श्रीवचन भूषण – सूत्रं ७

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तत्पश्चात पुरुषकार कि प्रकृति को समझाने के लिये पहिले श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी दयापूर्वक उन गुणों कि व्याख्या करते हैं जो पुरुषकारत्व के लिये आवश्यक हैं। 

सूत्रं

पुरुषकारमाम्पोदु कृपैयुम् पारतन्त्रयमुम् अनन्यार्हत्वमुम् वेणुम् 

सरल अनुवाद

पुरुषकार करते समय कृपा, पारतन्त्रय और अनन्यार्हत्वम कि आवश्यकता हैं। 

व्याख्यान

पुरुषकारमाम्पोदु 

पुरुषकारमाम्पोदु का अर्थ वह व्यक्ति जो पुरुषकार करता हैं। कृपै – पर दुःख असहिष्णुत्वम् (दूसरों के कष्ट को सहन नहीं कर सकते हैं); पारतन्त्रयम – किसी अन्य व्यक्ति के अधीन होना [भगवान]। अनन्यार्हत्वम – अन्य किसी व्यक्ति के लिये विध्यमान नहीं होना (भगवान)। 

जो पुरुषकार कर रहे हैं उसके लिये अनिवार्य रूप से कैसे अपेक्षित हैं? 

जब चेतना इस दुनिया में पीड़ित हैं, इस तरह की पीड़ा को देखने में असमर्थ होने के कारण, उन्हें ईश्वर के साथ एकजुट करने का प्रयास करने के लिए कृपा की आवश्यकता होती है; ईश्वर को आकर्षित करना जो कि स्वतन्त्र (स्वतंत्र) है, चूँकि उसके विचारों का पूरी तरह से पालन करके उसे आकर्षित करना आवश्यक है, पारथान्त्र्यम की आवश्यकता है;  उसे यह सोचकर उसके शब्दों को स्वीकार करने के लिए कि “मेरे अलावा किसी और के लिए अस्तित्व में नहीं है, क्योंकि वह केवल मेरे लिए गौरव बढ़ाने के लिए अस्तित्व में है, वह केवल मेरी जिम्मेदारी की पहचान कर रही है” और उसके अनुरोधों को पूरा करने के लिए, अनन्याहथ्वम की आवश्यकता है। इसलिए, पुरुषकार करने के लिए, इन तीन गुणों की आवश्यकता है। 

ईश्वर कि दया को छोड़ अम्माजी कि दया में क्या  महानता हैं? 

  • ईश्वर अनियंत्रीत रूप से स्वतन्त्र हैं। 
  • वह आशीर्वाद और दण्ड देने में समान रूप से सक्षम हैं। 
  • वह आत्मा के प्रत्येक कर्म को मापकर और उसे उपायुक्त परिणाम प्रदान करते हैं। 

इन्हीं कारणों से उसकी दया मंद हो जायेगी और यदा कदा बढ़ भी जायेगी। परंतु अम्माजी निरन्तर दूसरों पर कृपा करने पर केन्द्रीत रहती हैं, उनकी दया किसी भी वस्तु से कम नहीं होगी और लगातार बनी रहेगी। अत: उनकी कृपा बिना सीमा के निरन्तर बहती रहेगी। जैसे उनकी मातृ सम्बन्ध महान हैं वैसे हीं उनकी दया भी भगवान से अधीक हैं। और इन्हीं कारणों से सभी जन उनके पास जाने के लिये किसी अन्य के पुरुषकार की तलाश करने की आवाश्यकता नहीं हैं। 

ईश्वर के प्रति उनके पारतंत्रय और अन्यार्थत्वम न के वाल स्वाभाविक हैं परन्तु निम्म पर आधारीत हैं: 

  • वह भगवान की दिव्य पत्नी है जैसा कि पुरुष सूक्त में कहा गया है “हरीश्चते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ ” वह श्रीमहालक्ष्मी और श्रीभूमि देवी को अपनी पत्नी के रूप में रखते हैं) और यजुर्वेद ४.४.३७ “अस्येशानाजगतो विष्णु पत्नी ” वह ब्रह्मांड की स्वामी हैं) और विष्णु की पत्नी)।
  • अम्माजी उनके स्वरूप निरूपक होने के कारण वें अविभाज्य हैं जैसे श्रीसूक्त में कहा गया हैं कि “अहन्ता ब्रह्मणस्तस्य साहमस्मि सनातनी ” (मैं भगवान के लिये एक शाश्वत पहचान हूँ) और “श्रीवत्सवक्षा नित्यश्रीः ” (जिसके पार श्रीवत्स तिल और अम्माजी के साथ शाश्वत सम्बन्ध हैं )। 

केवल इन्हीं कारणों से सभी के लिये उनकी दासता इन दिव्य दंपत्ति के प्रति होगी; और अम्माजी के लिए उनकी दासता विशेष होगी। इसी सीधे सम्बन्ध के कारण अममाजी को ईश्वर को आकर्षित करने के लिये कोई पुरुषकार कि आवश्यकता नहीं हैं।  

इन तीन गुणों में कृपा को “श्री” नाम में देखा जाता हैं जो व्युत्पत्ति “श्रिङ सेवायाम् ” (सेवा करना) कर्मणि व्युत्पत्ति “श्रियते” से ली गई हैं; पारतंत्रीय और अनन्यार्हत्वम को कर्तरि व्युत्पत्ति “श्रयते ” और मतुप् प्रत्यय के माध्यम से देखा जाता हैं जो नित्य योग पर प्रकाश डालता हैं।

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

आधार – https://granthams.koyil.org/2020/12/13/srivachana-bhushanam-suthram-7-english/ 

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