श्री:श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
अवतारिका
श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी दयापूर्वक इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि अम्माजी का पुरुषकारत्व कहाँ प्रकट होता है, जिसमें ऐसे गुण हैं।
सूत्रं – ९
सम्श्लेष विशेषङ्गळ् इरण्डिलुम् पुरुषकारत्वम् तोट्रुम्
सरल अनुवाद
मिलन और वियोग दोनों में, उनका पुरुषकारत्व प्रकट होता है।
व्याख्यान
सम्श्लेष विशेषङ्गळ्….
पुरुषकारत्व का अर्थ गटकत्वम; अत: यह कहा जाता हैं की यह जब माता भगवान के साथ रहती या बिछुड़कर रहती हैं तब दर्शाया जाता हैं।
एक साथ रहने के दौरान, यह निम्नलिखित अवसरों पर देखा जाता है जहां भगवान द्वारा दी गई सुरक्षा में अम्माजी का पुरुषकारत्व अच्छी तरह से दिखाई देता है:
- जब लक्ष्मणजी को यह पता चला कि भगवान श्रीराम उन्हें वन में नहीं लेकर जाने का निर्णय लिये हैं तब उन्होंने ने अम्माजी के पुरुषकार से भगवान कि शरणागति किए जैसे श्रीरामायण के अयोध्या काण्ड ३१.२ में कहा गया हैं “स भ्रातुश्चरणौ गाढं निपीड्य रघुनन्दनः।
- सीतामुवाचातियशां राघवं च महाव्रतम्॥”
- (सबसे प्रसिद्ध लक्ष्मण ने अपने भाई के चरणों को कसकर पकड़ लिए और अम्माजी से प्रार्थना की; तब उन्होंने श्रीराम से प्रार्थना की, जिन्होंने उनके प्रति समर्पण करने वालों की रक्षा करने की भव्य प्रतिज्ञा की थी) – लक्ष्मणजी इस शरणागति में।
- जैसे ही भगवान, अम्माजी और लक्ष्मणजी कृपाकर पंचवटी पधारे तब भगवान कृपाकर लक्ष्मणजी को कहे “आप पर्याप्त छाया वाली जल से भरपूर ढूँढे और हमारे लिये एक आश्रम का निर्माण करें”। यह सुनकर लक्ष्मणजी बहुत दुखी कि भगवान ने उनपर स्वतंत्रता रखी हैं; अपनी पारतंत्रयता को पुनः प्राप्त करने हेतु हाथों को जोड़कर उन्होंने अपनी इच्छा को पूर्ण करने हेतु अम्माजी के माध्यम से प्रार्थना किये जैसे श्रीरामायण के अरण्य काण्ड के १५.६.१ में कहा गया “एवम् उक्तः तु रामेण लक्ष्मणः संयत अञ्जलिः। सीता समक्षं काकुत्स्थम् इदं वचनम् अब्रवीत्॥ परवान् अस्मि काकुत्स्थ त्वयि वर्ष शतं स्थिते। स्वयं तु रुचिरे देशे क्रियताम् इति मां वद॥”
(लक्ष्मणजी जिन्हें भगवान ने ऐसे आज्ञा प्रदान किये तो वें अम्माजी के सामाने हाथ जोड़कर इन शब्दों को भगवान से कहे “ओ! दशरथ राजा के पुत्र! अगर आप शाश्वत रहे तो भी मैं आपका दास बनकर रहूँगा। आप स्वयं कहे कि किस स्थान पर कुटिया का निर्माण करना हैं”)।
- जयंत जिसका राक्षसी स्वभाव हैं ने काक का रूप धारण किया और माता सीता के प्रति निषिद्ध कार्य किया। जब आप भगवान को यह ज्ञात हुआ कि क्या हुआ हैं भगवान को उस काक पर ग़ुस्सा आया जैसे श्रीरामायण के सुन्दर काण्ड ३८.१६ में कहा गया हैं “कः क्रीडति सरोषेण पञ्च वक्त्रेण भोगिना” (इस गुस्सेवाले पाँच फन वाले सर्प का कौन किरदार निभा रहा हैं?) और उस पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। वह जयंत सभी जगह भागा शरण के लिये और अन्त में श्रीराम के हीं शरण आया जैसे श्रीरामायण के सुन्दर काण्ड ३८.३३ में कहा गया हैं “स पित्रा च परित्यक्तः सुरैः सर्वैः महर्षिभिः। त्रीन् लोकान् सम्परिक्रम्य तमेव शरणं गतः॥ (वह काकासुर अपने माँ, पिता, ऋषि और अन्य जीवों द्वारा तिरस्कार करने के पश्चात भगवाक्न के चरणों के शरण हुआ और उनकी शरणागति किया)। उस समय में जैसे श्रीरामायण और पद्म पुराण में कहा गया हैं भगवान ने उसे अम्माजी के पुरुषकार के कारण बचाते जैसे श्रीरामायण के सुन्दर काण्ड ३८.