श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद वरवरमुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः
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बुद्धिमान व्यक्ति की शिक्षा से चित (आत्मा) तत्व को समझना
भूमिका
आत्मा, जड़ पदार्थ/ माया और ईश्वर के सच्चे स्वरुप को जानने की जिज्ञासा प्रत्येक में है। बहुत सी संस्कृतियों में, बुद्धिजीवियों के मध्य इन तीन तत्वों को समझने की जिज्ञासा आम पहलू के रूप में देखा जाता है। सनातन धर्म, जो वेद, वेदांत, स्मृति, पुराण और इतिहास पर आधारित है, वह अत्यंत सुंदरता से जीवात्मा, प्रकृति (माया) और ईश्वर के विषय में सच्चे ज्ञान को प्रकाशित करता है। श्रीमन्नारायण भगवान (गीताचार्य के रूप में), श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीरामानुज स्वामीजी, श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने विभिन्न ग्रंथों में अपने दिव्य वचनों द्वारा इन तीन तत्वों के स्वरुप को समझाया है।
मुख्यतः श्रीपिल्लै लोकाचार्य द्वारा रचित तत्व त्रय और उस ग्रंथ पर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का उत्कृष्ट व्याख्यान इन तीन तत्वों को सु-स्पष्टता से वर्णन करता है। आत्मा/ स्वयं के सच्चे स्वरुप को जाने बिना, हमारी आध्यात्मिक प्रगति सीमित होगी। आत्मा के विषय में उचित ज्ञान होने के पश्चाद ही, तदनुरूप कार्य करने से हमें आध्यात्मिक जीवन में प्रगति प्राप्त होगी। सर्वप्रथम हम आत्मा के वर्णन से प्रारंभ करेंगे।
भगवान द्वारा अर्जुन को उपदेश
श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीरामानुज स्वामीजी, श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी
आत्मा का सच्चा स्वरुप
आत्मा का स्वरुप, देह, इन्द्रियाँ, प्राण वायु, मन, मानस, और बुद्धि से भिन्न है।
- स्वभाव से आत्मा –
- आभायमान/ प्रकाशमान है – वह जिसे स्वयं के विद्यमान और स्व-दीप्तिमान होने की अनुभूति है
- प्रसन्न – स्वाभाविक आनंदपूर्ण
- नित्य/ अनादी – जिसकी उत्पत्ति या संहार नहीं किया जा सकता
- अव्यक्त – बाहरी चक्षुओं के द्वारा नहीं देखा जा सकता
- सूक्ष्म – अत्यंत छोटा स्वरुप
- अचिंतनीय/ अगम्य – हमारे बुद्धि/ विवेक के पार
- अविभाज्य – जिसके कोई अंग प्रत्यंग नहीं है
- अपरिवर्तनीय – जिसमें कोई परिवर्तन संभव नहीं
- जिसमे ज्ञान का वास है
- भगवान द्वारा नियंत्रित है
- भगवान के द्वारा पोषित/ संरक्षित है
- भगवान का दास है
आत्मा और देह, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, मानस, बुद्धि आदि के मध्य भिन्नतायें-
- देह, इन्द्रियाँ, मन, आदि को “मेरा शरीर”, “मेरी इन्द्रियाँ”, “मेरा मानस” आदि भिन्न रूप से कहा जाता है, यहाँ “मेरा” शब्द आत्मा को दर्शाता है।
- आत्मा के संदर्भ में “मैं” शब्द का और देह, इन्द्रियाँ, मन, आदि के संदर्भ में “मेरा” शब्द का प्रयोग किया जाता है।
- जहाँ आत्मा की अनुभूति सदैव की जाती है, वहाँ देह, इन्द्रियाँ, प्राण, आदि की अनुभूति कभी की जाती है और कभी नहीं। उदाहरण के लिए, जब हम सो रहे हैं, आत्मा तब भी जागृत अवस्था में रहती है, परंतु उस स्थिति में देह की अनुभूति नहीं रहती। और जब हम जाग उठते हैं तब चेतना लौट आती है, तब आत्मा के निरंतर ज्ञान के द्वारा हमें तुरंत स्वयं की अनुभूति होती है।
