यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ९५

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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उन सभी गतिविधियों के साथ जो उनके दिव्य अवतार के परिणाम स्वरूप पूरी होनी थीं सम्पन्न होगये, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीवैकुण्ठ जाने के इच्छुक थे जहां अथक नित्यसुरियों के स्वामी निवास करते हैं। वें सभी के उस तेजोमय मूल के सुंदर रूप का अनुभव करना चाहते थे और उस अनुभव के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने वाले स्नेह के साथ, बिना कुछ छोड़े, उस परम सत्ता के लिए सभी सेवाएं करना चाहते थे। उनका दिव्य मन अब श्रीवैकुण्ठ जाने पर केंद्रित था, उनका दिव्य शरीर अस्वस्थ हो गया और वे घूमने में असमर्थ हो गए। अपनी इस स्थिति के कारण [दयापूर्वक मंदिर जाने में असमर्थ होने के कारण] वें भगवान के दर्शन करने के इच्छुक थे। उन्होंने पाशुर के माध्यम से अपना आग्रह व्यक्त किया। 

तिरुनाळुक्कागत् तिरुवीदियिल् अरङ्गर्
वरुनाळुमाऱु अदु एन्दैक्किन्ऱु पेरुमाळ् तान्
अन्द वडिव​ऴगैत्तान् ओर् नाळुम् काणेने
इन्द उडम्बोडु इनि

(यह वह समय था जब श्रीरङ्गनाथ भगवान मंदिर के उत्सव के निमित्त दिव्य विथी में आते हैं। मेरे इस स्थिति के कारण एक दिन के लिये भी मैं भगवान के इस दिव्य रूप का दर्शन नहीं कर सकता हूँ)।

जैसे इस श्लोक में उल्लेख हैं 

सत्सम्बन्धोभवतिहितम् इत्यात्मनैव उपतिष्टम्।
      शिष्टाचारं द्रडयितुमिहा श्रीसको रङ्गतुर्यः॥
द्वारं प्राप्य प्रदित विभवो देवदेवस्त्वदीयम्।
      दृष्ट्वैवत्वं वरवरमुने दृश्यते पूर्णकामः॥

(ओ श्रीवरवरमुनि स्वामीजी! सभी महिमाओं को जानने के बाद, सभी के स्वामी होने के नाते, श्रीमहालक्ष्मी के पति होने के नाते, उनके द्वारा स्थापित अभ्यास को दृढ़ता से स्थापित करने के लिये महान लोगों के सम्बन्ध से लाभ होगा, श्रीरङ्गनाथ भगवान हमारे दिव्य निवास के सामने के अहाते में आए हैं; श्रीमान पर अपनी कृपा बरसाकर, वह ऐसा प्रतीत होता हैं जैसे उनकी मनोकामना पूरी हो गई), भगवान भव्य रूप से सजकर विथीयों में पधारे; श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य निवास तक पहुँचकर उनके प्रवेश द्वारा पर बहुत समय के लिये रूके और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को दर्शन प्रदान किये। जैसे एक मेघ सूखे हुए फसल को फिर से जीवित और अंकुरित कर देता हैं उसी प्रकार भगवान ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को अपने उभय नाच्चियार् (श्रीदेवी और भूदेवी) के साथ मिलन का अनुभव करने हेतु सक्षम किया जिससे उनकी विरक्ति गायब हो जायेगी जैसे इस पद में स्पष्ट किया गया हैं “नीडुपुग​ऴत् तेन्नरङ्गर् देवियरुम् तामुमाग वन्दु एन्निडर् तीर्तार् इप्पोदु” (श्रीरङ्गनाथ भगवान जिनकी लम्बे समय से प्रसिद्धी हैं अपनी दिव्य पत्नीयों के साथ पधारे और दास के संकटों को दूर किया)। अपने उभय नाच्चियार् के साथ भगवान के मिलन का अनुभव करने के पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का दिव्य रूप पुनः थक गया और उनके अंग हिलाने में असमर्थ थे। श्रीरङ्गनाथ भगवान पुनः श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य तिरुमाळिगै में आकर खड़े हुए और अर्चकों के हाथों से दया कर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के निकट पधारे। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने श्रीरङ्गनाथ भगवान कि पूजा कर इस पाशुर कि रचना किये

पारारुम् अण्णल् इरामानुस चीयर्
चीरारुम् सेनै मुदलियार् नायनार् आराद​
अन्बुडैय आत्तान् अऱिन्दिलरे एन्नुडैय​
तुन्बत्तैत् तीर्त्ताऱकुत्तान्

(शिष्य जैसे वानमामलै जीयर् स्वामीजी, सेनै मुदलियार्, नायनार्, आदि को यह पता नहीं था कि मेरे दु:ख को कैसे दूर करें)। उन्होंने वानमामलै जीयर् स्वामीजी और अन्य को एक दिव्य संदेश के माध्यम से उनकी अवस्था के बारें में बताया। तुरंत संदेश प्राप्त होते हीं उसी क्षण वें सभी कृपाकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के मठ को पहुँचे। उन्होंने उनके दिव्य चरणों कि पूजा किये। उन्हें देखकर उनके दिव्य रूप से उनकी अस्वस्थता दूर हो गई। उनके अवस्था में सुधार देखकर वानमामलै जीयर् स्वामीजी ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से आज्ञा पाकर उत्तर दिशा में रामानुज सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार के लिये निकल गये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने आज्ञा प्रदान किये और जल्दी आने को कहा। वानमामलै जीयर् स्वामीजी उत्तर भारत के अपनी यात्रा के लिये निकल पड़े। 

[अधीक टिप्पणी प्राध्यापक इरा. अरङ्गराजन् स्वामी के ग्रंथ “मन्नुपुग​ऴ् मणवाळ मामुनिगळ्”: वानमामलै जीयर् स्वामीजी के उत्तर भारत कि यात्रा करने के लिये दो कारण हैं। पहिला कारण हैं वरवरमुनि सम्प्रदाय का प्रचार प्रसार करना और जो लोग अन्य भाषा बोलते हैं उन्हें दिव्य प्रबन्ध कि महिमा को बताना; और दूसरा पेरिय जीयर् के दिव्य चरणों में उनके माध्यम से एक सम्बन्ध बनाना। वानमामलै जीयर् स्वामीजी के आचार्य श्रीवरवरमुनि स्वामीजी हैं। अत: वानमामलै जीयर् स्वामीजी के परमाचार्य श्रीशैलेश स्वामीजी हैं जिन्हें तिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै भी कहा जाता हैं। श्रीशैलेश स्वामीजी का वैभव केवल दक्षीण नहीं उत्तर में भी फैला था। सभी को श्रीतुलसीदास के विषय में पता हैं जिन्होंने हिन्दी में श्रीरामायण कि रचना किये। यह सभी को पता हैं कि श्रीतुलसीदास जी भी रामानुज सम्प्रदाय के हैं और उनके वंशज श्रीशैलेश स्वामीजी के शिष्य हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी और वानमामलै जीयर् स्वामीजी उत्तर भारत में दोनों बहुत प्रसिद्ध थे। यही कारण हैं कि वानमामलै जीयर् स्वामीजी ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से कमान को लिया और उत्तर भारत में लोकाचार्य सिद्धान्त का प्रचार प्रसार किया। उन्होंने उत्तर भारत में कई तोत्ताद्री मठ और कई महंत कि स्थापना किये]। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/10/22/yathindhra-pravana-prabhavam-95-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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