श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद वरवरमुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः
इस लेख को चित्रों के माध्यम से इस लिंक पर देखा जा सकता है- https://docs.google.com/presentation/d/188gzTl_qZKtyIxiwKguIjBSkxH-9t9zUw_U98YJGbkk/present#slide=id.p
- पिछले अंक में ( https://granthams.koyil.org/2016/07/07/thathva-thrayam-chith-who-am-i/), हमने चित तत्व (जीवात्मा) का स्वरुप देखा।
- श्रीपिल्लै लोकाचार्य के दिव्य ग्रंथ और उस पर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के सुंदर व्याख्यान के माध्यम से तीन तत्वों (चित, अचित, ईश्वर) को जानने के उद्देश्य से हम अपनी यात्रा को आगे बढाते हैं।
ज्ञानपूर्ण व्यक्तियों के शिक्षण के द्वारा अचित तत्व को समझना
भूमिका
- माया ज्ञानहीन है और परिवर्तन का निवास है।
- क्योंकि माया ज्ञानहीन है, वह पुर्णतः दूसरों के भोग के लिए सृष्टि में है।
- चित्त,जो अपरिवर्तनीय है, से भिन्न अचित परिवर्तन से गुज़रती है
- अचित तीन प्रकार की है-
- शुद्ध सत्व – सम्पूर्ण सत्वता/ शुद्धता, जो रजस और तमो गुणों से हीन है|
- मिश्र सत्व – सत्व (साधुता), रजस (राग) और तमस (अज्ञान), तीन गुणों का मिश्रणचित।
- सत्व शून्य (काल) – समय/ काल का सिद्धांत, जो तीनों गुणों (सत्व, राग, तमस) से हीन है|
शुद्ध सत्व (शुद्ध साधुता)
परमपद – श्रीमन्नारायण भगवान का आध्यात्मिक निवास, जो दिव्य पदार्थ से निर्मित मंडपों, बागीचों, आदि से सुसज्जित है
- यह शुद्ध सत्वता है, जो रजस और तमो गुणों से हीन है। यह मुख्यतः परमपद में पाए जाने वाली सभी माया/ वस्तुयें हैं।
- स्वरुप से यह
- नित्य/ अनादी है
- ज्ञान और आनंद का स्त्रोत है
- भगवान की दिव्य अभिलाषा को प्रत्यक्ष करते विमानों/ मीनारों, मंडपों आदि, जो कर्म में बंधे जीवात्मा द्वारा निर्मित नहीं है।
- असीमित अद्वितीय चमकदार रूप में
- जिसे नित्य, मुक्त और स्वयं भगवान भी पूर्णतः समझ नहीं सकते। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इस पर एक प्रश्न करते हैं और फिर स्वयं उसका उत्तर भी देते हैं – यदि भगवान स्वयं इसे पूर्णतः समझ नहीं सकते, तो क्या यह उनके सर्वज्ञत्वं (सर्व ज्ञाता गुण) को ग़लत साबित नहीं करेगा? फिर वह सुंदरता से समझाते हैं कि सर्व ज्ञाता होना अर्थात सभी के सच्चे स्वरुप जो जानना – इसलिए, भगवान जानते हैं कि शुद्ध सत्व असीमित है, जो उसका सच्चा स्वरुप है और यही उनका सच्चा सर्वज्ञत्वं है।
- अत्यधिक अद्भुत है
- कुछ का मत है कि, यह दीप्तमान है और कुछ अन्य का मत है कि यह दीप्तमान नहीं है। इसके विषय में दो अभिमत प्रचलित है।
- परंतु अधिक महत्व इस मत को दिया जाता है कि वह दीप्तमान है। ऐसी परिस्थिति में, नित्य, मुक्त और भगवान के समक्ष वह प्रत्यक्ष है। परंतु संसारी उसे समझ पाने में असमर्थ है।
- यह जीवात्मा के स्वरुप से भिन्न है क्योंकि
- इसे स्वयं की अनुभूति नहीं है
