श्री वैष्णव लक्षण – ३

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः

श्री वैष्णव लक्षण

<< पूर्व अनुच्छेद

आचार्यशिष्य संबंध

उदैयवर (श्रीरामानुज स्वामीजी)– आलवान (श्री कुरेश स्वामीजी)- आदर्श आचार्य और् शिष्य – कूरम

पिछले लेख में हमने देखा कि पञ्च संस्कार हमारे श्रीवैष्णव जीवन को प्रारम्भ करता है। हमने आचार्य और शिष्य के सम्बन्ध कि नयी शुरआत देखी। यह मुख्य विषय से थोडा हटकर है परन्तु यह हमारे सम्प्रदाय का एक मुख्य विषय है। हमारे पूर्वाचार्यों के श्रीसूक्ति के आधार पर हम इसको थोडा जान लें और समझ भी लें।

आचार्य का सही मतलब “जिसने शास्त्र को अच्छी तरह पढा है, जिसने वह सब कुछ अपने जीवन में उतारा है और दूसरों को यह सब कुछ सिखाता है”। शास्त्र में यह भी कहा गया है कि, “एक सन्यासी भी, अगर वह भगवान विष्णु को नहीं अपनाता है, तो उसे चाण्डाल माना जाता है”। इसलिये यह जरूरी है कि आचार्य एक श्रीवैष्णव होयानि जो भगवान श्रीमन्नारायण को हीं सर्वोत्तम मानें और हर वक्त उन्हीं का मंगलाशासन करते रहें। हमारे पूर्वाचार्यों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पञ्च संस्कार के समय जो मूल मंत्र का उपदेश देंगे (द्वय मंत्र और चरम मंत्र के साथ) वही आचार्य हैं।

शिष्य का मतलब जो शिक्षा लेता है (शुद्धि / निर्मलता)। शिष्य यानि छात्र यानि वह जो अनुशासन सीखता है। यहाँ शिष्य आचार्य के अनुशासन से एक सहीं दिशा प्राप्त करता है।

हमारे पूर्वाचार्यों ने आचार्य और शिष्य के गुणों का बहुत ही अच्छी तरह, पूरे विस्तार से चर्चा की है। यह शुरु करने के लिये उन्होंने शास्त्र के आधार पर यह स्थापित किया है कि आचार्यशिष्य सम्बन्ध बिलकुल एक पितापुत्र के सम्बन्ध जैसा ही है। जिस तरह वह पुत्र अपने पिता का पूरी तरह उपकारी रहता है, उस तरह वह शिष्य अपने आचार्य पर पूरी तरह उपकारी रहता है।

भगवत् गीता में, भगवान श्रीकृष्ण आचार्य और शिष्य के गुणों के बारे में कहते हैं, “एक शिष्य को पूरी तरह अपना नैच्यानुसधान रखकर अपने आचार्य के प्रति अपने कदम बढाना चाहिए, उनके प्रति कुछ सेवा करनी चाहिए और नम्रता से उनसे प्रश्न पूछना चाहिए (आत्मा और भगवद विषय के बारे में)”। और आगे कहते हैं कि, “क्योंकि आचार्य ने भगवान के मूलतत्व को समझा / देखा ह, वह शिष्य को उसी ज्ञान का निर्देश देंगे”।

वह गुण जो हम एक आचार्य में देखते हैं:

  • सामान्यता आचार्य को माता लक्ष्मी के समान माना जाता है उनका मुख्य कार्य भगवान का पुरूषकार करना हीं है (जैसे माता लक्ष्मी प्रशंसा करती हैं)

  • जैसे माता लक्ष्मी, वैसे ही उन्हें भी यह मान लेना चाहिए कि वह भगवान के ही हैं, उन्हें भगवान को ही उपाय मानना चाहिए और उनके कार्य भगवान के मुखोल्लास के लिये ही होना चाहिए।

  • अपने शिष्य को अपनाने के लिये, उनमें पूरी तरह कृपा भावना होना चाहिए। शिष्य की आत्मज्ञान और वैराग्य को बढाना है और शिष्य को भगवद्भागवत् कैंकर्य में लगाना चाहिए। आचार्य को शिष्य के आत्म रक्षण के लिये ही केद्रित करना चाहिए।

  • श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य कहते हैं कि, “एक आचार्य को अपने बारें में, अपने शिष्य के बारें में और उसके परिणाम के बारे में पूरा और अच्छी तरह ज्ञान होना चाहिए”।

