विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – ३

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीवानाचलमहामुनये नमः
श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनोतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरुत्तु नम्बी को दिया । वंगी पुरुत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधि परिहारंगल” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ पर अँग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेगें । इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग https://granthams.koyil.org/virodhi-pariharangal-english/ यहाँ पर हिन्दी में देखे सकते है ।

<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – २

१७) उपाय विरोधी उपायों मे बाधा

श्री रंगनाथ भगवान के चरण कमल- प्रपन्नों के लिए केवल यहीं उपाय

उपाय के संदर्भ और सही तरिके से समझाने के लिये निम्न लिखीत को बाधा ऐसा समझाया गया है।

  1. यह पहिले हीं बताया गया है कि “भगवान जो उच्च उपाय है और सिद्धोपायम है उनमें मोक्ष प्राप्ति के लिये पूर्ण विश्वास होना चाहिये”। इसलिये एक सिद्धोपाय निष्ठा वाले (प्रपन्न) को भगवान के अलावा जैसे कर्म योग आदि को उपाय नहीं समझना चाहिये। ऐसी क्रियाओं को स्वयं में उपाय समझना विरोधी है।
  2. कर्म योग आदि को ध्यान में रख कर सिद्धोपाय एक बड़ा विरोधी है। (अनुवादक टिप्पणी: हम अपने पिछले लेख में देख चुके है कि यह अन्य उपाय अचेत है और भगवान हीं सर्व श्रेष्ठ है इसमें कोई दूसरा प्रश्न नहीं है और भगवान उपाय है यही आनंदमय है)।
  3. “भगवान को उपाय” स्वीकार करना यह भी भगवान कि निर्हेतुक कृपा हीं से है। इसे यह सोचना कि यह हम पर लादा गया है यह विरोधी है।
  4. सामान्यत: हमारा “भगवान को उपाय” स्वीकार करना यह “सर्व मुक्ति प्रसंग परिहार्त्तं” इस तरह समझाया गया है, इसका यह मतलब है कि यह सोचना कि “भगवान उन्हें स्वीकार कि आशा किये बिना सब को मोक्ष प्रदान करते है फिर तो सब को मोक्ष प्राप्त होना चाहिये। इसलिये वह उन्हें मोक्ष प्रदान करते है जो उन्हें उपाय रूप में स्वीकार करते है”। यह पूर्वाचार्यों के व्याख्या और रहस्य ग्रन्थ में समझाया गया है। श्रीशठकोप स्वामीजी अपने श्रीसहस्त्रगीति में इस तत्त्व को समझाते है “ellIrum vIdu peRRAl ulagillai” (अगर संसार में सब को मोक्ष प्राप्त हो जाये तो शास्त्र कि कोई आवश्यकता हीं नहीं है) जहाँ श्रीकालिवैरिदास स्वामीजी यह समझाते है कि शास्त्र का महत्त्व भगवान के पास है कि सब को मोक्ष प्रदान नहीं करते। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी भी मुमुक्षुपड़ी में यह तत्त्व को दर्शाते है। परन्तु केवल इसे विशिष्ट कारण बताना विरोधी है। (सर्व मुक्ति प्रसंग को दूर करने के लिये वह मोक्ष को आशीर्वाद रूप में उनको प्रदान करते है जो उन्हें उपाय रूप में स्वीकार करते है) (अनुवादक टिप्पणी: भगवान सर्वतंत्र स्वतंत्र है उन्हें कोई कारण से बांधा नहीं जा सकता, इसलिये हम केवल यह सोच नहीं सकते सर्व मुक्ति प्रसंग से दूर रहने के लिये वह केवल उनको मोक्ष प्रदान करते है जो उन्हें उपाय रूप में स्वीकार किया है)।
  5. भगवान वह है जो बिना यह सोचे कि हमने भगवान को उपाय रूप में स्वीकार किया है या नहीं चित और अचित कि रक्षा करता है। “भगवान को उपाय” रूप स्वीकार करना जीवात्मा को अचित से अलग करता है। जीवात्मा वह है जिसके पास ज्ञान है। अचित अज्ञानी होता है। यह स्वाभाविक है जीवात्मा भगवान को उपाय रूप में स्वीकार करता है। यह स्वाभाविक भेद को उपाय समझना विरोधी है। (अनुवादक टिप्पणी: किसी को भी यह विचार नहीं करना चाहिये कि “मेरा स्वीकार करना” उपाय है – भगवान उपाय है, हमारा स्वीकार करना यह स्वाभाविक समझ है)।
  6. अचित जैसे जीवात्मा भी भगवान के पूर्णत: विधान में है। कोई यह विचार कर नहीं सकता कि जीवात्मा अकेले हीं भगवान को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है। (अनुवादक टिप्पणी: अगर भगवान चाहते है तो वह आसानी से कोई भी आत्मा पर दबाव डाल सकते है)।

