श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीवानाचलमहामुनये नमः
श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः
श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनोतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरुत्तु नम्बी को दिया । वंगी पुरुत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधि परिहारंगल” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ पर अँग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेगें । इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग https://granthams.koyil.org/virodhi-pariharangal-english/ यहाँ पर हिन्दी में देखे सकते है ।
<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – ३
२०) मुख्यप्रमाण विरोधी – प्राथमिक प्रमाण को समझने में बाधाए
प्रमा यानि सही ज्ञान। प्रमाण यानि वह जो एक विषय में सही ज्ञान प्रदान करें।
वेद तीन प्रकार के प्रमाणों को स्विकार करता है।
- प्रत्यक्षम (अनुभव) – वह जो हमारे इंद्रियो आँख, नाक, कान, आदि से दिखायी पड़ता है। हालाकि इसे सत्य को वैसे ही बतलाना ऐसा मानना उसके लिये कुछ पाबन्धी है। उदाहरण के लिये अगर किसी को आंखों कि बीमारी है तो जो उसे दिखाता है वह सत्य और विश्वासयोग नहीं होगा। एक और उदाहरण जब रोशनी कम हो किसी को मनुष्य और खम्भ में ,साँप और रस्सी के बीच भ्रम पैदा कर सकते है। मृगतृष्णा झुठी रोशनी है (जल के कैसे दिखती है परन्तु सत्य में होती नहीं है)।
- अनुमानं – पूर्व अनुभव के आधार पर शर्त लगाने को अनुमान कहते है। जहाँ धुआं होता है वहाँ अग्नि होती है – यह अनुमान के लिये उत्तम उदाहरण है। परन्तु इसमें भी भरपूर बाधाएं है। दोनों प्रत्यक्षम और अनुमानं को प्राथमिक प्रमाण नहीं माना जाता है।
- शब्दं (यथार्थ ग्रन्थ) – सही ज्ञान के लिये वेद को यथार्थ और विश्वासयोग प्रमाण माना गया है। सभी आस्तिक (जो वेद जो प्रमाण मानते है) यह स्वीकार करते है कि वेद हीं अपौरुषेयम (जो किसी स्त्री या पुरुष से रचित नहीं है), नित्य (अनंतकाल तक है), निर्दोष (दोषरहित) है।
अब हम मुख्य प्रमाण में क्या बाधाएं है उसे देखेंगे और समझेंगे।
- वेदान्त दोषरहित ज्ञान अर्पण करता है। वेदान्त का अर्थ वेद का अन्त या सबसे उपरी भाग है – मुख्यता उपनिषद। वेदों को सर्वोच्च अधिकारी न मानना विरोधी है।
- वेदान्त को प्रत्यक्षम और अनुमानं के समान मानना विरोधी है। वेदान्त दूसरे प्रमाणों से सर्वोच्च है। अनुवादक टिप्पणी: महाभारत के प्रसिद्ध प्रमाण को स्मरण किजीए “सत्यम सत्यम पुनस सत्यम वेधात सास्त्रम परम नास्ति न दैवं केसवात परम”।
- भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता के अन्त में “मा शुच:” यह आज्ञा किये (चिन्ता मत करो)। उपनिषद का तत्त्व गीता का चरम श्लोक है। भगवान ने गीताचार्य का पद ग्रहण किया और दिव्य रथ पर विराजमान होकर गीता का यह उपदेश दीया, “सब उपायों का त्याग कर केवल मेरे हीं शरण में आ जावो। मैं तुम्हे सभी पापों से मुक्त कर दूँगा। यह मेरे ज़िम्मेदारी है। चिन्ता मत करों, शंका मत करों, शोक मत करों”। इसे हीं “मा शुच:” कहते है। श्रीगोदाम्बाजी नाच्चियार तिरुमालि के “मेय्म्मैप्पेरु वारत्तै” पाशुर में यही दर्शाती है। सभी को इन शब्दों पर पूर्ण विश्वास होना चाहिये। विश्वास नहीं होना बाधा है।
- आल्वार दोष रहित ज्ञान के साथ भगवान के निर्हेतुक कृपा पात्र है। क्योंकि वें निर्मल ज्ञान से उत्पन्न हुए है वें परम सत्य है। वें वेद जो ज्ञान के प्राथमिक साधन है उतने कुशल है। ऐसा नहीं सोचना (जैसे आल्वारों के पाशुर हिन है ऐसा सोचना) विरोधी है।
- श्रीशठकोप स्वामीजी से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी तक –जो आचार्य गुरु परम्परा में है उन्हें पूर्वाचार्य कहते है। इसी परम्परा में आचार्य से शिष्य को ज्ञान प्राप्त होता है। सभी आचार्य और उनके प्रिय शिष्य आल्वारों से हीं आशीर्वाद प्राप्त किये है। उनके उपदेश को ज्ञान का प्राथमिक साधन माना गया है। सभी को इसमें पूर्ण विश्वास होना चाहिये। इस तत्त्व में विश्वास न होना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी अपने स्तोत्र रत्न में यह दर्शाते है “त्वदीय गम्भीर मनोनुसारिणः” – वेद भगवान के भक्तों के निर्मल हृदय के पीछे आते है। सामान्यत: जाना जाता हुआ प्रमाण “धमज्ञ समयम प्रमाणं वेदास छ” भी इसी पर ज़ोर देता है – जो धर्म को जानते है वें मुख्य प्रमाण है और वेदम भी प्रमाण है। यह आल्वार और पूर्वाचार्यों जो नित्य धर्म में स्थापित करने में लगे थे उनको भी अधिक तूल देता है ।
२१) यावधात्मभावी विरोधी – आत्मा जब तक है उसमें बाधाएं
यावधात्म भावी का अर्थ है जब तक आत्मा है। आत्मा तो नित्य है- हमेशा रहती है। परन्तु बाधाए नहीं –आत्मा को सत्य ज्ञान कि प्राप्ति होती है तब वह निकल जाती है इसलिये यह सोचा जा सकता है यह बहुत समय तक है।
जीवात्मा का सत्य स्वभाव भगवान और भागवतों का नित्य दास बनकर रहने में है।
- श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी लिखते है “देहेन्द्रिय मनः प्राण दीप्यो अन्यः” यह बताता है की आत्मा शरीर, इंद्रिया, मन, बुद्धि, आदि से भिन्न है। यह सामान्यत: देखा जाता है की लोग आत्मा और शरीर को एक ही मानते है और उसी प्रकार काम करते है। परन्तु यह सत्य नहीं है – यह केवल भ्रम है। शरीर जन्म, पैदावार, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु के अधीन है। परन्तु आत्मा निर्विकार है। इसलिये आत्मा और शरीरादि में भ्रम होना विरोधी है। अनुवादक टिप्पणी: तत्त्वत्रय में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी यह समझाते है कि एक विस्तृत तरीके में आत्मा देह, इंद्रिया, मन, प्राण, बुद्धि, आदि से भिन्न है।
