श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीमद उभयवेदान्ताचार्य काञ्चीपुरम् के श्रीप्रतिवादि भयङ्करम् अण्णङगराचार्य द्वारा दी गई व्याख्या
यह श्लोक श्रीशैलेश दयापात्रम् कृपाकर श्रीरङ्गनाथ भगवान ने रचा हैं। हम यह पुष्टि करेंगे कि यह भगवान कि वाणी हैं। यह श्रीरङ्गनाथ भगवान हीं थे जिन्होंने श्रीराम और श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया था। उन अवतारों के समय भी उन्होंने कुछ आचार्यों से शिक्षा प्राप्त किये थे परन्तु उन्हें अपने दिव्य मन में संतुष्टि प्राप्त नहीं हुई। उस कमी को पूर्ण करने हेतु वें बहुत प्रसन्न थे कि उन्हें पूर्ण आचार्य प्राप्त हो गये हैं। वें इस संसार में कई विशिष्ट तरिके से प्रगट हुए हैं।
श्रीशैलेश दयापात्रम्-: रामावतार के समय भगवान ने एक ऐसे व्यक्ति को प्राप्त किया जो श्रीशैलेश दयापात्रम् थे परन्तु उन्हें खेद था। अब वें एक ऐसे व्यक्ति को पाकर उत्साहित महसूस कर रहे हैं जो श्रीशैलेश दयापात्रम् हैं। वह व्यक्ति जिसे भगवान श्रीराम ने रामावतार में प्राप्त किया जो श्रीशैलेश दयापात्रम् था वह सुग्रीव थे। ऋषिमुख पर्वत वहाँ श्रीशैलम् (दिव्य पहाड़) था। उस पहाड़ के नियन्त्रक मातंग मुनि थे। सुग्रीव उनके दयापात्र थे [दयापात्रम्]। धुन्धुबी नामक एक शक्तिशाली राक्षस ने बाली को युद्ध के लिये ललकारा। दोनों के मध्य में भीषण युद्ध हुआ। धुन्धुबी हार गया और बाली द्वारा मारा गया। बाली ने उसके मृत शरीर को एक योजना (आज के दौर में १० मिल या १६ किलोमीटर) कि दूरी पर फेंक दिया। जब उसका मृत शरीर फेका गया उस राक्षस के मुंह से कुछ खुन कि बुंदे मतंग मुनि के आश्रम् पर गिर गया। मुनिवर बहुत क्रोधित हो गये और उन्होंने श्राप दिया कि जिस व्यक्ति ने उनके आश्रम का अपमान किया हैं और जो लोग उनके मित्र हैं वें सभी मर जायेंगे अगर वें उस पर्वत पर कदम रखेंगे जहां वें निवास कर रहे थे। तुरंत जो लोग बाली के प्रति मित्रवत थे और जो उस पर्वत पर निवास कर रहे थे ने उस पर्वत को छोड़ दिया। सुग्रीव जिसने बाली से अपना सम्बन्ध तोड़ दिया था ने अपने मंत्रीयों और मित्रों के साथ उस पर्वत पर गया और वहाँ निवास करने लगा। इस प्रकार वह श्रीशैलेशर के दया का पात्र बन गया। श्रीराम जिन्होंने सुग्रीव से मित्रता कि ने सुग्रीवं शरणं गत: (मैं सुग्रीव के शरण होता हूँ) और सुग्रीवं नाथम् इच्छाति (मेरे इच्छा हैं सुग्रीव मेरे स्वामी हो) कहे और सुग्रीव से नाखुश हो गये जब सुग्रीव बारीश के मौसम के समाप्त के पश्चात माता सीता को ढूँढने के लिये भगवान श्रीराम कि सहायता के लिये नहीं आये। अत: श्रीराम ने लक्ष्मणजी से कहा “ओ लक्षमण! सुग्रीव के पास जाओं और कहो यह मेरे शब्द हैं: जो अपने साथ किये गये अच्छे कार्य को भूल गया वह लोगों में सबसे हीन हैं, सुग्रीव के लिये बाली का मार्ग अभी भी खुला हैं। मैं उसे और उसके रिश्तेदारों और मित्रों सहित यमपुरम भेजने को तैयार हूँ”। इस प्रकार भगवान में पहिले श्रीशैलेश दयापात्रम् कि कमी को दूर करने कि कमी थी। अब श्रीरङ्गनाथ भगवान के रूप में एक श्रीशैलश दयापात्रम् प्राप्त कर उत्थान महसूस करते हैं। वें कहते हैं वें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को प्रणाम करते हैं जो श्रीशैलेश स्वामीजी के कृपापात्र बने जिन्हें तिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै नाम से भी जाना जाता हैं।
धीभक्तयादिगुणार्णवम् –: यह सर्वविदित हैं कि रामावतार के समय भगवान खारे समुन्द्र के राजा के चरणों में गिरे थे। श्रीविभीषणजी के शब्दानुसार “समुद्रं राघवो राजा शरणं गन्तुमर्हति” (श्रीराम के लिये समुन्द्र के राजा के चरणों में शरण होना उपयुक्त हैं), श्रीराम समुन्द्र के शरण हो गये हैं; परंतु यहाँ भी उन्हें निराशा प्राप्त हुई। क्योंकि वह राजा उनके सहायता के लिये नहीं आया जिससे वें क्रोधित होकर लक्ष्मण से कहे “चापमानय सौमित्रे! साराम्च आसीविषोपमान् सागरं शोषयिष्यामि” (मेरा धनुष और क्रूर बाणों को लावों लक्ष्मण! मैं इस समुन्द्र को एक सुखा स्थान बना दूँगा)। इस प्रकार जिस स्थान पर उन्हें आत्मसमर्पण करने का प्रयास किया था वहाँ केवल अस्वीकृति हुई। उस कमी को दूर करने के लिये उन्होंने एक खारे समुन्द्र के बजाय उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को प्रणाम किया जो ज्ञान, भक्ति और वैराग्य जैसे शुभ गुणों के सागर हैं।
