप स्वामीजी के सन्निधी में श्रीशठकोप स्वामीजी के संग पूजा करना चाहिए। तत्पश्चात मन्दिर कि सफाई करने के समय श्रीशैलेश स्वामीजी को यह प्राप्त हुई।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी भी विग्रह प्राप्त कर अति आनंदित हुए और जैसे यतिराज विंशति के १९वें पाशुर में कहा गया हैं “श्रीमन् यतीन्द्र! तव दिव्यपदाब्जसेवां श्रीशैलनाथ करुणापरिणामदत्ताम्” (हे प्रख्यात श्रीरामानुज! आपके दिव्य चरण कमलों में सेवा श्रीशैलनाथ स्वामीजी के दिव्य कृपा से प्राप्त हुई हैं), उडयवर् के प्रति सेवा निभाते रहना जैसे श्लोक में उल्लेख हैं “यतीन्द्रमेव नीरन्तरं निशेवे दैवदं परम् ” (वें श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति सेवा करते थे यह दृढ़ता से मानते हुए कि वें हीं सर्वोच्च अस्तित्व हैं)। श्रीशैलेश स्वामीजी जिन्होने श्रीशठकोप स्वामीजी और श्रीरामानुज स्वामीजी के सेवा कर उसे सर्वोच्च लाभ माना, नायनार् के ज्ञानभक्त्यादि (ज्ञान, भक्ति आदि) को देखते रहे और बहुत सहायक थे और इसे वांछित तत्व समझे।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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