- व्यक्तिगत परिस्थिति में, आत्मा एक है, परंतु देह, इन्द्रियाँ, मानस, आदि सभी बहुत से अव्यवों का समागम है।
उपरोक्त के साथ, हम आत्मा और देह आदी के भेद को सुगमता से समझ सकते है। यद्यपि फिर भी इन तार्किक अर्थों को, जो सभी को सरल रूप में समझ आ सकता है, उसमें कोई संदेह होता है, तब शास्त्रों के मत को स्वीकार करना चाहिए कि आत्मा और देह एक दूसरे से भिन्न है। क्योंकि शास्त्र अनादी है, किसी के द्वारा बनाये नहीं गया है और दोषहीन है, इसलिए शास्त्रों में निर्देशित सिद्धांत, पूर्ण रूप से स्वीकार करने योग्य है।
आत्मा और देह में भिन्नता – व्यवहारिक उदहारण
उसी प्रकार, “मैं”, जो आत्मा है, शरीर उसी का है। आत्मा और शरीर एक दूसरे से भिन्न हैं परंतु वे परस्पर संबंधित हैं। जब हम स्पष्टता से यह समझते हैं कि हम आत्मा हैं, हम शरीर के लिए कर्म करना त्याग देते हैं।
शरीर का परिवर्तनशील स्वरुप और आत्मा का पुनर्जन्म
- भगवान भगवत गीता के द्वितीय अध्याय में आत्मा और शरीर के स्वरुप के बारे में अत्यंत विस्तार से समझाते हैं।
- 13वे श्लोक में भगवान कहते हैं “जिस प्रकार शरीर में समाहित आत्मा, शरीर के विभिन्न पड़ावों जैसे बचपन, यौवन, आदि से गुजरती है, उसी प्रकार मृत्यु के समय आत्मा दूसरा शरीर धारण करती है। जिसने आत्मा के स्वरुप को समझ लेता है, वह इस परिवर्तन से विचलित नहीं होता”।
- 22वे श्लोक में भगवान कहते हैं “जिस प्रकार हम पुराने वस्त्रों के फट जाने पर नए वस्त्र धारण करते हैं, उसी प्रकार आत्मा भी मृत्यु के पश्चाद नया शरीर धारण कर लेती है “।
आत्मा देह के विभिन्न पडावों से गुजरती हुई और एक शरीर के अंत के पश्चाद दूसरे शरीर को धारण करती हुई।
ज्ञाता, कर्ता और भोग्यता
- आत्मा को ज्ञाता कहा जाता है, क्योंकि वह ज्ञान का वास है।
- आत्मा मात्र ज्ञान ही नहीं है, अपितु ज्ञानी भी है, क्योंकि यही शास्त्रों में कहा गया है।
- ज्ञान स्वतः ही कार्य और कार्य के परिणामों के भोग की ओर अग्रसर करता है, क्योंकि कार्य और उसके परिणामों को भोग करना, ज्ञान के दो भिन्न रूप हैं।
- आत्मा, इस संसार में भौतिक प्रकृति के तीन भिन्न प्रकारों – सत्व, रजस्, तमस् अर्थात अच्छाई, लालसा और आवेग, अज्ञान से प्रभावित होती है और उसी के अनुसार कार्य करती है।
- भगवान जीवात्माओं को स्वयं ही मार्ग निर्धारित करने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं।
- परंतु क्योंकि भगवान ही परम अधिकारी है, उनकी स्वीकृति के बिना कुछ नहीं होता।
- प्रत्येक कार्य के लिए, आत्मा को कार्य निष्पादन का मार्ग चयन करने का विकल्प प्रदान किया गया है। भगवान पहले साक्षी रहते हैं, और फिर उस विशिष्ट विकल्प को प्रदान करते हैं।
- तदन्तर, उस वरण किये हुए विकल्प के आधार पर (चाहे वह कार्य शास्त्र के अनुसार हो या शास्त्रों के विरुद्ध), भगवान उस कार्य को करने में उस जीवात्मा की सहायता करते हैं।
- इस प्रकार, भगवान जीवात्मा द्वारा किये गए कार्य के परम अधिकारी हैं, परंतु वे उसे अपना मार्ग निर्धारित करने देते हैं, जिससे यह सुनिश्चित हो कि प्रत्येक जीवात्मा अपने कार्यों के लिए स्वयं उत्तरदायी है।
- ऐसे विशिष्ट उदाहरण भी है, जहाँ भगवान किसी विशिष्ट कारण से स्वयं जीवात्मा के जन्म और कार्यों पर पूर्ण नियंत्रण करते हैं।
