श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः
यह लेख सरोयोगी आलवार के मुदल तिरुवंतादी के लिए श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी द्वारा लिखे गए अवतारिका (प्रस्तावना) का सीधा अनुवाद है। श्री कलिवैरीदास स्वामीजी द्वारा रचयित इन व्याख्यानों को खोजने, उनके प्रकाशन और इन अद्भुत व्याख्यानों पर सुगम तमिल निरूपण प्रदान करने के अथक प्रयासों के लिए श्री यू.वे. एम. ए. वेंकटकृष्णन स्वामी को धन्यवाद।
नम्पिल्लै- श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी – तिरुवल्लिक्केणी
प्रथम तीन आलवार (सरोयोगी आलवार, भुत्योगी आलवार और महद्योगी आलवार) भगवान की असीम कृपा से भगवत विषय में पुर्णतः विज्ञ थे। उनका संसार (लौकिक संसार) में रहना, उन मुक्त जीवात्माओं के समान है (मुक्त जीव, जो प्रथमतः संसार में थे, और कालांतर में परमपद में प्रस्थान किया और जिनका ज्ञान परमपद में पूर्ण रूप से समृद्ध हुआ) जो अवतरित हुए और संसार में रहे है। वे उन लोगों में से भी है, जो प्रथमतय भगवत विषय में संलग्न हुए। क्यूंकि अन्य आलवारों की तुलना में वे भगवत विषय में अधिक संबद्ध थे, इन तीन आलवारों को नित्यसूरियों (परमपद में भगवान के नित्य सेवक) के समान माना जाता है। श्री शठकोप स्वामीजी तिरुवाय्मौली 7.9.6 में मुदल आलवार की प्रशंसा करते हुए कहते है “इन्कवि पादुम परम कविगल” (श्रेष्ठ कवि जिन्होंने मधुर कवितों का गान किया) और तिरुमंगै आलवार पेरिय तिरुमौली 2.8.2 में उनकी प्रशंसा करते हुए कहते है “चेंतमिल पाडुवार ” (वह जो विशुद्ध तमिल में गान करते है)। वे भगवान के विभिन्न आविर्भावों जैसे परत्व से अर्चावतार तक सभी के प्रति अत्यंत अनुरक्त थे (https://granthams.koyil.org/2012/10/archavathara-anubhavam-parathvadhi/) और उनका ज्ञान और भक्ति, इन्हीं आविर्भावों में विस्तारित थी। फिर भी, जैसे बाड़ के समय में नदी में जल सब तरफ होता है परंतु वह एक ही दिशा में बहती है, उसी प्रकार उनकी भक्ति भी विशेष रूप से भगवान के त्रिविक्रम अवतार (विभवावतारों में) और तिरुवेंकटमुदैयाँ (अर्चावतारों में) पर केन्द्रित है।
तिरुमंगै आलवार पेरिय तिरुमौली 11.8.9 पासूर में बताते है कि “आन विदैयेल अन्रादर्त्तार्क्कू आलानार अल्लातार मानीडवर अल्लर एन्रू एन मनत्ते वैत्तेन” – मनुष्य जन्म लेने पर भी, जो श्रीकृष्ण (जिन्होंने 7 बैलों का वध किया) के शरणागत नहीं हुआ, मैं उसे मनुष्य ही नहीं मानता। जिनका भगवान के प्रति सेवा भाव नहीं है, मुदल आलवारों के अनुसार वे लोग मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं है। “एन मनत्ते वैत्तेन “ – “मैं इस प्रकार मानता हूँ”, ऐसा कहकर वे निम्न पक्ष पर बल देते है – सर्वेश्वर अत्यंत दयालु ही नहीं वरन् पूर्णतः स्वतन्त्र भी है – इसलिए यदि वे हमारा उद्धार