यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ७०

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

<< भाग ६९

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने तिरुवालि तिरुनगरि में श्रीपरकाल स्वामीजी कि पूजा किये 

तत्पश्चात जैसे इस श्लोक में उल्लेख हैं 

अहिराजशैलमपितो निरन्तरं बृतनाशते नसविलोकयन् ततः। 
अवरुह्य दिव्यनगरं रमास्पदं भुजकेशयं पुनरुपेत्यपुरुषम्॥ 

(उन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अपने शिष्यों के साथ अपने नेत्र को बंद किये बिना तिरुमला के चारों दिशाओं को देख रहे थे और पहाड़ से उतर कर दिव्य तिरुपति पहुँचे। उन्होंने पुनः आदिशेष पर शयन किये हुए गोविन्द भगवान कि पूजा किये और जो श्रीमहालक्ष्मीजी का निवास स्थान हैं), उस स्थान से प्रस्थान कर भगवान कि पूजा करते हुए दिव्य स्थान जैसे तिरुवेव्वुळूर्, तिरुवल्लिक्केणि गये। वहाँ से वें श्रीकाञ्चीपुरम् गये और वहाँ श्रीवरदराज भगवान कि पूजा किये। उनकी आज्ञा पाकर वें कृपाकर वहाँ से प्रस्थान किये और मधुरांतकम् पहुँचे जिस स्थान को इस संसार में महान माना गया हैं। मधुरांतकम् के सरहद पहुँचकर उन्होंने यह तमिऴ् पाशुर कि रचना किये: 

मरुमलर् कम​ऴुम् सोलै मदुरै मानगर् वन्दु एय्दि
अरुळ् मोऴि पेरियनम्बि अन्ऱु एदिरासरासर्कु
अरुम् पोरुळ् व​ऴङ्गुम् एङ्गळ् एरि कात्तरुळ्वार् कोयिल्
तिरुमगिऴडियिऱ् सेल्वीर् तीविनै तीरुमे

(सुगंधीत बगीचों से घिरे मधुरै (मधुरांतकम्) के दिव्य निवास तक पहुँचकर, भगवान श्रीराम के मंदिर को जाना चाहिये जहाँ श्रीमहापूर्ण स्वामीजी ने उस दिन श्रीरामानुज स्वामीजी को दुर्लभ धन [समाश्रयण किया] दिया ताकि पूर्व के सभी बुरे कर्म अभिलोपित हो जाये)। 

नगर के समीप पहुँचकर उन्होंने एक और पाशुर कि रचना किये 

इदुवो किळियाऱु? इव्वूरो तिरुमदुरै?
इदुवो तिरुमगिऴुम् गोपुरमुम्?- इदुवो
पेरिय नम्बि ताम् उगन्दु पिन्नुम् एतिरासर्क्कुत्
तुयमळित्त तूयप्पदि?

(क्या यह किळि (तोता), नदी हैं? क्या यह दिव्य स्थान मधुरांतकम् हैं? क्या यह मंदिर का दिव्य स्तम्भ हैं जिसे श्रीमहालक्ष्मीजी को भी पसंद हैं? क्या यह वह पुण्य नगर हैं जहाँ श्रीमहापूर्ण स्वामीजी ने द्वय महामन्त्र का गूढ़ार्थ श्रीरामानुज स्वामीजी को प्रदान किया था?) उन्होंने उस स्थान को साष्टांग दण्डवत किया और बहुत आनन्द से उस स्थान में निवास किया। अगले दिन उन्होंने कृपाकर तिरुचित्तिरकूटम् के लिये प्रस्थान किया और गोविन्द भगवान के दिव्य चरणों में पूजा किये। उन्होंने फिर चोऴ मण्डल (चोऴ नाडु में ४० दिव्य स्थान) में भगवान के दिव्य चरणों में पूजा करने कि इच्छा प्रगट किये। उन्होंने तिरुचित्तिरकूटम् से प्रस्थान कर कई दिव्य स्थलों में पहुँचकर मङ्गळाशासन् किया। वें तिरुवालि तिरुनगरि पहुँचे और श्रीपरकाल स्वामीजी के दिव्य चरणों में पूजा किये। 

उन्होंने यह पाशुर कि रचना किये: 

उऱै क​ऴित्त वेलै ओत्त विऴि मडन्दै मादर्मेल्
   उऱैयवैत्त मनमोऴित्तु अव्वुलगळन्द नम्बिमेल्
कुऱैयै वैत्तु मडल् एडुत्त कुऱैयलाळि तिरुमणग्
    गोल्लै तन्निल् व​ऴिप​ऱित्त कुट्रमट्र सेङ्गैयान्
म​ऱैयुळ् वैत्त मन्दिरत्तै माल् उरैक्क अवन् मुन्ने
   मडि ओदुक्कि मनम् ओदुक्कि वाय पुदैत्तु अव्वोन्नलार्
कुऱै कुळित्त वेलणैत्तु निन्ऱ इन्द निलैमै एन्
   कण्णै विट्टु अगन्ऱिडादु कलियन् आणै आणै आणैये

