विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) -१५

 श्रीः  श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः  श्रीवानाचलमहामुनये नमः  श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनोतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरुत्तु नम्बी को दिया । वंगी पुरुत्तु नम्बी ने उस पर व्याख्या करके “विरोधि परिहारंगल” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ पर अँग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है। उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेगें । इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग https://granthams.koyil.org/virodhi-pariharangal-hindi/ पर हिन्दी में देख सकते है।

<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – १४

४६) सेवा विरोधी – भगवान कि पूजा करने में बाधाएं

श्रीवैष्णव परिभाषा में “सेवा” का बहुत प्रकार से अर्थ है। सामान्यत: भगवान का दर्शन करने को भी सेवा कहते है। साष्टांग दण्डवत प्रणाम करना और अंजली (नमस्कार) करने को भी सेवा कहते है। पाशुरों का गान, ग्रन्थ वाचन करना भी सेवा है। संक्षेप में, किसी भी प्रकार का कैंकर्य, सेवा कहलाता है। कई पहलू – विशेषतः मन्दिर में भगवान कि सेवा के बारे में अनेक विषयों में समझाया गया है।

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श्रीरंगनाथ भगवान – श्रीरंगम

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श्रीरामानुज स्वामीजी सभी आचार्यों सहित

  • जब भी हम दिव्य देश, अभिमान स्थल आदि की यात्रा के लिये जाते है, तब वहां हमें उन स्थानों पर नहीं जाना चाहिये जो भगवान (मुख्य रूप में अर्चावतार) से सम्बंधित नहीं है। अगर हमें मजबूरी में ऐसे स्थानों पर जाना पड़े, तब उस स्थान के मुख्य आकर्षण कि ओर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिये। हमारा मन केवल भगवद विषय में होना चाहिये ओर कहीं नहीं। अनुवादक टिप्पणी: आजकल यह देखा जाता है कि कई जन दिव्यदेश यात्रा के साथ पर्यटक आकर्षण स्थान, ख़रीदारी आदि को भी जाते है। दिव्यदेश जाते समय ऐसे स्थान से बचना चाहिये। दिव्यदेश वह स्थान है, जहाँ भगवान स्वयं अर्चावतार रूप लेकर हम जीवों का उद्धार करने हेतु आये हैं। यह भगवान के सौलभ्य और कृपा का अंतिम स्वरूप है। हमें ऐसे दिव्य देशों कि महिमा को जानना चाहिये और अपने चित्त में आल्वारों के पाशुर और आचार्य के स्तोत्र का अनुसंधान कर भगवान के मंगलाशासन पर केन्द्रीत करना चाहिये।
  • मन्दिर और स्तम्भ देख हमें पहिले यह जानकारी लेनी चाहिये कि यह मन्दिर / स्तम्भ भगवान का है या नहीं। अगर वह मन्दिर देवता या अवैधिक धर्मों का है, तो हमें उन्हें सम्मान देने कि कोई अवश्यकता नहीं है। अगर कोई गलती से भी ऐसे मन्दिर / स्तम्भ का सम्मान करता है, तो उसे उस गलती पर पछताना चाहिए और शुद्ध होना चाहिए। इस संदर्भ में हम एक दृष्टांत श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के श्रीसहस्त्रगीति पर ईडु व्याख्या में