- यह विभिन्न रूपों में परिवर्तित हो जाता है
- यह ज्ञान से भिन्न है क्योंकि
- यह दूसरों की सहायता के बिना ही विभिन्न रूपों में प्रत्यक्ष है (ज्ञान का कोई स्थूल स्वरुप नहीं है)
- ज्ञान, जो तन्मात्रों (ज्ञानेन्द्रियाँ – आवाज, स्पर्श, रूप, स्वाद और गंध) को थामता है, उसके विपरीत यह सूक्ष्म तत्वों का समावेश है।
मिश्र सत्व (अशुद्ध साधुता)
- स्वरूप से, यह
- सत्व, रजस और तमस का मिश्रण है
- एक आवरण है, जो सम्पूर्ण ज्ञान और आनंद प्राप्त करने से जीवात्मा को रोकता है
- जीवात्माओं के लिए विकृत ज्ञान का स्त्रोत
- नित्य/ अनादी
- इस लीला-विभूति में ईश्वर के क्रीड़ा के लिए है
- समय (सृष्टि और संहार) और परिस्थिति (अव्यक्त और व्यक्त) के अनुसार कभी एक दूसरे के समान और कभी एक दूसरे से भिन्न है
- इसे निम्न रूप में जाना जाता है
- प्रकृति – क्योंकि वह सभी परिवर्तनों का स्त्रोत है, इसे निम्न रूप में जाना जाता है
- अविद्या – क्योंकि वह सच्चे ज्ञान से भिन्न है
- माया – क्योंकि इसका परिणाम अद्भुत और भिन्नता से परिपूर्ण है
- तिरुवाय्मौली 10.7.10 में श्रीशठकोप स्वामीजी द्वारा यह बताया गया है कि माया के 24 तत्व है-
- पञ्च तन्मात्र – 5 अनुभूति के स्त्रोत – शब्द (आवाज), स्पर्श, रूप, रस (स्वाद), गंध
- पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ – 5 ज्ञानेन्द्रियाँ- श्रोत्र (कान), त्वक (त्वचा), चक्षु (नेत्र), जिह्वा, ग्राह्णा (नासिका)
- पञ्च कर्मेन्द्रियाँ – 5 कर्मेन्द्रियाँ – वाक् (मुख), पाणी (हस्त), पाद (पैर), पायु (मल उत्सर्जन अंग), उपस्थ (संतति के अंग)
- पञ्च भूत – 5 महान तत्व – आकाश (नभ), वायु (हवा), अग्नि, जल, पृथ्वी
- मानस – मस्तिष्क
- अहंकार – अहं
- महान – पदार्थ का प्रत्यक्ष स्वरुप
- मूल प्रकृति – पदार्थ का अव्यक्त स्वरुप
- इनमें से, मूल प्रकृति प्राथमिक पदार्थ है जो गुणों के मिश्रण से स्वयं को विभिन्न अवस्था में प्रत्यक्ष करती है
- गुणों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है – सत्व, रजस (राग) और तमस (अज्ञान)
- सत्व आनंद और प्रसन्नता का स्त्रोत है
- रजस/ राग, लौकिक कामनाओं की आसक्ति और तृष्णा का स्त्रोत है
- तमस विकृत ज्ञान, कृतघ्नता, आलस्य और नींद का स्त्रोत है
- जब तीनों गुण समानता से विभाजित होते है, उसका परिणाम पदार्थ की अव्यक्त अवस्था होती है।
- जब वे असमान रूप से विभाजित होते है, तब पदार्थ की प्रत्यक्ष अवस्था प्रकट होती है।
- महान व्यक्त पदार्थ की प्रथम अवस्था है।
- महान से ही अहंकार उत्पन्न होता है।
- तदन्तर महान और अहंकार से ही सभी अन्य तत्व (जैसे तन्मात्र, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, आदि) व्यक्त होते है।
- पञ्च तन्मात्र (अनूभुती के विषयवस्तु) पुच भूतों अर्थात सकल तत्वों की सूक्ष्म अवस्था है।
- भगवान इन विभिन्न तत्वों के मिश्रण से व्यक्त ब्रह्माण्ड का निर्माण करते है।
