श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने श्रीवानमामलै जीयर् स्वामीजी और अन्य श्रीवैष्णवों को अप्पिळ्ळै और अप्पिळ्ळार् को लाने के लिये भेजा। वें भी कृपाकर उन्हें लाने के लिये निकल पडें और उनके आने कि सूचना पहिले ही अप्पिळ्ळार् के पास बिजवा दिया। अप्पिळ्ळार् जैसे हीं उन्हें आते देखा उठ खड़े हो गयें, साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया, हाथों को अंजली मुद्रा में रखा और वहाँ के दो श्रीवैष्णवों से एक हरे रङ्ग के शाल देककर कहा “जहां से वे आ रहे हैं उस स्थान पर बिचवा दे। जैसे हीं सभी श्रीवैष्णव उस पर अपने चरण रखकर बाहर आ जाये उस चरणरज (रेत जो श्रीवैष्णवों के सम्पर्क में आया हो) को बड़े सावधानी से लेकर आये”। उन्होंने फिर एक थाली में पान के पत्ते और एक थाली में फल को तैयार किया और एऱुम्बियप्पा के उपस्थिती में श्रीवानमामलै जीयर् स्वामीजी को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। उन्होंने अपने सम्बन्धयों को श्रीवानमामलै जीयर् स्वामीजी से परिचय करवाया और स्वामीजी को सभी का उद्दार करने को कहा। उन्होंने चरणरज को स्वीकार कर अपने सभी सम्बन्धयों के माते पर लगाया। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उन सब के विषय में जाना। फिर वें सभी जन कन्दाडै अण्णन् के तिरुमाळिगै के ओर प्रस्थान किये। अण्णन् बड़े आदर के साथ उन सभी का स्वागत कर तिरुमाळिगै के भीतर ले गये और उन्हें अवगत करवाया कि वें पहिले कैसे थे और श्रीरामानुज स्वामीजी के निर्हेतुक कृपा से अब कैसे उन्हें लाभ हुआ। उन्होंने कृपाकर एक कालक्षेप के माध्यम से यह कहा कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी के अपरावतार हैं। अप्पिळ्ळै और अप्पिळ्ळार् ने अपने साथ फल, रेशमी परियट्टम्, आदि लेकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के मठ में गये और यह देखा कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी एक श्रीवैष्णव सभा में हैं।
उन्होंने जो कहाँ भी न देखा ऐसे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का स्वरूप को देखा मजबूत कांधे, चौड़ी छाती और माथा, चमकदार आंखे, अपने दाहिने हाथ में त्रीदण्ड धारण किये और भगवा वस्त्र पहिने दोनों अप्पिळ्ळै और अप्पिळ्ळार् पूर्णत: साष्टांग दण्डवत कर जो उपहार साथ में लाये श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को अर्पण किया। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने वह स्वीकार किया और उनके ज्ञान अनुसार उन्हें तत्त्वपरम पर उपन्यास अर्पण किया। फिर उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को उनका समाश्रयण करने को कहा। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ताप:, पुण्ड्र; आदि किया, उन्हें मन्दिर लेकर गये, क्रमानुसार जैसे वें नित्य सेवा करते हैं वैसे सभी सन्निधी में मङ्गळाशासन् किया और मठ को लौटे। फिर भगवान को तदियाराधन अर्पण किया गया; श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अप्पिळ्ळार् और अप्पिलार् को अपना उच्छिष्ट अर्पण किया, अपने दिव्य चरणों का भरोसा दिया और उन्हें उपर उठाया। जैसे हीं उन्हें एऱुम्बियप्पा के पिता का संदेश आया कि उन्हें अप्पा को देखना हैं उन्होंने अप्पा को भेजा जो बड़े दु:ख के साथ एऱुम्बि को लौटे।
श्रीरङ्गनाथ भगवान श्रीउत्तम नम्बी को सुधारते हैं
पश्चात एक दिन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीरङ्गनाथ भगवान का मङ्गळाशासन् करने हेतु मन्दिर जा रहे थे। क्योंकि वह तिरुवाराधन का समय था और वह एकान्त (भक्तों के अनुपस्थिति) में होता हैं तो भगवान के सामने से परदा को हटाया गया। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अन्दर गये और भगवान के दिव्य चरणों कि पूजा कर रहे थे। उत्तम नम्बी जो भगवान कि पङ्खी सेवा (तिरुवालवट्टम्) कर रहे थे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दूध जैसे दिव्य रूप को देख उसके पाप कर्मों से उकसाया और उन्हें कहा “अन्दर बहुत देर तक मत रहिये”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी नम्बी के भाव को जाने और कहे “महाप्रसादम्” (भगवान कि ओर से विशेष प्रसाद) और सन्निधी से चले गये। तुरन्त उत्तम नम्बी जो भगवान कि पंखी सेवा कर रहे थे दीवाल के सहारे झुक गये जैसे नींद से उबर गया हो। तब उन्हें एक स्वप्न आया कि श्रीरङ्गनाथ भगवान जो आदिशेष पर शयन किये हैं अपने दिव्य लाल होटों पर दिव्य मंदहस किये आदिशेष जो पवित्र सफेद रंग के हैं कि ओर इशारा कर उन्हें कहे “यह जान ले कि यह आदिशेष हैं जो कृपाकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के रूप में अवतार लिये हैं। उनका रंग सफेद हैं; आप विनम्रता पूर्वक आचरण करें”। उत्तम नम्बी नींद से तुरन्त जग गये, जो देखा उसका अहसास हुआ और घबरा गये। वें तुरन्त श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के मठ में गये और स्वामीजी को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। उन्होंने स्वामीजी को उनके जाने के पश्चात सन्निधी में हुई घटना से अवगत करवाया और निष्कपट भाव से उनके असभ्य व्यवहार के लिये क्षमा माँगे। वें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों के विश्वासपात्र हो गये। लोग फिर कहेंगे कि “श्रीरङ्गनाथ भगवान को छोड़ कौन जानेगा कि आदिशेष हीं श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के अपरावतार हैं?”
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपना मूल रूप सात्विक महिला को दिखाते हैं
मठ में कई महिलाएं थी जो कैङ्कर्य करती थी जैसे साफ सफाई, आदि। उनमें एक थी शठकोपक्कोट्रि। उसने आच्चि (तिरुमंजन अप्पा कि पुत्री) से दिव्य प्रबन्ध और रहस्य का अध्यन किया। एक दिन जब मध्याह्न में श्रीवैष्णव गोष्ठी का प्रसाद सम्पन्न हो गया तब स्वामीजी भगवान को तिरुक्काप्पु अर्पण कर रहे थे भगवान का एकांत में ध्यान कर रहे थे। किवाड़ के छिद्र से शठकोपक्कोट्रि ने उनकी पूजा कि जब उन्हें यह ज्ञान हुआ कि वें हजार फणाओं से मंडित आदिशेष का अवतार हैं। वह भक्ता यह देख भयभीत एवं गद्गद होगई। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने यह देखा, तिरुक्काप्पु को सम्पन्न किया और अपने दिव्य चहरे पर मुस्कुराते हुए बाहर पधारे। उन्होंने उससे पूछा क्या हुआ और उसने उनकी पूजा करते समय पूर्ण घटना जो उसने देखा उनसे कहा। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उसे आज्ञा किये “यह समाचार तुम किसी से नहीं कहना”। अत: यह सभी को स्पष्ट था कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी शेषजी के अवतार थे।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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