देख सकते है।) श्री धनुर्दास स्वामीजी के भतीजे( वंदार और चोंदार उस प्रदेश के राजा उरैयूर के साथ घूमने निकले थे। राजा ने उनको एक जैन मंदिर दिखाया और कहा की यह भगवान विष्णु का मंदिर है, तब वंदार और चोंदर ने विष्णु भगवान का मंदिर जानकर साष्टांग कर लिया, साष्टांग करने के बाद राजा ने कहा की यह तो जैन का मंदिर है, मैंने तुम्हारे साथ मज़ाक– मस्ती की है, यह सुनते ही वंदार और चोंदार बेहोश होकर गिर गये। उनकी बेहोश की खबर सुनकर श्रीधनुर्दास स्वामीजी उनके पास आये और अपनी चरणरज उन पर प्रोक्षण किया, ऐसे करते ही वे तुरंत होश मे आ गये। इससे यह मालूम होता है की देवी देवताओं के मंदिर में हम लोगों को कभी प्रवेश नहीं करना चाहिए। भूलकर अगर किसी देवी देवता का दर्शन हो जाए, प्रसाद ले लिए, तो उसके प्रायश्चित हेतु परम भागवतों की चरणरज, श्रीपाद तीर्थ लेना चाहिए।
  • भगवान के मन्दिर और स्तम्भ को देखते हीं हमें तुरन्त बहुत आनंदित होना चाहिये, पूर्ण अभिवादन करना चाहिये, गाड़ी से उतरना चाहिए (अगर हम गाड़ी में यात्रा कर रहे है तो) और जुते (अगर पहिने हो तो) खोलना चाहिए। ऐसा न करना बाधा है।
  • जुते पहनकर दिव्य देश में प्रवेश नहीं करना। कम से कम मन्दिर कि गली प्रारम्भ होने से पहिले उन्हें खोल देना चाहिये।
  • आचार्य और श्रीवैष्णवों कि तिरुमाली के प्रवेश द्वार को सम्मान दिये बिना अंदर प्रवेश नहीं करना।
  • आचार्य और श्रीवैष्णवों कि तिरुमाली में प्रवेश किये बिना भगवान के मन्दिर में जाना बाधा है। अगर आचार्य कि तिरुमाली भगवान के मन्दिर के निकट है तो हमें सर्व प्रथम वहाँ जाकर आचार्य कि सेवा और उनके तिरुवाराधना भगवान कि पुजा कर के हीं मन्दिर में जाना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: आचार्य हीं है जो हमें भगवान के दर्शन कराते है। श्रीवैष्णव हमें आचार्य के सन्मुख कराते और भगवान के महान तत्त्वों को समझाते है। इसलिये भगवान के सन्मुख आचार्य और श्रीवैष्णव पुरुषकार से ही दर्शन प्राप्त करना चाहिये न कि स्वतंत्र रूप से। श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्त्रगीति 4.6.8 में इसे दर्शाते हुए कहते है “वेदं वल्लारगळैक कोण्डू विण्णोर पेरुमान तिरुप्पादम् पणिन्दू” – नित्य सुरियों के मार्गदर्शक श्रीभगवान के चरण कमलों की आराधना ऐसे श्रीवैष्णवों के पुरुषकार से करना चाहिए, जो वेदों में निपुण है।
  • दण्डवत प्रणाम किए बिना मन्दिर के अन्दर प्रवेश नहीं करना चाहिये।
  • मन्दिर में शरीर के उपरी भाग को उत्तरियम (कमर के ऊपर का कपड़ा) से ढक कर जाना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: हम दास है– भगवान के नौकर (दास)। दास जन अपने मालिक के सामने कभी भी अपनी छाती ढककर नहीं रखते है। यह तत्व आज भी केरल राज्य में देखा जाता है, जहाँ पुरुष अपनी कमीज निकालकर और औरते साड़ी पहनकर ही मन्दिर में प्रवेश करती है। यह प्रथा दक्षिण के कुछ दिव्य देशों में भी आज भी पालन की जाती है, जैसे वाणमामलै (तोताद्री) आदि।