- भगवान ब्रह्माण्ड और उसके कारक का निर्माण करते है। अर्थात, अपने संकल्पमात्र से अनायास ही भगवान अव्यक्त मूल प्रकृति को व्यक्त स्थिति में परिवर्तित करते है।
- ब्रह्माण्ड में रहने वाले सभी जीवों का निर्माण ब्रह्मा, प्रजापति आदि के माध्यम से भगवान द्वारा किया गया है (उनमें अन्तर्यामी होकर)
- ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड अस्तित्व में है।
- उनका निर्माण एक ही समय पर और अनायास ही भगवान के संकल्प मात्र से हुआ है।
- प्रत्येक ब्रह्माण्ड की 14 परतें है। श्री वरवरमुनि स्वामीजी विभिन्न प्रमाणों के आधार पर अत्यंत विस्तार से ब्रह्माण्ड की संरचना को समझाते है।
लीला विभूति की संरचना (संसार)
- 7 नीचे की परतें
- ऊपर से नीचे तक जाते हुए, क्रमश: उनका नाम है – अतल, वितल, नितल, कपस्थिमत (तलातल), महातल, सुतल और पाताल
- ये राक्षसों, सांपो, पक्षियों, आदि के रहने का स्थान है
- यहाँ बहुत से सुंदर महल, मकान आदि है जो स्वर्ग लोक से भी अधिक आनंददाई है
- 7 ऊपर की परतें
- भू लोक – जहाँ मानव, पशु, पक्षी आदि निवास करते है। यह 7 बड़े द्वीपों में विभाजित है। हम जम्भूद्वीप में रहते है।
- भूवर लोक – जहाँ गंधर्व (आकाशीय गायक) निवास करते है
- स्वर्ग लोक – जहाँ इंद्र (वह पद जो भूलोक, भूवर लोक और स्वर्ग लोक की गतिविधियों का प्रबंध करता है) और उसके सहयोगी निवास करते है
- महर लोक – जहां निवृत्त इंद्र या आने वाले इंद्र निवास करते है
- जनर लोक – जहाँ अनेकों महान ऋषि जैसे ब्रह्मा के चार पुत्र – सनक, सनकाधिक, सनातन और सनंदन आदि निवास करते है
- तप लोक – जहाँ प्रजापति (मौलिक प्रजनक) निवास करते है
- सत्य लोक – जहाँ ब्रहमा, विष्णु और शिव, अपने भक्तों के साथ निवास करते है
- प्रत्येक ब्रह्माण्ड (14 परतों से निर्मित) सुरक्षा की 7 परतों से घिरा है – जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महान और अंततः मूल प्रकृति।
- ज्ञानेन्द्रियाँ सूक्ष्म और सकल तत्वों के ज्ञान को प्राप्त करती है। कर्मेन्द्रियाँ बहुत से शारीरिक कार्य करने में सहायता करती है। मस्तिष्क सभी के लिए समान है और सभी पक्षों में सहायक है।
- पंचीकरणं वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा भगवान विभिन्न तत्वों का मिश्रण करते हैं और परिणामस्वरूप हम इस ब्रह्माण्ड का व्यक्त स्वरुप देख रहे हैं।
सत्व शून्य – समय
- स्वरूप से, समय
- अचित वस्तु के परिवर्तन में उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है (अव्यक्त स्वरुप से व्यक्त/प्रत्यक्ष स्वरुप में)।
- के विभिन्न मापदण्डों में प्रत्यक्ष है (जैसे दिन, सप्ताह, महीना आदि)।
- अनादी है – अर्थात उसका कोई आदि और कोई अंत नहीं है
- ईश्वर के क्रीड़ा के लिए सहायक है
- स्वयं भगवान के स्वरुप का अंश है
- श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, नुदुविल तिरुवेधिप पिल्लै भट्टर द्वारा समझाए गए समय के वर्गीकरण को समझाते हैं।