भगवान द्वारा नियंत्रित, भगवान द्वारा पोषित और उनकी ही शेषभूत (दास)
- जीवात्मा पूर्ण रूप से भगवान के नियंत्रण में है। अर्थात जीवात्मा के सभी कार्य भगवान द्वारा अनुमोदित है।
- जिस प्रकार शरीर के सभी कार्य आत्मा द्वारा नियंत्रित होते हैं, उसी प्रकार आत्मा के सभी कार्य अन्तर्यामी परमात्मा भगवान द्वारा नियंत्रित हैं।
- फिर भी भगवान आत्मा को अपने कर्मों के मार्ग को चुनने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं क्योंकि आत्मा ज्ञान से परिपूर्ण है, जिसका निर्णय लेने में उपयोग किया जा सकता है।
- अन्यथा शास्त्रों का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा।
- आत्मा भगवान द्वारा नियंत्रित है, भगवान ही उसके पालक है और आत्मा उनकी शेषभूत है।
- आत्मा के सीखने, समझने, विभिन्न कार्यों और उनके गुण और अवगुणों के मध्य भेद करने और श्रेष्ठ मार्ग के अनुसरण आदि हेतु ही शास्त्रों का अस्तित्व है।
- इसलिए, आत्मा के कृत्य के लिए, भगवान निम्न स्थिति में रहते हैं
- साक्षी – अपने कार्यों के लिए आत्मा द्वारा किये जाने वाले प्रथम प्रयासों में निष्क्रिय रहकर साक्षी बनते हैं
- स्वीकृती प्रदान करते हैं – आत्मा द्वारा कर्म का मार्ग चुनने के पश्चाद उसके कृत्यों को अनुमति प्रदान करना
- प्रेरक – एक बार आत्मा द्वारा कार्य के प्रारंभ के पश्चाद, उनके आधार पर आगे के कार्यों के लिए भगवान प्रेरणा प्रदान करते हैं
- भगवान ही आत्मा के संरक्षक/ पालक हैं। पालक अर्थात, निम्न वर्णित उचित ज्ञान के अभाव में आत्मा स्वयं की अनुभूति को खो देती है:
- स्वयं और भगवान के मध्य का संबंध
- भगवान का दिव्य स्वरुप
- भगवान के दिव्य कल्याण गुण
- आत्मा नित्य ही भगवान के शेषभूत है, जो सभी का केंद्र है।
- इसका अर्थ है आत्मा को सदैव भगवान की प्रसन्नता के लिए स्वार्थ को त्याग कर कैंकर्य करना चाहिए। चन्दन, पुष्प आदि सभी केवल भगवान के आनंदानुभव के लिए ही सृष्टि में है।
- अंततः, आत्मा भगवान से अविभाज्य है।
तीन प्रकार की आत्मा
असंख्य जीवात्माएं हैं। परंतु उनके तीन प्रकार है –
- बद्ध आत्माएं
- बद्ध आत्माएं वे हैं, जो अनादी समय से इस संसार चक्र में फसें हुए हैं।
- वे अज्ञानवश, जन्म मृत्यु चक्र में बंधे हैं, जिससे पापों/ पुण्यों का संचय होता है।
- वे सभी जीवात्माएं, जिन्हें अपने सच्चे स्वरुप के विषय में ज्ञान नहीं है, वे इस वर्ग में आते हैं।
- वे आत्मा के सच्चे स्वरुप के ज्ञान को खोकर, स्वयं का बोध देह, इन्द्रियाँ आदि के द्वारा करते हैं।
- ऐसी बद्ध आत्माएं भी हैं, जो स्वयं को संपूर्णतः स्वतंत्र मानकर कृत्य करते हैं।
- मुक्त आत्माएं
- ये वह जीवात्माएं हैं, जो किसी समय संसार (भौतिक जगत) में फंसे हुए थे, परंतु अब परमपद (आध्यात्मिक जगत) में सुशोभित हैं।
- ये जीवात्माएं स्वप्रयासों (कर्म, ज्ञान, भक्ति योग) द्वारा अथवा भगवान की निर्हेतुक कृपा द्वारा परमपद पहुँचते हैं।
- संसार से निवृत्त होकर, ये मुक्त जीवात्माएं अर्चिरादी गति द्वारा, विरजा नदी में स्नान करके एक सुंदर दिव्य देह को प्राप्त करते हैं।
- वहाँ नित्यसुरीगण और अन्य मुक्त जीवात्माएं, श्री वैकुंठ में उनका स्वागत करते हैं और फिर वे सभी भगवान की नित्य सेवा को प्राप्त करते हैं।