  • उन्हें यह सोचना चाहिए कि, वह आचार्य नहीं हैं बल्कि उनके आचार्य ही आचार्य हैं।

  • उन्हें यह सोचना चाहिए कि, उनके शिष्य उनके नहीं बल्कि उनके आचार्य का शिष्य है।

  • उन्हें यह सोचना चाहिए कि, इसका परिणाम यह हो कि एक अच्छा शिक्षित शिष्य हो जो केवल भगवान के मंगालाशासन में लगे रहे और कहीं भी अन्य विषयों पे नहीं।

  • जैसे वार्तामाला और शिष्टाचरण में समझाया गया है कि, आचार्य अपने शिष्य के साथ बहुत ही आदर का बर्ताव करें क्योंकि शिष्य अपने आचार्य के पास (उनके गुण / दोषों को परखे बिना) पूरी तरह शुद्ध शास्त्र के आधार पर सम्पूर्ण सुरक्षा के लिये आता है।

  • जैसे वार्तामाला में कहा और समझाया गया है, भगवान भी आचार्य बनना चाहते हैं। इसलिये वें अपने गुरू परम्परा में सबसे पहले आचार्य बने और वें अपने लिये भी सबसे निपुण आचार्य का चुनाव कियाश्रीवरवरमुनि स्वामीजी।

वह गुण जो हम एक शिष्य में देखते हैं:

  • शिष्य को भगवान और आचार्य के सिवा और अन्य विषयों से खुद को मुक्त करना चाहिए (ईश्वरियं और आत्मानुभवं)

  • शिष्य अपने आचार्य को हर समय और हर परिस्थिति में सेवा करना चाहिए।

  • शिष्य को इस लीला विभूति को देखकर मन में क्लेश की भावना होना चाहिए।

  • शिष्य को भगवद् विषय और आचार्य कैंकर्य में लगने कि इच्छा होना चाहिए।

  • शिष्य को भगवद् / भागवतों के स्तुति के बारें में पढते समय ईर्ष्या भावना से सदैव मुक्त रहना चाहिए।

  • एक शिष्य को सदैव यह सोचना चाहिए कि उसकी सारी सम्पत्ति उसके आचार्य की है। वह उसमे से उतना ही ले जितना कि उसके रोजमर्रा जिन्दगी के लिये जरूरत हो।

  • एक शिष्य सदैव यह सोचे कि उसके आचार्य हीं उसके लिये सब कुछ हैं जैसे श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी ने इस श्लोक में “माता पिता युवत……” में समझाया है।

  • वह अपने आचार्य के रोजी के बारें में खयाल करें।

  • श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने उपदेश रत्नमाला में यह भी कहते हैं कि, “किसी को, इस संसार में एक क्षण के लिये भी जब तक वें इस लीला विभूति में हैं अपने आचार्य से दूर नहीं रहना चाहिए”।

  • एक शिष्य को हमेशा अपने आचार्य की प्रशंसा करना चाहिए और हमेशा आचार्य की ओर अपनी कृतज्ञता प्रकट करना चाहिए।

यह भी समझाया गया है कि, यह अनुचित है कि शिष्य अपने आचार्य का आत्म रक्षण करें और यह भी अनुचित है कि आचार्य अपने शिष्य का देह रक्षण करें (शिष्य कभी भी यह न सोचे कि आचार्य उसका पालन पोषण करेंगे)

जैसे श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कहते हैं, शिष्य होना बहुत कठिन है (सहीं माने तो हम एक अच्छे शिष्य हो भी नहीं सकते, चाहे हम कितना भी ज्ञानी क्यों न हो)। इसलिये भगवान खुद “नर” ऋषी का अवतार लेकर आये और “नारायण” का शिष्य बनकर तिरूमंत्र सीखे।

इस को ध्यान में रखकर, हम आचार्य के विभिन्न वर्ग को समझेंगे।

अनुवृति प्रसन्नाचार्य और कृपामात्र प्रसन्नाचार्य

अनुवृति प्रसन्नाचार्य

श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी से पूर्व, सभी आचार्य एक भविष्यदपेक्षक शिष्य को उसे अपनाने से पूर्व जांचते थे, कि वह कितना स्वयं को समर्पण कर सकता है। यह एक परम्परा थी कि वह शिष्य अपने आचार्य के घर जाकर रहें, उनकी एक वर्ष तक सेवा करें फिर बाद में उसे अपनाया जाता था।