३४ में कहा गया हैं “स तं निपतितं भूमौ शरण्यः शरणागतम्। वधार्हमपि काकुत्स्थ कृपया पर्यपालयः॥” (भगवान, शरण्य, अपनी कृपा से काकासुर कि रक्षा किये जो जमीन पर गिर गया हैं, जिसने उनकी शरणागति कि, जबकी उसे मारना उचित हैं) और पद्म पुराण “पुरतः पतितं देवी शरण्यां वायसं तदा। तच्छिरः पादयोः तस्या योजयामास जानकी॥ तमुद्धाप्य करेणात कृपा पीयूष सागरः। रक्ष रामो गुणवान् वायसं दययैक्षत॥” (उस समय माता सीता ने जमीन पर गिरे काक के सिर को भगवान के दिव्य चरणों से जोड़ा। फिर भगवान जो दिव्य गुणों से भरे हैं और जो दया के अमृत के सागर हैं ने काक को अपने हथेली में लिया और दयापूर्वक उस दृष्टि डालकर उसकी रक्षा किये)।
अलगाव के दौरान :
- जैसे कि श्रीरामायण के सुन्दर काण्ड २१.९ में कहा गया हैं “इह सन्तो न वासन्ति सतो वा नानुवर्तसे। तथाहि विपरीता ते बुद्धिराचारवर्जिता॥” (क्या लंका में कोई महान जन नहीं हैं? अगर कोई वहाँ हैं भी तो उनका कोई पालन नहीं कर रहा हैं। क्या इसलिये तुम्हारा मन ऐसी भ्रष्ट अवस्था में नहीं हैं? इसी कारण से क्या तुम्हारा मन भ्रष्ट अवस्था में नहीं हैं? आदि, वह रावण को भगवान के दिव्य चरणों के शरण लाने के लिए बहुत प्रयत्न किये जिसका भ्रष्ट मन हैं)।
- रावण के परास्त होने के पश्चात हनुमानजी सभी राक्षसीयों का द्वंस करना चाहते थे। माता सीता ने उन्हें बहुत नम्र शब्दों से समझाया और उन्हें क्षमा करने को कहा जैसे श्रीरामायण के युद्ध काण्ड ११६.४४ में कहा गया हैं “पापानां वा शुभानां वा वधार्हाणां प्लवङ्गम। कार्यं करुणमार्ये न कश्चिन्नापराध्यति॥” (ओ वानरों में श्रेष्ठ वानर! चाहे पापी या दिव्य जन या मारे जाने योग्य व्यक्ति सभी लोगों द्वारा दया दिखाने के पात्र हैं। कोई भी दोषरहित नहीं हैं।)।
इन घटणों से हम यह समझ सकते हैं कि दोनों मिलन आओर वियोग में अम्माजी का पुरुषकार हीं प्रगट होता हैं।
श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी यह समझाते हैं कि अम्माजी ने राक्षसीयों को हनुमानजी से रक्षा किये जब हनुमानजी ने उन्हें उनकी गलती के लिये कठोर दण्ड देने कि उनसे आज्ञा मांगी जैसे श्रीगुणरत्न कोश ५० में कहा गया हैं मातर्मैथिलि! राक्षसीस्त्वयि तदैवार्द्रापराधास्त्वया रक्षन्त्या पवनात्मजाल्लघुतरा रामस्य गोष्ठी कृता। काकं तं च विभीषणं शरणमित्युक्तिक्षमौ रक्षतः सा नस्सान्द्रमहागसस्सुखयतु क्षान्तिस्तवाऽऽकस्मिकी॥” (हे माता सीता! आपने हनुमानजी से राक्षसीयों कि रक्षा किये जिन्होंने आपको को कष्ट दिया। श्रीराम जिन्होंने काकासुर, विभीषण और अन्य जो उनके शरण हुए, सभी आपके समक्ष छोटे हो गये। )। आपकी ऐसी बिना शर्त सहनशीलता से हम लोगों को खुशी मिलेगी जिनके अंदर बड़े पाप हैं)। क्योंकि आपने उन्हें बल से नहीं परंतु अपने विनम्र निर्देश से समझाया इसे पुरुषकारत्वं कह सकते हैं। श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी अपने मुमुक्षुप्पड़ी १२९ में “तिरुवडियैप् पॊऱुप्पिक्कुमवळ् तन् सॊलवऴि वरुमवनैप् पॊऱुप्पिक्कच् चॊल्लवेण्डाविऱे” स्वयं अम्माजी के हनुमानजी के प्रति पुरुषकारत्वं को समझाते हैं (क्योंकि वह हनुमानजी को मना सकती है, इसलिए स्पष्ट रूप से यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं है कि वह भगवान को मना सकती है जो उनके शब्दों का पालन करता है) अत: इस सूत्रं में जो समझाता हैं कि अम्माजी पुरुषकार दोनों मिलन आओर वियोग में करती हैं।
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
आधार – https://granthams.koyil.org/2020/12/15/srivachana-bhushanam-suthram-9-english/
प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – https://pillai.koyil.org