  • भगवान और बलि पीठ (वह स्थान जहाँ परिवार के देवता आदि को भेंट दिया जाता है) के मध्य में आना बाधा है।
  • मन्दिर में अप्रदक्षीणा (घडी की सुई के विपरीत दिशा से) प्रवेश करना बाधा है। सन्निधीयों में प्रदक्षीणा (सीधी दिशा) से ही प्रवेश करना चाहिये।
  • मुख्य सन्निधि के बाहर की सीढियों पर सीधे पैर रखना या चलना, यह योग्य शिष्टाचार नहीं है। पेरुमाल तिरुमौली 4.9 में श्रीकुलशेखर अल्वार भगवान श्रीवेंकटेश से कहते है “पडियाय्क्किडन्दु उन पवलवाय् काण्बेने ” – मैं आपके मंदिर की मुख्य सन्निधि के प्रवेश द्वार की सीढ़ी बनकर आपके सुंदर मोती जैसे मुखारविंद का अत्यंत आनंदपूर्वक मंगलाशासन करना चाहता हूँ।
  • मंदिर के अन्य सन्निधी की पूजा किये बिना सीधे मुख्य सन्निधी में जाकर पूजा करना बाधा है। सामान्यत: अम्माजी, आचार्य / आल्वारों कि सन्निधी प्रदक्षीणा में होती है। उनकी पूजा करने के पश्चात ही मन्दिर के मुख्य सन्निधी में प्रवेश करना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: पूर्व दिनचर्या के २३वें श्लोक में श्रीएरुम्बी अप्पा उस क्रम को दर्शाते है, जिससे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीरंगम में श्रीरंगनाथ भगवान का मंगलाशासन प्रतिदिन किया करते थे। “देवी गोदा यतिपति शठद्वेशिणौ रङ्गश्रुङ्गं सेनानाथो विहग वृषभ: श्रीनिधि: सिन्धुकन्या। भूमा नीला गुरूजनवृत: पुरुष: चेत्यमीशां अग्रे नित्यं वरवरमुने: अंघ्रियुग्मं प्रपध्ये ॥ – मैं प्रतिदिन श्रीगोदाम्बाजी, श्रीरामानुज स्वामीजी, श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीरंग-विमान, श्रीविष्वक्सेनजी, श्रीगरुडजी, श्रीरंगनाथ भगवान– जो श्रीमहालक्ष्मीजी के धन है, परमपदनाथ है, श्री-भूदेवी-नीलादेवीजी और कई आचार्यों और आल्वरों से घिरे हुए है, के समक्ष श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के चरण कमलों की आराधना करता हूँ। इस श्लोक में श्रीएरुम्बी अप्पा बहुर सुन्दरता से श्रीरंगम मन्दिर और क्रम से कई अन्य सन्निधी का वर्णन करते है। यह हमारे सम्प्रदाय में एक सामान्य ज्ञान है कि भगवान के दर्शन के पहिले हम आल्वार, आचार्य, अम्माजी के दर्शन प्राप्त करते है।
  • मन्दिर के पवित्र विमान के छाया पर भी हमें पैर नहीं रखना चाहिये। ऐसा करना बाधा है – किसी को भी यह कभी भी नहीं करना चाहिये।
  • मन्दिर के द्वारपाल (जय, विजय आदि) कि आज्ञा के बिना अंदर प्रवेश नहीं करना चाहिये। सन्निधी में अन्दर जाने के पूर्व हमें तिरुपावै के १६वें पाशुर का गान करके अन्दर प्रवेश करना चाहिये “नायगनाय निन्र” – इस पाशुर में श्रीगोदाम्बाजी हमारे लिये सही शिष्टाचार स्थापित करती है कि भगवान के सन्निधी में प्रवेश करने के पूर्व हमें द्वारपाल कि आज्ञा लेनी चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: हमें प्रतिदिन अपनी तिरुमाली में अपने पेरुमाल के तिरुवाराधन से पूर्व भी, इस पाशुर के गान के पश्चात ही मन्दिर के पट खोलने चाहिये।