करने से मना कर दे, तो इसमें कोई अचम्भा /आश्चर्य नहीं है। परंतु सभी आलवार इतने दयालु है कि स्वयं भगवान द्वारा परित्याग किये गए जीव पर भी कृपा करके, वे उसका उद्धार करते है – अपितु आलवार (अत्यंत कृपालु) भी उन जीवों का परित्याग करते है, जिन्हें भगवान के प्रति कोई चाहना नहीं है। इसलिए पाषाण और ताम्बे की पट्टियों पर यह लिखा गया है कि जिन्हें भगवान के प्रति अनुराग नहीं वे मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं है।
कुलशेखर आलवार पेरुमाल तिरुमौली 3.8 में कहते है “पेयरे एनक्कू यावरुम यानुमोर पेयने यवर्क्कुम”। जो प्राणी भगवत विषय में संलग्न नहीं है, वे मुझे अपरिचित प्रतीत होते है। और क्यूंकि मैं उनके समान (सांसारिक सुखों में लिप्त) नहीं हूँ, उन्हें मैं अपरिचित प्रतीत होता हूँ। जैसा कि इराण्दाम तिरुवंतादी 44 में बताया गया है “चिरंतार्क्कू एलुतूनैयाम चेंगण्माल नामं मरनतारै मानिदमा वैयेन” – ये तीनों आलवार (मुदल आलवार), उन्हें सभ्य ही नहीं मानते, जो भगवान के आश्रित नहीं है। इसलिए वे मानते है कि बुद्धिमान प्राणी के रूप में जन्म लेने पर भी जो मनुष्य भगवान के प्रति बैर रखते है, उनके बीच रहने से तो जंगल में रहना हितकर है। वहां भी, वे एक ही स्थान पर नहीं रहते – जहाँ वे संध्या समय में होते, वहीँ वे अपनी रात्रि भी बिताते और पृथक-पृथक एक दुसरे को बिना जाने वहीँ घूमते।
तिरुक्कोवलुर पुष्पवल्ली तायार और देहालिस भगवान
भगवान की दिव्य प्रेरणा से, सभी 3 आलवार, एक तूफानी रात में तिरुक्कोवलुर क्षेत्र में एकत्रित हुए। प्रथम सरोयोगी आलवार, मृगण्दु महर्षि की कुटिया के बरामदे में प्रवेश करते है। उनके पश्चाद भूतयोगी आलवार भी वहां आते है और द्वार खटखटाते है। सरोयोगी आलवार भीतर से ही कहते है कि “मैं यहाँ लेटा हूँ और अब यहाँ कोई स्थान शेष नहीं है”। भूतयोगी आलवार कहते है “जिस स्थान पर एक व्यक्ति लेट सकता है, दो व्यक्तियों के बैठने के लिए वह स्थान पर्याप्त है। इसलिए कृपया द्वार खोलिए “। ऐसा सुनकर, सरोयोगी आलवार विचार करते है कि “इस संसार में जहाँ अधिकांश लोग किसी अपरिचित के श्वास के स्पर्श मात्र को पसंद नहीं करते , अर्थात अपरिचित व्यक्तियों के साथ निकटता नहीं चाहते, यदि यह महानुभाव ऐसा कहते है, तो वे निश्चय ही साधारण जीवात्मा नहीं है” और तद पश्चाद सरोयोगी आलवार भुतयोगी आलवार के लिए द्वार खोल देते है और वे दोनों वहां आराम से बैठ जाते है। उसी समय, महदयोगी आलवार वहां आते है और द्वार खटखटाते है। सरोयोगी आलवार और भूतयोगी आलवार भीतर से कहते है “हम दो लोग यहाँ पर बैठे है, अब यहाँ और कोई स्थान शेष नहीं है” तब महदयोगी आलवार बाहर से कहते है “जिस स्थान पर दो व्यक्ति बैठ सकते है, तीन व्यक्तियों के खड़े रहने के लिए वह स्थान पर्याप्त है”। वे कोई साधारण जीवात्मा