(श्रीपरकाल स्वामीजी ने अपने मन को जो उन्होंने महिलाओं की आँखों पर रखा था वहाँ से हटाया जो अपने मायाने से निकाले भाले के समान थे। उन्होंने पूर्णत: भगवान पर अपने नेत्र रखे और अपनी शिकायत भी उन्हीं भगवान के पास रखे। उन्होंने मडल् (तमिऴ् साहित्य में एक प्रकार कि कविता) कि रचना किये; वह जिसके निर्दोष लाल हाथ हैं, ने उन भगवान को तिरुवालि के निकट तिरुमणङ्गोल्लै में रखा; जैसे हीं भगवान ने तिरुमन्त्र जो वेदों में हैं का अनुसन्धान किया श्रीपरकाल स्वामीजी बड़े आज्ञाकारी रूप से खड़े हुए और उसे अपने मन में ग्रहण किया। यह दृश्य जहां श्रीपरकाल स्वामीजी भगवान को सुनते सुनते अपने भाले को गले लगा रहे थे मेरे मन से कभी नहीं निकलेगा; मैं उन श्रीपरकाल स्वामीजी कि शपथ लेता हूँ)।

अणैत्त वेलुम् तोऴुकैयुम् अऴुन्दिय तिरुनाममुम्
ओमेन्ऱ वायुम् उयर्न्द मूक्कुम् कुळिर्न्द मुगमुम्
परन्द विऴियुम् इरुण्ड कुऴलुम् सुरुण्ड वळैयुम्
वडित्त कादुम् मलर्न्द कादुकाप्पुम् ताऴन्द सेवियुम्
सेऱिन्द क​ऴुत्तुम् अगन्ऱ मार्बुम् तिरण्ड तोळुम्
नेळित्त मुदुगुम् कुविन्द इडैयुम् अल्लिक्कयिऱुम्
अऴुन्दिय सीरावुम् तूक्किय करुम् कोवैयुम्
तोङ्गलुम् तनिमालैयुम् सात्तिय तिरुत्तण्डैयुम्
सदिरान वीरक्क​ऴलुम् कुन्दियिट्ट कणैक्कालुम्
कुळिर वैत्त तिरुवडि मलरुम् मरुवलर् तम उडल् तुणिय​
वाळ् वीसुम् परकालन् मङ्गै मन्नरान वडिवे

(भाला जिसे गले लगाया जा रहा हैं, हाथ जो पूजा कर रहे हैं, दिव्य चिन्ह जो उभरा हुआ हैं, मुंह जो प्रवणम कह रहा हैं, उठी हुई नाक, ठंडा चेहरा, चौड़े नेत्र, सांवले केश, गढ़े हुए कान, कान पर खिले हुए सुरक्षात्मक आभूषण, कम कान, गिरि हुई गर्दन, चौड़ी छाती, गोल कंधे, झुकी हुई कमर, संकरी कमर, दबा हुआ कवच, उठा हुआ, सांवले होठ, कान कि बूंदे, दिव्य माला, खोखली पायल, वीरतापूर्ण पायल, दबी हुई पिंडली, पुष्प- सदृश दिव्य चरण जो शीतल हो चुके हैं, दुश्मनों के शरीर को काटने के लिये तलवार चलाने कि क्षमता – यह सभी मंगै देश के राजा परकालन के दिव्य रूप का वर्णन करते हैं) 

ऐयन् अरुळ् मारि सेय्य अडियिणैगळ् वाऴिये
     अन्दुगिलुम् सीरावुम् अणैयुम् अरै वाऴिये
मैयिलगु वेलणैत्त वण्मै मिग वाऴिये
      माऱामल् अञ्जलिसेय मलर्क्करङ्गळ् वाऴिये
सेय्यकालन् उडनलङ्गल् सेर्मार्बुम् वाऴिये
    तिण्बुयमुम् पणिन्द तिरुक्क​ऴुत्तुम् वाऴिये
मैयल् सेय्युमुगमुऱुवल् मलर्क्कण्गळ् वाऴिये
    मन्नुमिदित्तोप्पारम् वलयमुडन् वाऴिये

(श्रीपरकाल स्वामीजी के लाल रंग जैसे दिव्य चरणों का मंगल हो! सुन्दर कटी वस्त्र और कवच के साथ दिव्य कमर का मंगल हो! दिव्य भाले को गले लगाने का उपहार का मंगल हो! दिव्य हाथ जो अंजली मुद्रा मे हैं का मंगल हो! लाल रंग के आभूषण और माला वाली छाती का मंगल हो! गोल कंधे और दिव्य गर्दन जो श्रद्धा से झुकी हैं का मंगल हो! होठो पर दिव्य मुस्कान जो हमें मादक करती हैं और खीली हुए नेत्र का मंगल हो! दिव्य ताले पर परदा इसकी अंगूठी के साथ का मंगल हो!) 

वेलणैन्द मार्वुम् विळङ्गु तिरुवेट्टेऴुत्तै
मालुरैक्कत् ताऴत्त वलच् चेवियुम् – कालणैन्द​
तण्डैयुम् वीरक्क​ऴलुम् तार्क्कलियन् वाण्मुगमुम्
कण्डु कळिक्कुम् एन् कण्

(मेरे नेत्र दिव्य छाती को देखकर आनंदित होंगी जो भाले को गले लगा रहे हैं, दिव्य दाहिने कान जो दिव्य अष्टाक्षर को सुनने के लिये झुका हुआ हैं जो तिरुमाल द्वारा निर्देश किया जा रहा हैं,   दिव्य पैर को गले लगाने वाली दिव्य पायल, विरतापूर्ण पायल और उदार श्रीपरकाल स्वामीजी का चेहरा जो माला को धारण किये हुए हैं)। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/09/27/yathindhra-pravana-prabhavam-70-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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