यतीन्द्रप्रवणम् -: “मन्दिपाय्वड वेङ्कडमामलै वनवर्गळ् सन्दिसेय्य निन्ऱान् अरङ्गतणविन् अणैयान्” (श्रीरङ्गनाथ भगवान जो शेषशैय्या पर शयन किये हुए हैं, वें तिरुमला में श्रीवेङ्कटेश भगवान के रूप में खड़े हुए हैं ताकि नित्यसूरि उनकी पूजा कर सके)। श्रीरामानुज स्वामीजी ने श्रीवेङ्कटेश भगवान को दिव्य शङ्ख और चक्र अर्पण किये जिसके लिये उनकी प्रशंसा ऐसे हुई “अप्पनुक्कुच् चङ्गाऴि अळित्तरुळुम् पेरुमाळ्” (वह जिसने कृपाकर श्रीवेङ्कटेश भगवान को दिव्य शङ्ख और चक्र अर्पण किये)। यह सभी को ज्ञात हैं कि भगवान ने श्रीरामानुज स्वामीजी को अपने आचार्य के रूप में स्वीकार किया। यद्यपि श्रीरामानुज स्वामीजी के साथ कोई वैर नहीं था कृपाकर श्रीरामानुज नूट्रन्दादि के ९७वें पाशुर “तन्नैयुट्रु आट्चेय्युम् तन्मैयिनोर्” (श्रीरामानुज स्वामीजी ने श्रीरङ्गामृत स्वामीजी [जिन्होंने श्रीरामानुज नूट्रन्दादि कि रचना किये] को उन जनों के दिव्य चरणों के शरण किया जो श्रीरामानुज स्वामीजी का कैङ्कर्य कर रहे थे) को सुनने के पश्चात, भगवान को यह महसूस हुआ कि यतीन्द्र के बजाय यतीन्द्र प्रवणर के शिष्य होना उचित हैं – यानि श्रीरामानुज स्वामीजी के बजाय श्रीवरवरमुनि स्वामीजी। अत: वें कहते हैं वें यतीन्द्र प्रवणर को प्रणाम् करते हैं।
वंदे रम्यजामातरं मुनिम् –: जब भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया तब वें भी आचार्य के शिष्य हुए – श्रीरामावतार में विश्वामित्र और श्रीकृष्णावतार में सांदीपनी मुनि। हालांकि दोनों स्थिति में उन्हें उदासी प्राप्त हुई। राजा जनक के महल में जहां भगवान ने विश्वामित्र के साथ गये वहाँ उन्होने गौतम मुनि के पुत्र सतानन्द से विश्वामित्र का संवाद सुना जैसे श्रीरामायण के बाल काण्ड के ५१वें श्लोक देखा गया हैं जहां सतानन्द भगवान श्रीराम से कहे कैसे विश्वामित्र मेनका से सम्बन्ध बनाये, कैसे उन्होंने वशिष्ठजी से युद्ध किया, आदि जहां उन्होंने रजो और तमो गुण को प्रदर्शित किया जिससे उन्हें यह सोचकर निराशा प्राप्त हुआ “क्या हम ऐसे व्यक्ति से आचार्य रूप में मिले थे?”। कृष्णावतार में जब भगवान सांदीपनी मुनि के यहाँ शिक्षा प्राप्त किये और शिक्षा समाप्त होने के पश्चात उन्होंने आचार्य से गुरुदक्षीणा में क्या देना हैं उसे पूछा तो आचार्य ने अपने खोए हुए पुत्रों को पुनः लाने को कहा जब कि उन्हें यह ज्ञात था कि कृष्ण श्रीमन्नारायण हैं और वें उन्हें मोक्ष भी दे सकते हैं। इस प्रकार भौतिक आवश्यकता के पीछे पड़े दोनों मुनियों को अस्वीकार करते हुए, भगवान ने शुभ गुणों का सागर लिया और अपने आचार्य के रूप में जो पूरी तरह से वैराग्य रखते थे।
अत: केवल भगवान हीं ऐसे श्लोक को गा सकते हैं जिसका अर्थ विशिष्ट हैं। क्योंकि यह ऐसे विषय हैं जो उनके दिव्य हृदय में निवास कर रहे थे, इन्हें किसी और के द्वारा विनियोजित नहीं किया जा सकता हैं। इसलिये यह निश्चित हैं कि यह भगवान के हीं व्याख्य हैं।
यह हमें यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् के अन्त में लाता हैं।
दिव्यदंपति तिरुवडिगळे शरणम्
आऴवार् एंपेरुमानार जीयर् तिरुवडिगळे शरणम्
पिळ्ळैलोकम् जीयर् तिरुवडिगळे शरणम्
आदार – https://granthams.koyil.org/2021/11/03/yathindhra-pravana-prabhavam-108-english/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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