  • श्रीविष्वक्सेनजी की आज्ञा के बिना मन्दिर में प्रवेश करना विरोधी है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीविष्वक्सेनजी परमपदधाम में भगवान के मुख्य प्रबंधक है और भगवान के एक मुख्य नित्यसूरी है। वह हमारी गुरू परम्परा का एक अंश है, जो इस तरह है श्रीरंगनाथ भगवान, श्रीरंगनायकी अम्माजी, श्रीविष्वक्सेनजी, श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीनाथमुनि स्वामीजी आदि से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी तक। इसलिये भगवान के सन्निधी में जाने से पूर्व इनकी आज्ञा लेना ही योग्य है।
  • हमें कभी भी अपने आचार्य के सानिध्य में ही भगवान के निकट जाना चाहिये।  अनुवादक टिप्पणी: आचार्य वह है, जिन्होने हमें भगवान से हमारे पवित्र सम्बन्ध का स्मरण कराया है। हमें हमेशा उनके प्रति कृतज्ञ रहना चाहिये और भगवान के दर्शन उनके जरिये ही करना चाहिये। अपने तिरुमाली के भगवान के तिरुवाराधना करते समय भी हमें अपने हाथो को आचार्य के हाथ समझकर ही उनके निमित्त तिरुवाराधना करना चाहिये।
  • सन्निधी के अन्दर बिना कोई संकोच मध्य में से प्रवेश करना बाधा है। हमें सन्निधी में बड़े श्रद्धा और नम्रता पूर्वक बगल से प्रवेश करना चाहिये।
  • अगर कोई कमरा दाहिनी ओर है, तो बायें तरफ जाकर वहां भगवान की पूजा करना करना बाधा है।
  • सांसारी लोगों के समूह में भगवान कि पूजा करना बाधा है। जितना हो सके इससे बचना चाहिये।
  • सदा भगवान के चरण कमलों से प्रारम्भ कर उनके पवित्र मस्तक तक उन्हें निहारते हुए तब तक दर्शन करना चाहिए जब तक अपने हृदय और नेत्र को संतुष्टी प्राप्त न हो। ऐसा न करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: भगवान कि आराधना करने का एक उच्च उदाहरण है श्रीपरकाल स्वामीजी द्वारा भगवान की आराधना। उन्होंने अमलनाधिपिरान की रचना कि जो भगवान रंगनाथ के पवित्र अंगों के विषय में वर्णन करते है। अन्त में वह प्रार्थना करते है कि वह आंखें जिन्होंने भगवान रंगनाथ को देखा और पसन्द किया है, वो और कुछ नहीं देखेंगी। ऐसा हमारा भाव रहना चाहिये।
  • भगवान कि पूजा तिरुपल्लाण्डु और अन्य दिव्य प्रबन्ध के पाशुरों को गाकर (उस दिव्य देश से सम्बन्धित आदि) और पूर्वाचार्य के स्तोत्र के साथ करनी चाहिये।
  • हमें सांसारिक लोगों के जैसे सांसारिक लाभ के श्लोक आदि गान कर पूजा नहीं करनी चाहिये।
  • भगवान से कोई सांसारिक लाभ प्राप्त होगा इस उद्देश से उनकी पूजा नहीं करनी चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: श्रीसरोयोगी स्वामीजी मुदल तिरुवंदादि में समझाते है कि “एलुवार विडैगोल्वार ईन तुलायानै वलुवा वगै निनैन्दु वैगल तोलुवार विनैच्चुडरै नन्दुविक्कुम वेङ्गटमे वानोर मनच्चुडरैत्तूण्डुम मलै” – वेंकटेश्वर भगवान के समीप तीन प्रकार के लोग जाते है – वह जो सांसारिक लाभ को देखते है, वह जो कैवल्य को देखता है और अन्त: में वह जो नित्य कैंकर्य को देखता है। ऐसे तीन प्रकार के जनों के लिये तिरुवेंकट का पहाड़ ही सभी बाधाओं को दूर कर देगा (उन्हें प्राप्त करने वाले इच्छाएं)। इस तीनों प्रकार के प्राणियों में हमें इस प्रकार रहना चाहिये “इन तुलायानै वलुवा वगै नीनैन्डू वैगल तोलुवार” – वह जो दोषरहित होकर निरन्तर भगवान कि पूजा करता है।