श्रीमन्नारायण भगवान की निर्हेतुक कृपा से ही आलवारों ने परमपद प्रस्थान किया
- नित्य आत्माएं
- यह वह जीवात्माएं हैं, जो कभी संसार चक्र के बंधन में नहीं बंधे।
- वे सदा परमपद में अथवा जहाँ भी भगवान हो, उनकी नित्य सेवा करते हैं।
- मुख्य नित्यसूरीगण, जो सदा भगवान की सेवा करते हैं-
- आदिशेषजी
- गरुड़जी
- विश्वकसेनजी, आदि
परमपद में नित्य सुरियों द्वारा सदा सेवित परमपदनाथ।
- जिस प्रकार अग्नि पर रखे किसी गर्म पात्र में डाला गया जल (जो स्वभाव से शीतल है) पात्र के संपर्क में आने से गर्म हो जाता है उसी प्रकार बद्ध जीवात्माएं अचित जड़ पदार्थों/ माया के संपर्क में आने पर अज्ञान, कर्म आदि द्वारा बाधित हो जाती है।
- माया/ जड़ पदार्थों से मोह त्यागने पर, अज्ञान आदि का नाश होता है।
- बद्ध, मुक्त और नित्य सभी प्रकार की जीवात्माएं असंख्य हैं।
- कुछ लोग एकैक आत्मा के सिद्धांत का प्रचार करते हैं (शास्त्रों में पाए जाने वाले अद्वैत के सिद्धांत का गलतफ़हमी करते हुए) जो अज्ञान से आच्छादित होकर , स्वयं को अनेकों (बहुवचन) मानकर भ्रमित होती होते हैं। परंतु यह तर्क और शास्त्र के विपरीत है।
- यदि केवल एक ही आत्मा है, तब एक व्यक्ति के सुखी होने पर, अन्य व्यक्ति को दुखी नहीं होना चाहिए। परंतु क्योंकि दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं, किसी एक व्यक्ति में एक ही समय पर भिन्न भाव नहीं हो सकते। शास्त्र यह भी कहता है कि कुछ आत्माएं मुक्त हैं और कुछ अभी भी संसारी हैं, कुछ आचार्य हैं और अन्य शिष्य हैं, इसलिए बहुत सी जीवात्माएं सृष्टि में हैं। एकैक आत्मा का सिद्धांत, शास्त्रों के कथन के भी विरुद्ध है, क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है कि सृष्टि में बहुत सी जीवात्माएं हैं।
- मोक्ष की अवस्था में भी, असंख्य जीवात्माएं हैं।
- हमें यह शंका हो सकती है कि –परमपद में निवास करने वाले जीवात्माएं भिन्न हैं, क्योंकि उनमें क्रोध, इर्ष्या, आदि कोई अवगुण नहीं है, जो इस भौतिक जगत में देखे जाते हैं। यद्यपि गुणात्मक रूप से उस स्थिति में सभी आत्माएं समान हैं, जिस प्रकार बहुत से पात्र जो वजन और माप में एक समान है, परंतु फिर भी एक दूसरे से भिन्न हैं, उसी प्रकार परमपद में निवास करने वाले जीवात्माएं भी एक समान होते हुए भी एक दूसरे से भिन्न हैं।
- इस प्रकार, यह स्पष्टता से समझा जा सकता है कि भौतिक और आध्यात्मिक जगत दोनों ही स्थानों पर असंख्य जीवात्माएं हैं।
धर्मी ज्ञान और धर्म भूत ज्ञान
- आईए अब हम ज्ञान के दो प्रकारों को समझते हैं
- धर्मी ज्ञान – चेतना
- धर्म भूत ज्ञान – विद्या/ ज्ञान (गुण)।
- आत्मा का सच्चा/ विशिष्ट स्वरुप (बद्ध, मुक्त, नित्य आदि से भिन्न) –
- शेषत्वं – यह बोध की जीव भगवान का शेष (दास) है और
- ज्ञातृत्वं – ज्ञानवान होना।
- दोनों ही अति आवश्यक गुण हैं।
- ज्ञानवान होना, आत्मा को अचित (जड़ पदार्थ) से भिन्न करता है।
- भगवान के शेष/ दास होना, उसे भगवान/ ईश्वर से भिन्न करता है।
- यद्यपि आत्मा स्वयं ज्ञान से उपजी है (धर्मी ज्ञान- स्वरुप), तथापि उसमें ज्ञान समाहित है (धर्म भूत ज्ञान- गुण)।
- धर्मी ज्ञान और धर्म भूत ज्ञान के मध्य भेद – धर्मी ज्ञान, चेतना है, जो सदैव स्वयं के अस्तित्व का बोध कराती है (सूक्ष्म – अपरिवर्तनशील)।
