प्रपन्नामृत – अध्याय ५४
श्री यतिराज अष्टोत्तर शतनाम
🔹 यतिराजने सभी विरोधी मतोंको परास्त करके समस्त लोकोंमें श्रेष्ठ जनोंद्वारा सम्मत श्रीवैष्णव सिद्धान्त की स्थापना की।
🔹 यतिराज के ७४ प्रधान शिष्य तथा असंख्य शिष्य थे।
🔹सभी शिष्य नित्य आचार्य सेवा में संलग्न रहते थे।
🔹आचार्य वरदविष्णु, आचार्य कुरेश, श्रीभाष्य के व्याख्यान का कैंकर्य करते थे।
🔹 श्रीदेवराजमुनि वरदराज भगवान की अर्चा का कैंकर्य करते थे।
🔹 गुरुभक्त प्रणतार्तिहराचार्य अपने अनुज सहित पाकशाला का कैंकर्य करते थे।
🔹 श्री आन्ध्रपुर्णाचार्य आचार्य देहोपचार अभ्यंगादि कैंकर्यमें संलग्न थे।
🔹 गोमठवंशीतवंश श्रीवालाचार्य यतिराज की चरणपादुका और कमण्डलु साथ लेकर चलते थे।
🔹 धनुर्धरदास स्वामीजी यतिराज को चलनेमें हस्तावलंबन देकर सदैव तत्पर रहा करते थे।
🔹 अमंगी नामक आचार्य रात्रिमें दुग्ध गरम कर यतिराज को समर्पित करते थे।
🔹 उत्कलाचार्य यतिराज के भोजन किये हुये पात्रोंका मार्जन करते थे।
🔹 उत्कल वरदाचार्य व्यंजन शाकादि लाने का कैंकर्य करते थे।
🔹 कलिंग देश का श्रेष्ठ शिष्य परवादियोंको परास्त करनेंमे सदैव तत्पर रहता था।
🔹 चण्ड और शुण्ड दो महाबली पहलवान शिष्य मठ की कोई भी कमी को धनोपार्जन कर पुर्ण करते थे।
🔹 इस प्रकार हजारों शिष्य निस्वार्थ भाव से आचार्य कैंकर्यमें लगे हुये थे।
🔹 महात्मा आन्ध्रपुर्णाचार्य की आचार्यनिष्ठा महान थी। वें आचार्य चरणों को ही उपाय और उपाय मानकर रामानुजाचार्य के १०८ दिव्य नामोंकी रचना कर केवल रामानुजाचार्य के ही चरणारविंदोंकी आराधना करते थे।
🔹 उन १०८ दिव्य नामोंसे ही वर्तमान में रामानुजाचार्य की अर्चना होती है।