  • भगवान कि पूजा करते समय मन पूरी तरह भगवान पर ही केन्द्रीत रहना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है।
  • पूजा करते समय मन भगवान पर ही निश्चित/ दृढ रहना चाहिये। उसे मक्खी के तरह नहीं रहना चाहिये जो नये बर्तन पर नहीं बैठती क्यूंकि उस पर कोई खाने का पदार्थ नहीं होता है।
  • मन्दिर में भगवान के तिरुवाराधना और भगवान को भोग लगाने के पश्चात प्रसाद परिवार के देवताओ को बलि पीठम में दिया जाता है। उसके पश्चात शातुमोरा (पासुरोंका पाठ पूर्ण किया जाता है) होता है। मध्य में (अर्थात तिरुवाराधना के पश्चात) किसी को भी उठकर नहीं जाना चाहिये।
  • धुपं (सुगंध), दीपं, तिरुवंधिक्काप्पु (बुरी नज़र को मिटाने के लिये की गयी आरती), भगवान को भोग लगाने आदि के समय, हमें भगवान की उस उपचार (सेवा) पर ध्यान देना चाहिये और उस सेवा के समय उन पाशुरों का अनुसंधान करना चाहिये। ऐसा न करना और दूसरी ओर अपना ध्यान केन्द्रीत करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: जीयर पड़ी तिरुवाराधना क्रम में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बहुत ही सुन्दरता से तिरुमाली में तिरुवाराधना कैसे करना चाहिये इस बात को दर्शाते है। जब भी तिरुवाराधना किया जाता है श्रीवैष्णव जन बहोत समय तक कई पाशुरों का अनुसंधान करते है। तिरुमंजन के समय पञ्च सूक्तं, श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी के तिरुमोली से “वेण्णेय अलैन्था कुणुंगुम” दशकम् आदि। भगवान के श्रुंगार के समय, उन्हें चन्दन का लेप लगाने के समय हमें गंधत्वारम (श्रीसूक्तं) श्लोक, पूसुम चांतु (श्रीसहस्त्रगीति) पाशुर। आभूषण और माला धारण कराते समय “स्फूरत्किरिटांग हारकंठिका” (स्तोत्र रत्न) श्लोक, “चूट्टू नल् मालैगल” (तिरुविरुत्तम) गाना चाहिये। धुपं अर्पण करते समय “परिवतिल इसनैप्पाडि” (श्रीसहस्त्रगिती) से गाया जाता है। दीपं अर्पण करते समय “वैयम तगलिया” (मुदल तिरुवंतादी), अन्बे तगलिया (इरण्डाम् तिरुवंतादी), तिरुक्कण्डेन (मून्राम् तिरुवंतादी) गाया जाता है। आरती के समय, इन्दिरनोडु बिरमन (पेरियालवार तिरुमौली दशकम् जहाँ श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी, तिरुवेल्लारै पेरुमाल के प्रति अपना अत्यंत स्नेह प्रकट करते है) दशकम् गया जाता है। मंदिरों मे जब भगवान के लिए तरह तरह के उपचार किए जाते है, तब उस पर हमारा पूरा ध्यान होना चाहिए और उस सेवा में उचित पाशुरों का अनुसंधान करना चाहिए।
  • भगवान के अर्चा विग्रह पर ध्यान ना देकर हमें सांसारिक नाच और गाने पर ध्यान केन्द्रीत नहीं करना चाहिये।