- धर्म भूत ज्ञान वह है, जो आत्मा को बाह्य प्रयोजनों से प्रकाशित करता है (सभी सर्वव्यापी – जो ज्ञान के संकुचन और विस्तार के कारण निरंतर परिवर्तनीय है)।
- नित्यात्मा के परिपेक्ष्य में, ज्ञान पुर्णतः विस्तारित होता है।
- मुक्तात्माओं के लिए, उनका ज्ञान किसी समय में संकुचित था परंतु अब पुर्णतः विस्तारित है।
- इस संसार की बद्ध आत्माओं के परिपेक्ष्य में, ज्ञान संकुचित है।
- यद्यपि ज्ञान आत्मा का जीवंत गुण है, ज्ञान का संकुचित होना और विस्तारित होना इस वजह से है कि ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है।
- इन्द्रियाँ किसी समय जागृत रहती है, और किसी समय में नहीं।
- इसलिए, धर्म भूत ज्ञान (ज्ञान गुण) उसके अनुसार बढ़ और घट सकता है।
उपसंहार
- यहाँ आत्मा की स्वाभाविक आनंदपूर्ण स्थिति के विषय में बताया गया है।
- ज्ञान के सम्पूर्ण उदय या विस्तार से आत्मा को आनंदपूर्ण अवस्था प्राप्त होती है।
- जब अस्त्र अथवा विष (कोई भी वस्तु जो देह, मानस आदि के लिए प्रतिकूल हो) से हमारा सामना होता है, वह दुख जनित होता है।
- परंतु वह इसलिए है, क्योंकि
- हम आत्मा को देह मानकर भ्रमित होते हैं- परंतु जब हम समझ जाते हैं कि अस्त्रों से केवल देह प्रभावित होती है, आत्मा नहीं, तब हमें कोई पीढ़ा नहीं सताएगी।
- हमारे अपने कर्म ही हमें भयभीत करते हैं।
- हमें इस विषय में पूर्ण समझ नहीं है कि भगवान सभी में व्याप्त हैं (उन अस्त्रों में भी)– प्रहलाद आलवान पूर्णतः आश्वस्त थे कि भगवान सभी में व्याप्त हैं और साँप, हाथियों अथवा अग्नि द्वारा भयभीत किये जाने पर भी उन्होंने कोई विरोध नहीं किया। वे उनमें से किसी से भी प्रभावित नहीं हुए।
- क्योंकि सभी में भगवान व्याप्त हैं इसलिए सभी को अनुकूल ही समझना चाहिए।
- प्रतिकूलता, हमारे विवेक का भ्रम है।
- किसी के अनुकूल होने का यदि कोई कारण है, तो उसी जीवात्मा के लिए अन्य परिस्थितियों, अन्य समय में वही वस्तु प्रतिकूल प्रतीत होती है। उदहारण के लिए, गर्म पानी शीत ऋतू में अनुकूल प्रतीत होता है, परंतु ग्रीष्म ऋतू में प्रतिकूल – इसलिए गर्म पानी स्वतः ही अच्छा अथवा बुरा नहीं है- यह उसे उपयोग करने वाले की अनुभूति और आसपास के पर्यावरण से प्रभावित उसके देहिक विचार पर आधारित है।
- एक बार जब हम यह देखते हैं कि सभी भगवान से सम्बंधित है, हम स्वतः ही आनंद का अनुभव कर सकते हैं।
यद्यपि यहाँ तत्व त्रय नामक दिव्य ग्रंथ से चित प्रकरण का भली प्रकार से विवेचन किया गया है, यह अनुशंसा की गयी है कि इस ग्रंथ के कालक्षेप को आचार्य के सानिध्य में श्रवण करने से सच्चे ज्ञान की प्राप्ति होती है।
रहस्य तत्वत्रयतय विवृत्या लोकरक्षिणे।
वाक्बोशा कल्परचना प्रकल्पायास्तु मंगलम।।
श्रीमते रम्यजामातृ मुनींद्राय महात्मने।
श्रीरंगवासिने भूयात नित्यश्री नित्य मंगलं।।
मंगलाशासन परैर मदाचार्य पुरोगमै।
सर्वैश्च पूर्वैर आचार्यै सत्कृतायास्तु मंगलं।।
अगले अंक में, हम अचित तत्व (जड़ पदार्थ) के विषय में विस्तार से समझेंगे।
-अडियेन भगवती रामानुज दासी
आधार – तत्व त्रय, भगवत गीता भाष्य
अंग्रेजी संस्करण – https://granthams.koyil.org/2013/03/06/thathva-thrayam-chith-who-am-i/
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