कृपामात्र प्रसन्नाचार्य

लेकिन जब श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी ने कलियुग का यह स्वभाव देखा, तब उन्हें यह एहसास हुआ कि अगर आचार्य ऎसे हीं रहेंगे, तो बहुत कम शिष्य प्रेरित होंगे जो इस लीला विभूति के लगाव को छोड़कर अपने आचार्य कि सभी आशाएं पूरा कर सके। तब अपने निर्हेतुक कृपा से, श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी ने नियमों में ढील लगाई और उन सभी लोगों को वह ज्ञान दिया जिनमे विषयों को सीखने की सच्ची प्रेरणा थी। इसलिये यह योग्यता के नियम को बदला गया, योग्य से अभिलाशी शिष्य। उन्होंने अपने शिष्य को इसी पथ पर चलने के लिये नियम बनाये और हजारों को अपनी कृपा से श्री वैष्णव सम्प्रदाय को स्वीकार करने में प्रोत्साहित किया। श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी से शुरू कर के हमारे सभी आचार्य कृपामात्र प्रसन्नाचार्य ही माने जाते हैं।

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इस बात को अपने ग्रन्थ उपदेश रत्नमाला के एक पाशुर में बहुत हीं सुन्दर तरीके से समझाते हैं – “ओरां वलियाय उपदेसिथार मुन्नोर, एरार एथिरासर इन्अरुलाई पारुलगिल आसै उदयोरक्केल्लाम कूरुम  ऐन्ड्रू पेसी वरमभरुथ्थार  पिन“।

उद्धारक आचार्य और उपकारक आचार्य

चरमोपाय निर्णय में नायनाराच्चान्पिल्लै ने यह बहुत ही अच्छी तरह से समझाया है। यह ग्रन्थ श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी के स्तुति को अच्छी तरह से बताता है।

उद्धारक आचार्य

उद्धारक आचार्य वह हैं जो आसानी से किसी को इस सन्सार से छुडाकर परमपद में पहुँचाता है। यह समझाया जा चुका है कि श्रीमन्नारायण, श्रीशठकोप स्वामीजी और श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी हीं ३ उद्धारक आचार्य हैं (हालाकि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी जो श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी के अवतार हैं उन्हें भी उद्धारक आचार्य माना जाता है)

  • श्रीमन्नारायण ही प्रथम आचार्य हैं और सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, आदि होने के कारण वह आसानी से जीव को मोक्ष दे सकते हैं।

    पेरिय पेरुमाल – श्रीरंगम

  • श्रीशठकोप स्वामीजी हम सान्सारियों को ज्ञान देने के लिये और हमें सुधारने के लिये भगवान श्रीमन्नारायण के द्वारा ही चुने गये हैं, वह भी किसी को भी मोक्ष दे सकते हैं। यह हम उन्ही के ग्रन्थ “श्री सहस्रगीती” में पढ सकते हैं। वह यह कहते हैं कि, वह भगवान के पास पक्षियों को भेजते हैं, जो उनका संदेश ले जाते हैं कि, वह नित्य विभूति और लीला विभूति दोनों को उनके सिफारिश के लिये उनकों सम्भावना में दे सकते हैं।

    श्री शठकोप स्वामीजी – आलवार तिरुनगरी

  • श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी को श्रीरंगनाथ भगवान और श्रीतिरूपति वेंकटेश भगवान के द्वारा “उदयवर” नाम से सम्मानित किया गया थायानि उभय विभूति के नियंत्रक। वह ना हीं केवल भगवद् विषयं में लीन थे बल्कि इस लीला विभूति में १२० वर्ष तक विराजमान होकर , हजारों को अपना शिष्य बनाये, ७४ पीठाधीश को स्थापित कर उनके उधेश्य को आगे बढवाया

    श्री रामानुज स्वामीजी – श्री भूतपुरी

भगवान पूरी तरह शास्त्र के अनुसार चलते हैं, वह इस जीव को, उनके इच्छा और कर्मानुसार या तो मोक्ष देते हैं या फिर जीवात्मा को इसी संसार में रखते हैं। इसलिये नायनाराच्चान्पिल्लै यह निर्णय किये कि श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी हीं उद्धारक आचार्य हैं।

श्रीशठकोप स्वामीजी, जो आलवार हुए, ज्ञान प्राप्त करने के पश्चातहालाकि वह थोडा परोपदेश भी करते थे, भगवद् विषयं में इतने लीन होगये कि इस लीला विभूति को बहुत छोटी आयु में छोड दिये।