  • भगवद / आचार्य / आल्वारों के सन्निधी में बुझते दिये को देख उसे तुरन्त सही करना चाहिये और अधिक तेज से भी नहीं रखना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है। कृपया वचन भूषण का ३८२ सूत्र कि व्याख्या देखे, जहाँ ललीता चरित्र पर चर्चा की गयी है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीवचन भूषण में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी एक पुराण के चरित्र को बताते है कि एक चूहा आकस्मिक एक बाती को दिये में ढकेलता है और अचानक उस दिये कि चमक अधिक हो जाती है और आगे वह सुंदर लड़की ललीता के नाम से जन्म लेता है जो काशी के राजा से विवाह करती है। उसके पिछले जन्म के कर्म के कारण उसे भगवान के पास जलते दीपक से अधिक लगाव हो जाता है। हम प्रपन्न को कुछ आशा के बदले में कोई कैंकर्य नहीं करना चाहिए जैसे अच्छा जन्म आदि। भगवान से स्वाभाविक प्रेम भक्ति के कारण हमें कैंकर्य करते रहना है।
  • जमीन पर धूल देखकर (भगवान\ आचार्य\ आल्वार के सन्निधि मे) उसे साफ न करना बाधा है। श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्त्रगीति में कहते है “कडैत्तलै चिय्क्कप्पेट्राल् कडुविनै कलैयलामे” – किसी के भी पाप भगवान के मन्दिर में पोछा लगाने से मिट जाते है। अनुवादक टिप्पणी: तिरुक्कण्णमंगै आन्डान सब कुछ त्याग करने के लिये प्रसिद्ध है और तिरुक्कण्णमंगै भक्तवत्सलन भगवान के सन्निधी में हमेशा रहे। उन्हें मन्दिर में झाडु लगाने के कैंकर्य में बहुत लगाव था और उस कैंकर्य को निरन्तर करते थे। नाचियार तिरुमोझी के पहिले पाशुर में श्रीपेरियवाच्चन पिल्लै दर्शाते है कि तिरुक्कण्णमंगै आणडान झाडु लगाने के कैंकर्य को अन्तिम लक्ष्य मानते थे (कुछ पाने के लिये नहीं)।
  • श्रीसहस्त्रगीति के व्याख्या में श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी बड़ी सुन्दरता से एक मुख्य बात को स्थापित करते है। इस पाशुर में श्रीशठकोप स्वामीजी भगवान से कहते है “हम कई पीढी से बहुत भिन्न भिन्न कैंकर्य करते है जैसे मन्दिर में सफाई करना आदि”। यहाँ एक प्रश्न आता है। प्रपन्न पूर्ण रूप से भगवान को हीं उपाय मानते है। उनका कोई निजी प्रयास में हस्तक्षेप नहीं है – इसलिये कैंकर्य क्यों करना? यह श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी ने बड़ी सुन्दरता से इस घटना से बताया है जिसमे तिरुक्कण्णमंगै आण्डान शामिल है।   एक सहपाठक जो नास्तिक बन गया आण्डान से पूंछते है कि वें क्यों अपने आपको जमीन का पोचा लगाने के कार्य में कष्ट दे रहे है जब की उनका स्वयं कोई प्रयास नहीं है। आण्डान उन्हें एक स्थान बताते है जहां धूल है और एक स्थान जहां धूल नहीं है – वह कहते है इसका परिणाम और कुछ नहीं बल्कि वह स्थान साफ हो जायेगा और कुछ नहीं। वह पूंछते है कि “क्या तुम्हें स्वच्छ और गंदे स्थान में फर्क नजर नहीं आता है क्या?”। अत: हम यह समझ सकते है कि कैंकर्य करना दासों का प्राकृतिक कार्य है और वह कैंकर्य उपाय नहीं बन जाता है। श्रीवचन भूषण में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी ८८वें सूत्रं में बड़ी सुन्दरता से समझाते है “अगर एक सांसारिक जीव अपने सांसारिक इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु कितने कार्य करता है तो एक प्रपन्न को भगवान कि सेवा करने हेतु कितनी इच्छा होनी चाहिये जो की सर्वश्रेष्ठ है और योग्य सेवा करना जीवात्मा का सच्चा स्वभाव है?”