- आत्मा को स्वतंत्र समझना गलत है। सर्वेश्वर आत्मा के मालिक है और वें हीं उसको नियंत्रण में रखते है। भगवान के प्रति दास भाव जीवात्मा की सही पहिचान है। आत्मा को स्वयं का समझना भगवान के वस्तु की चोरी करने के समान है। यह बहुत बड़ी बाधा है।
- ईश्वर सब रूप से पूर्ण है। वह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, अवाप्त समस्त कामन और दोष रहित है। ऐसे ईश्वर को अपूर्ण समझना बाधा है।
- ब्रह्मा, रुद्र, आदि को नियंत्रक समझना – श्रीमन्नारायण ही सभी देवताओं के स्वाभाविक नियंत्रक है। इसलिये आदि शंकराचार्य अपने सहस्त्रनाम भाष्य में यह दर्शाते है “ईशन्शील: नारायण एव” (श्रीमन्नारायण ही नियंत्रक है)। उपनिषद भी यही घोषणा करते है कि “श्रीमन्नारायण ही परब्रह्म है”। अत: श्रीमन्नारायण छोड़ अन्य को ईश्वर समझना बाधा है।
- भगवान छोड़ अन्य को रक्षक मानना – भगवान हीं सबके रक्षक है। यह प्रणवं का अभिप्राय है जो सब वेदों का तत्त्व है। क्योंकि ब्रह्मा, रुद्र, जीवात्मा आदि वें नियंत्रक नहीं है। उन्हें ऐसा मानना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी ने एक ग्रन्थ लिखा था “प्रपन्न परित्राणम” जो स्पष्ट स्थापित करता है कि भगवान श्रीमन्नारायण हीं सच्चे रक्षक है। वह स्वयं मुमुक्षुपड़ी के ३९ सूत्र में यह लिखते है “‘ईश्वरनै ओळिन्तवर्गळ् रक्शकरल्लर्’ एन्नुमिडम् प्रपन्न परित्राणत्तिले चोन्नोम्“।
- भागवत अपचार, आचार्य अपचार और आचार्य के भक्तों का अपचार सबसे बड़े बाधाएं है। भगवान भागवत अपचार करने वाले को कभी क्षमा नहीं करते। भगवान भू-देवी से कहते है “क्षिपामि, नक्षमामि वसुन्धरे” – “भू-देवी मैं उन्हें नीचे गीरा दूँगा और फिर कभी भी क्षमा नहीं करूँगा”। इसे पुराणों में बहोत से जगह समझाया गया है। भगवान भगवद अपचार करनेवाले को क्षमा कर देंगे। परन्तु वें भागवत अपचार और आचार्य अपचार करनेवाले को दण्ड देते हीं है। श्रीतिरुवरंगत्तु अमुधनार श्रीरामानुज नूत्तन्दादि के १०७ पाशुर में श्रीरामानुज स्वामीजी से प्रार्थना करते है कि “ईरामानुज! उनतोण्डर्हटके अंबुत्तिरुक्कुम्बडि एन्नैयाक्कि अङ्गटडुत्ते” – श्री रामानुज! कृपया मेरे में सुधार किजीए ताकि मैं हमेशा आपके दासों से जुड़ा रहूँ। हमें भी इसी कि मनोकामना करनी चाहिये।
२२) नित्य विरोधी – नित्य बाधाएं (स्वयं के इंद्रियों से संबन्धित जो हमेशा उसके साथ रहती है)
इंद्रिया निरन्तर आत्मा के साथ रहती है। १० इंद्रिया होती है:
- पञ्च ज्ञानेन्द्रिया – ५ ज्ञान कि इंद्रिया – कान, खाल, आँख, जिव्हा, नाक
- पञ्च कर्मेन्द्रिय – ५ कर्म कि इंद्रिया – मुह, हाथ, पैर, मल त्याग, प्रसव।
भगवान जीवात्मा को इंद्रियों के माध्यम से कृपा करते है ताकि हम उन्हें भगवान कि सेवा और मंगलाशासन में उपयोग कर सके। वें बहुत मजबूत और ताकतवर होती है। सहस्त्रगिती में श्रीशठकोप स्वामीजी कहते है “विण्णुळार् पेरुमार्क्कु अडिमै चेय्वारैयुम् चेऱुम् ऐम्पुलनिवै” – यह इंद्रिया इतनी ताकतवर होती है कि वह नित्यसूरी कि निष्ठा को भी डगमगा सकती है। इस विषय में हम बाधाएं देखेंगे।