- निमेषम (क्षण, पलक झपकने का समय – एक सेकंड के बराबर) समय की सबसे सूक्ष्म इकाई है
- 15 निमेषम = 1 काष्ट
- 30 काष्ट = 1 कलई
- 30 कलई = 1 मुहूर्त
- 30 मुहूर्त = 1 दिवस (1 दिन)
- 30 दिवस = 2 पक्ष (पंद्रह दिन) = 1 मास (महीना)
- 2 मास = 1 ऋतू
- 3 ऋतू = 1 अयन (6 मास – उत्तरायण और 6 मास – दक्षिणायण)
- 2 अयनं = 1 संवत्सर (वर्ष)
- 360 मानव संवत्सर = 1 देव संवत्सर
- अन्य दो अचित तत्वों (शुद्ध सत्व और मिश्र सत्व) भोगने योग्य हैं, आनंद के निवास और आनंद के साधन हैं।
- शुद्ध सत्व (दिव्य पदार्थ) ऊपर की ओर असीमित है और नीचे की ओर सीमित है (यह परमपद – परलोक में पुर्णतः स्थित है)
- मिश्र सत्व (पदार्थ) नीचे की ओर असीमित है और ऊपर की ओर सीमित है (यह लौकिक संसार में पूर्ण रूप से स्थित है)
- काल तत्व सर्व व्याप्त है (परमपद में भी और लौकिक संसार में भी)।
- ऐसा कहा जाता है कि परमपद में समय नित्य/ अनादी है और लौकिक संसार में अनित्य है। श्री वरवरमुनि स्वामीजी, श्री पेरियवाच्चान पिल्लै के व्याख्यान द्वारा, अपने तत्व त्रय विवरण (एक ग्रंथ, जो अब उपलब्ध नहीं है) में समझाते हैं – “परमपद और संसार दोनों में ही समय का स्वरुप एक समान है”। इसलिए, उस व्याख्यान को ही परम अधिकारी माना जाता है। परंतु क्योंकि कुछ आचार्य परमपद और संसार में समय के स्वरुप को भिन्न बताते हैं – तब यह समझना चाहिए कि संसार के परिवर्तनशील स्वरुप के कारण समय को यहाँ अनित्य माना गया है।
- कुछ का कहना है कि समय का कोई अस्तित्व नहीं है। परंतु क्योंकि यह शास्त्र और तर्क के विपरीत है, इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
सारांश
इस प्रकार हमने अचित (पदार्थ) तत्व के विषय में थोडी चर्चा की, जिसका स्वरुप 3 प्रकार का है (शुद्ध सत्व- परमपद के दिव्य पदार्थ, मिश्र सत्व – संसार के पदार्थ और सत्व शून्य – समय)। जैसा की पहले भी कहा गया है, यह विषय वस्तु अत्यंत जटिल है और इस लेख का उद्देश्य इस विषय को कालक्षेप द्वारा आचार्य के सानिध्य में समझने की रूचि निर्मित करना है।
यद्यपि यहाँ तत्व त्रय नामक दिव्य ग्रंथ से अचित प्रकरण का भली प्रकार से विवेचन किया गया है, यह अनुशंसा की गयी है कि इस ग्रंथ के कालक्षेप को आचार्य के सानिध्य में श्रवण करने से सच्चे ज्ञान की प्राप्ति होती है।
रहस्य तत्वत्रयतय विवृत्या लोकरक्षिणे।
वाक्बोशा कल्परचना प्रकल्पायास्तु मंगलम।।
श्रीमते रम्यजामातृ मुनींद्राय महात्मने।
श्रीरंगवासिने भूयात नित्यश्री नित्य मंगलं।।
मंगलाशासन परैर मदाचार्य पुरोगमै।
सर्वैश्च पूर्वैर आचार्यै सत्कृतायास्तु मंगलं।।
अगले अंक में, हम ईश्वर तत्व के विषय में विस्तार से समझेंगे।
-अडियेन भगवती रामानुजदासी
आधार – तत्व त्रय
अंग्रेजी संस्करण – https://granthams.koyil.org/2013/03/thathva-thrayam-achith-what-is-matter/
प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – https://pillai.koyil.org