श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी अपनी निर्हेतुक कृपा से जो इसके इच्छुक थे और जो यह भगवान को समर्पित करना चाहते थे उन सभी को आशीर्वाद दिया।

इस तरह श्री नायनाराच्चान्पिल्लै  ने यह निर्णय किया कि श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी हीं उद्धारक आचार्य हैं।

उपकारक आचार्य

उपकारक आचार्य वह हैं जो हमें उद्धारक आचार्य के पास ले जाते हैं। हमारे सम्प्रदाय में, सभी आचार्य जो गुरू परम्परा में आते हैं (हमारे आचार्य तक) सभी उद्धारक आचार्य हैं। जब भी हमारा पञ्च संस्कार होता है, हमारे आचार्य गुरू परम्परा आचार्य के द्वारा श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी से यह प्रार्थना करते हैं कि इस जीवात्मा को भगवान श्रीमन्नारायनण को समर्पित कर दे क्योंकि उस जीवात्मा को इस संसार को छोडकर परमपद जाने कि इच्छा है।

दोनों हीं उद्धारक आचार्य और उपकारक आचार्य सम्मान नीय हैंहलाकि श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी को हमारे सम्प्रदाय में विशेष स्थान प्राप्त है। श्री वरवरमुनि स्वामीजी अपने उपदेश रत्न माला में श्रीशैलेश स्वामीजी से शुरू कर श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी तक समाप्त कर हमें सही दिशा देते हैं।

समाश्रयन आचार्य और ज्ञान आचार्य

समाश्रयन आचार्य वह हैं जो हमारा पञ्च संस्कार करते हैं।

ज्ञान आचार्य वह हैं जिनसे हम ज्ञान प्राप्त कर कालक्षेप, आदि सुनते हैं और जो हमारे आत्म ज्ञान को बढ़ाते हैं।

हम हालाकि हमारे समाश्रयन आचार्य के पूरी तरह कृतज्ञ हैं और हम पूरी तरह उनके भरोसे रहते हैं, ज्ञान आचार्य भी उतने हीं सम्मान जनक हैं। कुछ लोगों के लिये तो दोनों एक ही आचार्य होते हैं। श्रीवचन भूषण के अनुसार हर श्रीवैष्णव को एक आचार्य के समान ही समझना चाहिए।

हमारे पूर्वाचार्यों के जीवन में ऎसे बहुत से घटनाये हुए थे जो एक आचार्य और शिष्य के बीच में हुए थे। हम उसमे से कुछ इधर देखेंगे:

  • श्रीराममिश्र स्वामीजी (मनक्काल नम्बी) अपने आचार्य (श्रीपुण्डरीकाक्ष स्वामीजी) के घर में नौकर का काम करते थे (झाडु पोंचा करते थे)

  • श्रीराममिश्र स्वामीजी ने श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी को फिर से श्रीवैष्णव सम्प्रदाय में लाने के लिये बहुत कष्ट उठाया।

  • श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी श्रीकूरेश स्वामीजी का बहुत सम्मान करते थे, जब कि श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी श्रीकूरेश स्वामीजी के आचार्य थे।

  • एक बार जब श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी श्रीकूरेश स्वामीजी से नाराज हो गये, तब श्रीकूरेश स्वामीजी कहे कि, “अडिएन तो श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी का सम्पत्ति हूँ, वह जो चाहे उस सम्पत्ति से कर सकते हैं”।

  • श्रीगोविन्दचार्य स्वामीजी अपने आचार्य का बिछौना पर पहिले खुद रोज शयन करते थे। जब पुछा गया कि क्या यह अपचार नहीं हैं, तो उन्होंने यह कहा कि यदि यह अपचार है तो, वह यह अपचार तब तक करते रहेंगे जब तक वह इस बात से सहमत नहीं हो जायेंगे कि उनके आचार्य का बिछौना आरामादायक है।

  • श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी श्रीअनंतालवान स्वामीजी से यह कहते हैं कि श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी उन्ही के जैसे हैं और उनके उतना हीं सम्मान देना चाहिए जितना श्री रामानुज स्वामीजी को दिया करते हैं।

  • श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी और श्रीवेदान्ती स्वामीजी दोनों में बहुत हीं सुन्दर वार्तालाप होती थी। श्रीवेदान्ती स्वामीजी सब कुछ छोडकर एक सन्यासी बन गये। वह एक दिन कहें कि, “अगर उनका आश्रम उनके आचार्य (श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी) कि सेवा करने के बीच में आता है तो वह अपना त्रिदण्ड ही तोड देंगे”।

