श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीवैष्णवों के गुणों कि व्याख्या करना
श्रीरङ्गम् भगवान श्रीरङ्गनाथ का एक दिव्य निवास स्थान हैं जहां उत्तर और दक्षिण दोनों से भक्त दर्शन हेतु पधारते थे। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के उकत्यानुष्ठान (वचनों और कैङ्कर्य) को सुनकर उत्तर भारत से एक श्रीवैष्णवप्रभु ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को उनके निवास स्थान से कुछ भक्त जो श्रीरङ्गम् कि ओर जा रहे थे उनके माध्यम से एक संदेश भिजवाया। उस संदेश में उन्होंने कहा कि “कृपया संक्षिप्त में सभी शास्त्रों का अर्थ ऐसे लिखिये कि व्यवहार में इसका अभ्यास किया जा सके और कृपया दास को भेजे”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अपने संदेश में उन प्रभु को उत्तर दिया “योग्य व्यक्ति के लिये जो जानता हैं कि भगवान के दास होने का स्वाद पुरुषार्थम (लाभ) हैं, केवल उनकी सेवा करना पुरुषार्थम नहीं हैं। केवल चक्र और शंख के प्रतीकों को अपने बाहू पर लगाना पर्याप्त नहीं हैं। केवल भगवान कि पूजा करना हीं पर्याप्त नहीं हैं। केवल अपने आचार्य पर पूर्णत: निर्भर होने कि योग्यता होना पर्याप्त नहीं हैं। यह पर्याप्त नहीं हैं यदि कोई केवल भागवतों (भगवान के भक्त) के अधीन हैं। फिर कैसे कोई सही प्रकार से पुरुषार्थम को प्राप्त कर सके? उपयुक्त कैङ्कर्य में लगे रहने से और श्रीवैष्णवों को बिना किसी बाधा के अपने तिरुमाली में प्रवेश करने और वहाँ आराम से रहने कि अनुमति देकर, इस तरह से कि “वे मुझे बेच भी सकते हैं” कि पुरुषार्थ का अहसास हो सके। जैसे बरगद के बीज में बरगद के पेड़ की कई शाकाएँ समाहित होती हैं वैसे हीं प्रवणम में कई अक्षर और शब्द समाहित होते हैं अगर किसी को अन्त तक भागवत शेषत्वम (पूर्णत: भागवतों पर निर्भर) का पालन करना होता हैं तो उसे स्वयं को सत सम्प्रदाय के सभी अर्थ आ जाते हैं”। दूसरे शब्दों में, अगर किसी को चरमार्थम का पालन करना हैं तो भगवान से सम्बंधीत सभी गूढ़ार्थों को जानने की कोई बाध्यता नहीं हैं, जो किसी भी मामले में अनन्त हैं। अगर कोई इस प्रतिष्ठित अर्थ का पालन किये बिना सत सम्प्रदाय के विषय में सब कुछ सुनता और अभ्यास करता हैं तो यह व्यर्थ होगा वैसे हीं जैसे एक वैश्या से पतिव्रता धर्म (अपने पति के शब्दों का पालन करना) के विषय पर चर्चा करना।
पूजानाथ् विष्णु भक्तानां पुरुषार्थोऽस्ति नेतर।
तेषु विद्वेशतः किञ्चित् नास्ति नाशकम् अत्मनाम्॥
(श्रीवैष्णवों कि पूजा करने से बढ़कर कोई पुरुषार्थ नहीं जो पूरी तरह से भगवान के प्रति समर्पित हैं। आत्मा के प्रति घृणा दिखाने से बढ़कर कोई भी कार्य नहीं हैं जो आत्मा के स्वभाव को नष्ट करे।) इस तरह श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अपनी दिव्यसुक्ति (दिव्य शब्दों) के माध्यम से चरमार्थ निष्ठा (पुरुषार्थ के अन्तिम अर्थ के साथ दृढ़ता से लगे रहना) की व्याख्या किये जो तिरुमन्त्र का सार हैं।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से श्रीमुखम् (संदेश) प्राप्त करने पर उत्तर भारतीय श्रीवैष्णवप्रभु भागवत आराधना (श्रीवैष्णवों पर पूर्णत: निर्भर और उनकी पूजा करना) के साथ दृढ़ता से जुड़ गये; जैसे कि कहा गया हैं “तस्यै नित्यं प्रतिशददिशे दक्षिणस्यै नमस्याम्” (दक्षिण दिशा को सदैव प्रणाम करें) और “दिशेवापि नमस्कुर्यात यतरासौ वसति स्वयम्” (उसे कम से कम उस दिशा में प्रणाम करने दें जहां आचार्य निवास कर रहे हैं) वह श्रीवैष्णव प्रभु प्रति दिन जागते हीं दक्षिण दिशा में जहां श्रीवरवरमुनि स्वामीजी निवास करते हैं उस दिशा में अंजली हस्तम् करते हैं जैसे श्रीसहस्रगीति के ६.५.५ के पाशुर में हैं “तोऴुम् अत्तिसै उट्रु नोक्किये” और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के मठ कि ओर अपने वर्णानुसार कैङ्कर्य किया।
उस समय में भट्टर् पेरुमाळ् (श्रीकुरेश स्वामीजी के वंशज और श्रीरामानुजर् के मुख्य शिष्य) भगवान के सन्निधी में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया और उन्हें कहे “आपके शिष्य हमारे सामने साष्टांग दण्डवत नहीं कर रहे हैं और हमारा अपमान कर रहे हैं”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी मठ में पहुँचकर शिष्यों को बुलाया और उनके ऐसे करने का कारण पूछा। उन्होंने उन्हें उसके आचरण के विषय में बताया और कहा “हमें उसके दास बनने कि इच्छा नहीं हैं”। उन्होंने उनसे कहा “उस संदर्भ में यह सोचो कि भगवान और अम्माजी दिव्य सिंहासन पर विराजमान हैं और उनकी पूजा करिये”। इस प्रकार श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को भगवान के प्रति इतना प्रेम था कि जहां दोष हैं वहाँ भी वें अच्छे गुण को देखते हैं; क्योंकि वें प्रदर्शित करने हेतु सही आचारण जानते थे इसलिये वें विशिष्ट संस्थानों को संजोने और उनके प्रति गतिविधियों को करने में सक्षम थे जो पूर्वाचार्य करते थे।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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