- सहस्त्रगिती में जैसे श्रीशठकोप स्वामीजी कहते है “अन्नाळ् नी तन्त आक्कैयिन् वळि उळल्वॅ” – मुझे यह शरीर और इंद्रिया जो आपने प्रदान किया था मुझे पिडा देती है। इसलिये यह मुख्य समझने कि बात है कि इंद्रिया और इंद्रियों का भोग सबसे बड़ा विरोधी है।
- इंद्रियों का दास बनकर रहना और इंद्रिय विषयक इच्छाओं को पूर्ण करना विरोधी है।
- कोई यह विचार करता है कि “मैं बहुत बड़ा बुद्धिमान हूँ। मेरे सब इंद्रिया मेरे वश में है ”। यह बहुत बड़ी बाधा है। बहुत बड़े ऋषि जैसे श्रीविश्वामित्र, आदि इन इंद्रियों के भोग के कारण अपनी कीर्ति गवा बैठे है। अनुवादक टिप्पणी: हम आचार्य और आल्वारों के पाशुर और स्तोत्र में यह कहा है कि किस तरह वें इंद्रिय विषयक के भोग के स्वभाव से डरते थे। ऐसा इंद्रिय विषयक इच्छाओं कि ताकत है और सब को इन गढ्ढों से बचना चाहिये।
- हमारे इंद्रियों को भगवद सौन्दर्य में हीं लगाना चाहिये और यह करते समय भागवत कैंकर्य को भूल जाना विरोधी है। हालाकि इंद्रिय विषयक एक तरह का गढ्ढा है और दूसरे तरह का गढ्ढा पूरी तरह भगवान के सौन्दर्य में लीन है जैसे श्री शठकोप स्वामीजी पेरिया तिरुवंदादी ३४ में बताया गया है “कालाळुम्, नेन्जळियुम्, कण्सुळलुम्” – भगवान का सौन्दर्य देखकर कोई भी उसी क्षण गिर जायेगा अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हो पायेगा, हृदय पिघल जायेगा और अनुभव के कारण मूर्छा आ जायेगी। ऐसी दशा भगवद कैंकर्य और भागवत कैंकर्य से दूर करता है। श्रीरामायण के अयोध्या काण्ड में यह कहा गया है कि “सत्रुघ्नों नित्य सत्रुघ्न:” – सत्रुघ्न जिसने सभी नित्य दुश्मनों पर विजय पाया है। पेरियवाचन पिल्लै उसे इस तरह समझाते है “सत्रुघ्न श्रीराम के सौन्दर्य पर विजय प्राप्त (और ध्यान न दिया) कर निरन्तर श्रीभरतजी कि सेवा किये”। अत: भागवत कैंकर्य में जो भी बाधा है वह विरोधी समझा जाता है।
23) अनित्य विरोधी – अस्थाई बाधा (शारीरिक सुख और दु:ख से संभन्धित: )
अनित्य यानि अस्थाई – शारीरिक सुख और दुख। शरीर को स्व समझकर और सुख / दुख को महसुस कर शरीर के सुख / दुख को ध्यान में रखकर यह शरीर के चारों ओर घुमता है। इस विषय में बाधाओं को हम देखेंगे।
- चन्दन के खुशबू, पुष्प, आदि मिलने वाले आनन्द को वास्तविक आनन्द समझना विरोधी है।
- शस्त्र से या जहर से हमला आदि दुख को वास्तविक दुख समझना विरोधी है।
- सांसारिक लाभ मिलते समय खुश होना और ना मिलने पर दुख होना विरोधी है।
अत: कोई भी सांसारिक सुख दु:ख से विचलित नहीं होना चाहिये और हमेशा समानता रखना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण विस्तार से आत्मा और शरीर के भेद के बारें में और कैसे सबको उस भेद से सचेत रहना चाहिये और शारीरिक सुख / दु:ख को सामान भाव से व्यवहार करना चाहिये इसे समझाते है ।
अडियेन केशव रामानुज दासन्
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