नहीं है, यह समझते हुए, वे उन्हें भीतर लेते है और अब वे सभी आराम से वहां खड़े हो जाते है। जैसा कि मुदल तिरुवंतादी 86 में बताया गया है, “नियम तिरुमगलूम निणरायाल ” (उस समय परम कृपालु भगवान और अम्माजी संग में वहां उपस्थित है), सर्वेश्वर भगवान अपनी प्रिय सहचरी के साथ वहां पधारते है, जिससे उनके बीच ऐंठन उत्पन्न होती है। उनमें से एक आलवार अचम्भे से कहते है “यह क्या हो रहा है? हमें लगा था कि यहाँ मात्र हम तीन ही है? परंतु अब लगता है यहाँ और भी लोग है। यहाँ और कौन है, यह देखने के लिए हमें यहाँ एक दीपक प्रज्वलित करना चाहिए।” (अपने भक्तों के अकेले होने पर भी भगवान उनसे बहुत प्रेम करते है, तब उन्हें साथ में देखकर तो उनके आनंद की सीमा ही क्या होगी)? सरोयोगी आलवार, यह दर्शाते हुए दीपक प्रज्वलित करते है कि भगवान दोनों विभूतियों – लौकिक और अलौकिक संसार के स्वामी है, भूतयोगी आलवार, भक्ति/श्रद्धा का दीपक प्रज्वलित करते है और महद्योगी आलवार उस दीपक के प्रकाश में भगवान की छवि के दर्शन करते है। यह इस प्रकार है, जिस प्रकार सभी तीन चरण एक ही व्यक्तित्व में घटित हो रही हो।
अर्थात, प्रथम हम वास्तविक ज्ञान प्राप्त करते है, फिर वह ज्ञान, भक्ति के रूप में परिपक्व होता है और अंततः वह दिव्य दृष्टि प्रदान करता है। व्याकरण में, पणिनी ऋषि, वररुचि ऋषि और पतंजलि ऋषि ने व्याकरण के सूत्र (स्त्रोत), वृत्ति (संक्षेप विवरण) और भाष्य (व्याख्यान) को लिखा है, परंतु क्यूंकि वे सभी समान विषय पर चर्चा करते है, उन सभी को ज्ञान का एक ही खंड माना जाता है और उन्हें तिरुमुनी व्याकरण (व्याकरण के तीन चरण) कहा जाता है। उसी प्रकार, भले ही यहाँ कर्तु भेदं अर्थात 3 तिरुवंतादियों के 3 विभिन्न रचयिता है, उन्हें एक ही कहा जा सकता है।
सरोयोगी आलवार यह विचार करते हुए दीपक प्रज्वलित करते है कि “भगवान के सिवाय सभी, भगवान के लिए संपत्ति है और भगवान ही उसके स्वामी है “। भूतयोगी आलवार, भक्ति का दीपक प्रज्वलित करते है, जो ज्ञान से प्राप्त हुई है। महद्योगी आलवार उस भक्ति के परिणाम का आनंद भगवत साक्षात्कार (भगवान के दिव्य दर्शन) के रूप में लेते है। उन्होंने न केवल स्वयं उस अद्भुत भगवत विषय का आनंद लिया अपितु उन्होंने अपने अनुभवों को 3 दिव्य प्रबंधनों – मुदल तिरुवंतादी, इरण्दम तिरुवंतादी और मुनराम तिरुवंतादी के रूप में लिपिबद्ध किया और सभी के उद्धार के लिए उसे सभी के साथ साझा किया।