  • श्रीवेदान्ती स्वामीजी श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के कार्यों का प्रोत्साहन करते थे, हालाकि बहुत बार वह उनके कुछ पाशुरों से अलग रहते थे।

  • पिनपलगिय पेरुमल जीयर  कहे कि वह इस लीला विभूति में रहना चाहते हैं क्योंकि उनके आचार्य श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी जब कावेरी नदी से स्नान कर के लौटते थे, तब उनके कंधो के पीछे देखने में बहुत आनन्द होता था।

  • कूरकुलोथुम दासर श्रीशैलेश स्वामीजी को फिर से श्रीवैष्णव सम्प्रदाय में लाने के लिये बहुत से कष्ट सहन किये।

  • श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अपने आचार्य श्रीशैलेश स्वामीजी की आज्ञा को ही अपने जीवन का लक्ष माना। वह उनसे एक बार श्रीभाष्य को पढ़कर उस पर उपदेश दिया परन्तु बाद में जीवन बर “अरुलिचेयल रहस्यम ग्रन्थ पर ही केन्द्रित रहे।

  • श्रीरंगनाथ भगवान श्रीदेवी और भूदेवी सहित एक वर्ष तक श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के सन्निधी में कालक्षेप सुने और अंत में अपने आचार्य को शेष परयकं  सम्भावना के रूप में प्रदान किये। और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को एक तनियन दिये, जो आज भी भगवान रंगनाथ के आज्ञा के अनुसार अरुलिचेयल गोष्टी के शुरू और अंत में गाया जाता है।

  • श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपनी जगह तिरुआली और तिरुसंकु दोनों पोन्नडिक्काल् जीयर् को प्रदान करके उन्हें अप्पाच्चियारण्णा का पञ्च संस्कार करने को कहा।

एसे बहुत से घटनायें हैं जो आचार्य और शिष्य के सम्बन्धों को दर्शाते हैं। पिळ्ळै लोकाचार्य अपने मुमुक्षपडी के द्वय प्रकरणं ( १ ग्रन्थ ) में एक श्री वैष्णव के लक्ष्णों और गुणों के बारे में विस्तारित रूप से समझाया है| श्री मनवाल मामुनिगल भी इस ग्रन्थ के बारे में एक अदभुत व्याख्यान लिखा है| अगले लेख में हम इसके बारे में और देखेंगे।

अडियेंन  केशव रामानुज दासन

पुनर्प्रकाशित : अडियेंन जानकी  रामानुज दासी

आधार: https://granthams.koyil.org/2012/07/srivaishnava-lakshanam-3/

संग्रहीत : https://granthams.koyil.org

प्रमेय – https://koyil.org
प्रमाण  – https://granthams.koyil.org
प्रमाता – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा / बाल्य पोर्टल – https://pillai.koyil.org

 

2 thoughts on “श्री वैष्णव लक्षण – ३”

  1. जय श्रीमन्नारायण !
    श्रीमते रामानुजाय नमः
    साष्टांग प्रणाम स्वामी जी!
    हे प्रभु !
    एक श्री वैष्णव होने के नाते, मुझे इन सब बातों का प्रमाण सहित कोई ज्ञान नहीं था। अब आपके साईट से जब मैं , लेख पढ़ता हूं तो ऐसा लगता है कि स्वयं भगवान श्रीमन्नारायण ने कृपा करके मेरे लिए ही यह लिखवाया है। कोई मुझसे पूछता था “यह किस प्रकार का तिलक लगाया है?” मैं उत्तर देता था यह उर्ध्वपुंड्र है , लेकिन प्रमाणिक श्लोकों के साथ उनको नहीं समझा सकता था। मैं अब गर्व और गौरव के साथ सभी को यह बता सकता हूं, कि हमारा जीवन कैसा होना चाहिए हम भगवान श्रीमन नारायण के दास हैं। उन्हें छोड़कर उन से विमुख होकर, हम किस प्रकार के कुकर शुकर की भांति अपना जीवन व्यर्थ कर रहे हैं। जबकि एक भक्त का ऐश्वर्य अपने स्वामी कि कैंकर्य में होता है ।
    मैं इसके लिए आपका सदैव ऋणी रहूंगा ।
    जय श्रीमन्नारायण !!

    Reply
    • Happy to hear about your realisation. Please contact us thru email (koyil.org@gmail.com) or whatsapp +91-8220151966 to get clarification on any doubts.
      adiyen sarathy ramanuja dasan

      Reply

Leave a Comment