अत: उपाय को अच्छी तरह समझने के लिये जो विरोधी उसे उपर बताया गया है ।

१८) उपेय विरोधी – उपेय में बाधा

उपेय यानि वह जो उपाय के अनुसरण से सम्पन्न हुआ है। उपाय को सही तरिके से समझने के लिये निम्न बाधाओं से बताया गया है ।

एकांतिक कैकर्य दिव्य दंपति को सबसे उत्तम उपेय है
  1. भगवद उपाय – प्रपन्न जो भगवान को हीं उपाय समझता है। उसे भगवान का कैंकर्य करना ही अपना लक्ष्य मानना चाहिये। भगवान से सांसारिक लाभ, आदि मांगना इसे इस तरह समझाया गया है की “कल्प तरु से कटि वस्त्र मांगना” और वह अयोग्य है। भगवान से अन्य लाभ को चाहना विरोधी है।
  2. भगवान के पास कर्म, ज्ञान, भक्ति योग जैसे उपाय के जरिये पहूंचना विरोधी है। (अनुवादक टिप्पणी: जीवात्मा जो भगवद दास है उसका भगवान को उपाय मानना स्वाभाविक है। स्व-प्रयत्न करना सृष्टी के खिलाफ है। )
  3. भगवद कैंकर्य करते समय किसी को यह विचार नहीं करना चाहिये कि “मैं स्वयं यह कैंकर्य कर रहा हूँ”। भगवान भगवद् गीता ३॰२७ में कहते है “अहंकार विमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते” – अहंकार से घबड़ा कर जीवात्मा यह मूर्खता से सोचता है कि वह यह कार्य स्वयं कर रहा है। ऐसा अहंकार विरोधी है।
  4. स्वयं को अकर्ता समझकर हमें कैंकर्य से रुचि नहीं हटाना चाहिये। (अनुवादक टिप्पणी: जैसे श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र में समझाया गया है कि कैंकर्य शास्त्र और आचार्य के निर्देशानुसार पूरी इच्छा और समर्पण भाव से करना चाहिये)।
  5. भगवान / आचार्य के कैंकर्य से प्राप्त आनन्द को स्वयं का मानना। जैसे श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्त्रगीति में समझाते है “thanakkEyAga enaik koLLumIthE” आनन्द पूर्णत: भगवान के लिये हीं होना चाहिये। “भोक्ता” यानि जो अपने कार्य का फल का आनन्द लेता है। भगवान हीं यथार्थ भोक्ता है। इसलिये जीवात्मा को स्वतन्त्र रूप से रस लेने का अधिकार हीं नहीं हैं। जीवात्मा को ऐसे स्वतन्त्र रूप से भोग करना विरोधी हैं।
  6. भोग्यम यानि जिसे आनंदित होता है। भगवान के पूर्ण अनुभव के लिये जीवात्मा को अपने आपको पूर्णत: भगवान को समर्पित करना चाहिये। जब भगवान खुश होते है और उसे अपने मुखारविंद पर दिखाते है तब जीवात्मा को इस खुशी को पुन: बताना चाहिये। श्रीकुलशेखर स्वामीजी पेरूमाल तिरुमोलि में समझाते है “पाडियाय क्किडन्दु उन पवलवाय काणबेने” – मैं आपके सन्निधि में एक कदम आगे रहूँगा (जैसे अचित को कुछ समझ नहीं है) और खुश होऊंगा (जैसे चित जिसे समझ है) जब में आपके होठो पर मुस्कुराहट देखुंगा। अनुवादक टिप्पणी: (यह हमारे सम्प्रदाय का सर्वोच्च भाव जिसे “अचित्वत पारतंत्रियम” कहते है – भगवान के शरण होकर अचित जैसे रहना और फिर भी जब भगवान अपना हर्ष प्रगट करते है तब आनन्द का भाव प्रगट करना)। यह तत्त्व द्वय महामन्त्र के दूसरे भाग में (अपने पर केन्द्रित आनन्द को मिटाना) “नम:” शब्द में समझाया गया है। श्रीआलवंदार अपने स्तोत्र रत्न ४६ में इसी तत्त्व को समझाते है  –   “कदा …प्रहर्षयिष्यामि” – भगवान को आनंदित रखने की लालसा होनी चाहिए। जीवात्मा जब भगवान की खुशी को आपस मे बदलता है, तब भगवान सम्पूर्ण: आनंदित होते है। उनकी खुशी सिर्फ हमारा कर्म रूपी कैंकर्य है। दूसरे किसी भी मार्ग के बारे मे सोचना बाधा है।