आइये अब हम इन शब्दों का अर्थ समझते है, तगली – मिट्टी का दीपक, नेय- घृत और विलक्कू- प्रकाश। जगत (संसार) को “सावयत्वात कार्यं” के रूप में समझया गया है – वह जिसके भाग है जिन्हें प्रभाव कहा जाता है । यदि”प्रभाव” है, वह निश्चय ही किसी के द्वारा बनाया गया होगा। क्यूंकि प्रभाव अत्यंत विचित्र और अद्भुत है, तो उस प्रभाव के रचयिता (कारण) भी बहुत शक्तिशाली और अद्भुत होंगे। यहाँ भगवान के लिए कहा गया है – वे जो हस्त कमल में शंख और चक्र धारण करते है। यहाँ एक प्रश्न उत्पन्न होता है। ब्रह्म सूत्र 1.1.3 “शास्त्रयोनित्वात” के व्याख्यान को समझाते हुए भाष्यकार श्री रामानुज स्वामीजी ने अनुमानिकर (वह जो ब्रह्म्-परमात्मा का निर्णय अनुमान के द्वारा करते है) की आलोचना की है और समझाया है कि ब्रह्म् का निर्णय केवल शास्त्र द्वारा ही किया जा सकता है। फिर सरोयोगी आलवार ब्रह्म का निर्णय अनुमान के आधार पर क्यों कर रहे है (अर्थात क्यूंकि यहाँ विभिन्न प्रकार की रचनाएँ है, निश्चित ही कोई अत्यंत शक्तिशाली रचयिता भी होंगे)? इसे मनु स्मृति 12.106 के माध्यम से समझा जा सकता है “अर्षम धर्मोपदेशं च वेदशास्त्रविरोधिना, यस्तर्केणानुसंधत्ते सधर्मं वेद नेतर:” अर्थात वह जिसने वेदों, जिन्हें ऋषि-मुनियों द्वारा समझा गया है और स्मृतियां, जो धार्मिक रीतियों को स्थापित करती है, का विश्लेषण किया है – केवल वही मनुष्य धर्म को समझ सकता है और कोई नहीं। इसलिए वेद शास्त्रों के विरुद्ध किये गए अनुमान की आलोचना की गयी है। परंतु वेद शास्त्रों द्वारा स्वीकार्य अनुमान ही उपयुक्त है। इस प्रकार यहाँ ब्रह्म का आशय शास्त्र सन्मत है और इसलिए स्वीकार्य है। श्रीभाष्य के प्रारंभ में यह कहा गया है कि “न्याय अनुगृहीतस्य वाक्यस्य अर्थात निश्चायकतवात” – केवल वही वाक्य जो न्याय-संगत है वास्तविक अर्थ दर्शाने की योग्यता रखती है।
इस प्रकार श्री कलिवैरीदास स्वामीजी द्वारा लिखी मुदल तिरुवंतादी की अवतारिका पूर्ण हुई।
अब हम संक्षेप में श्रीदाशरथी स्वामीजी द्वारा रचित मुदल तिरुवंतादी की तनियन देखते है। तनियन प्रायः प्रबंध के रचयिता और उस प्रबंध के वैभव को दर्शाती है।
सरोयोगी आलवार – तिरुवेक्का
कैधै सेर पुम्पोळिल् सुळ् कच्ची नगर वन्दुदीत्ता
पोय्गैप् पिरान कविंज्ञार पोरेरु
वैयत्तु अड़ियवरगल वाळ अरुन्तमील नुररन्तादि
पडिविलंगाच चैधान परिन्दु
शब्दार्थ : सरोयोगी आलवार अत्यंत सुंदर कांचीपुरम (तिरुवेक्का) दिव्य देश में प्रकट हुए, जो बागीचों से के बीच स्थित है। भगवान के श्रीमन्नारायण के भक्तों के प्रति प्रेम और उनके हित के लिए, कवियों में अग्रणी, उन्होंने दिव्य सिद्धांतों को विस्तृत प्रकार से स्थापित करने के लिए अन्तादी शैली में तमिल में 100 सुंदर पासूरों की रचना की।
मुदल आलवारों के चरित्र और वैभव को https://guruparamparaihindi.wordpress.com/2014/06/04/mudhalazhwargal/ पर देखा जा सकता है।
मुदल आलवारों के अर्चावतार अनुभव को https://granthams.koyil.org/2012/10/archavathara-anubhavam-azhwars-1/ पर देखा जा सकता है।
आधार – https://granthams.koyil.org/2013/10/aippasi-anubhavam-poigai-azhwar/
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