१९) उपेयत्री विरोधी – उपेय में अधिक बाधा

पिछले व्याख्या को आगे बढाते हुए कुछ और बाधाएँ है। उपेय उपाय का परिणाम है। एक श्रीवैष्णव के लिये भगवान ही उपाय और उपेय दोनों है। भगवान उपेय है यानि भगवान के परमपदधाम पहूंचना आनन्द का अनुभव करना, भगवान के प्रति प्रेम भाव बढ़ाना और अंत में उनका प्रेम पूर्वक कैंकर्य करना। इसे “भगवद् अनुभव जनित प्रिती करिता कैंकर्यं”। यही अन्तिम उपेय है। अब हम इसके परिणाम के बाधाएँ देखेंगे।

श्रीरामानुज स्वामीजी के यात्रा के समय चैलाचल अम्बाजी सुन्दरता से भागवत कैंकर्य करते हुए

  1. एक विशेष लक्ष्य कि इच्छा करना (पिछले समझाये कैंकर्य को छोड़)। यह भाव श्रीवैष्णवों के लिये सही नहीं है। यह विरोधी है।
  2. दृष्ट फलं कि इच्छा करना (सांसारिक लाभ – जो जीवन में देखा और अनुभव किया जा सकता है) जैसे धन, अन्न, कपड़े, घर, पत्नी, बच्चे, प्रतिष्ठा आदि। भगवान कि सेवा से जो हर्ष मिलता है उसके परिणाम में यह तुच्छ है। इसलिये इस तरह का लगाव विरोधी है।
  3. अदृष्ट फलं कि इच्छा करना (दूसरे दुनिया का लाभ – जो इस जीवन में देखा या अनुभव नहीं किया जा सकता)। इसे दो श्रेणी में किया जा सकता है:
    • स्वर्ग के आनन्द कि इच्छा करना (ब्रह्मा, शिव, इन्द्र आदि का निवास स्थान)। यह विरोधी है।
    • परमपदधाम में भगवान कि सेवा कि इच्छा करना जहाँ हर्ष कि कोई सीमा नहीं है। ऐसे परिस्थिति कि इच्छा न करना विरोधी है – यानि हमें नित्य कैंकर्य कि इच्छा और चाह करनी चाहिये।
  4. भगवद् कैंकर्य तक रुकना विरोधी है। तदियाराधानम (तदिय कि पुजा करना – भगवान के भक्त) जिसे भागवत कैंकर्य कहते है जो भगवद् कैंकर्य (भगवान का कैंकर्य) से भी उच्च है। तदियाराधनम का अर्थ केवल भागवतों को प्रसाद पवाना नहीं है – यह उससे भी उच्च है जैसे कि उनकी सेवा करना और उनका अच्छा ध्यान देना।
  5. भगवद् कैंकर्य से भागवत कैंकर्य को तुच्छ समझना सबसे बड़ी बाधा है।
  6. थोड़े से आचार्य कैंकर्य से संतुष्ट होना बाधा है। आचार्य सबसे उच्च भागवत है। कोई कभी भी पूर्णत: संतुष्ट हो नहीं सकता – हममें निरन्तर आचार्य कैंकर्य करने कि लालसा होनी चाहिये। जैसे एक भूखा मनुष्य जो उसे परोसा गया है उसे कुछ भी पाने के लिये तत्पर रहता है और जो भी पका है उसे खाने के लिये उत्सुक रहता है। एक शिष्य को अपने आचार्य के लिये हर सम्भव कैंकर्य करना चाहिये। यह सोचना कि मैंने अपने आचार्य के लिये बहुत किया है यह बाधा है।

श्रीमधुरकवि स्वामीजी अपने आचार्य श्रीशठकोप स्वामीजी के कैंकर्य निरंतर तत्पर रहते थे।

श्रीआंध्रपूर्ण स्वामीजी पूर्णत: श्रीरामानुज स्वामीजी के कैंकर्य में

सारांश यह है कि किसी को भागवत कैंकर्य से कभी भी नहीं भागना चाहिये। – भागवत कैंकर्य में निरन्तर उन्नतिशील परिवर्तन होना चाहिये। और सभी को अपने आचार्य जो प्रथम भागवत है उनकी सेवा बहुत उत्सुक्ता से करनी चाहिये। यह कण्णिनुण शिरुत्ताम्बु के ९वें पाशुर में श्रीमधुरकवि स्वामीजी ने समझाया है “च्चडगोपन एन नम्बिक्कु आट्पुक्क कादल अडिमै प्पयनन्रे” –मेरे आचार्य श्रीशठकोप स्वामीजी कि सेवा करना जिनमें पूर्णत: शुभ गुण है यह मेरे स्वभाव के लायक हैं ।

अडियेन केशव रामानुज दासन्

आधार: https://granthams.koyil.org/2013/12/virodhi-pariharangal-3/

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