  • भगवान के धारण किये वस्त्र, आभूषण, हार आदि देख हमें यह सोचना चाहिये कि यह भगवान के है परंतु यह विचार नहीं करना चाहिये कि “बहुत अच्छा होता अगर मैं इन्हें धारण करता”।
  • भगवान भोग को स्वीकार किये बिना और हमें प्रसाद रूप में दिये बिना भगवान के सामने लगा भोग देखकर मुह में पानी लाना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: स्वाभाविकता से सब कुछ भगवान का ही है और वों हीं सब कुछ का रस ले सकते है। उन्हीं के कृपा से वह सब कुछ पाते है और अपने शेष से कृपा करते है। हमें यह सब कुछ प्रदान करने हेतु हमें उनका कृतज्ञ रहना चाहिये। क्योंकि भगवद्गीता में यह कहा गया है भगवान को भोग लगाये बिना पाना वैसे हीं है जैसे पाप को खाना। इसलिये जो भगवान के लिये बनाया गया है उस प्रसाद पर भगवान से पहिले हम उसे ग्रहण करें इस उद्देश से दृष्टी डालना यह बहुत बड़ा पाप है।
  • नीचे बताइ गयी बातों को मन्दिर के अन्दर नहीं करना चाहिये –
    • पैरों को फैलाना – पैरों को हमेशा मोड़कर रखना चाहिए।
    • वस्त्र (धोती आदि) को उपर की तरफ नहीं मोड़ना चाहिए – उसे सही तरीके से पहनना चाहिए।
    • उबासी / जम्हाई लेना
    • हाथों / पैरों से आलस्य कि अंगड़ाई लेना
    • सिर को हिलाके बालों को नीचे गिराना
    • नाख़ुन को तोड़ना / काटना
    • छींकना, नाक से बलगम को बाहर निकालना
    • थूकना
    • पान, सुपारी, तम्बाकु आदि खाना
    • शरीर के उपरी भाग को वस्त्र से ढकना
    • सोना, उबासी लेना
    • फालतु बाते करना
    • जोर से ताली बजाते हँसना
    • किसी को बुलाने के लिये ज़ोर से आवाज देना
    • दूसरों को ड़ाटना
    • दूसरों पर घुस्सा होना
    • नम्रता बिना अभिमान करना
  • मन्दिर में सांसारिक जनों से बात करना और श्रीवैष्णवों कि ओर ध्यान न देना।
  • भागवतों कि सेवा किये बिना भगवान कि सेवा करना।अपने स्वयं के आचार्य के कैंकर्य से बचना। अनुवादक टिप्पणी: उपदेश रत्नमाला में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ६४वें पाशुर में एक मुख्य तत्व को बताते है। वह कहते है “कोई भी अपने आचार्य कि सेवा तभी कर सकता है जब उसके आचार्य इस संसार में है। यह समझने के पश्चात भी अगर कोई अपने आचार्य कि सेवा न करें तो हम क्या कहे?”
  • हमें अपने आचार्य के पीछे उनकी परछाई की तरह जाना चाहिये और हमेशा उनकी सेवा करनी चाहिये। श्रीगोविंदाचार्य स्वामीजी की “रामानुज पद छाया” – श्रीरामानुज स्वामीजी के चरण कमल कि परछाई ऐसे स्तुति होती है। हम श्रीमहदयोगी स्वामीजी के पेरिय तिरुमोझी के अन्तिम पाशुर कि अन्तिम पंक्ति को देख सकते है “चायै पोलप्पाड वल्लार तामुम अणुक्कर्गले”। अनुवादक टिप्पणी: इस पाशुर के व्याख्या में श्रीपेरियवाचान पिल्लै एक सुंदर घटना को समझाते है। कुछ श्रीवैष्णव जन श्रीगोविंदाचार्य स्वामीजी के पास जाकर इस वाक्य का अर्थ समझाने को कहते है। इस पंक्ति का यथाशब्द अनुवाद है “जो परछाई कि तरह गा सकते है वें भगवान के प्रिय दास है” – परन्तु यह स्पष्ट नहीं दिखता है। श्रीगोविंदाचार्य स्वामीजी कहते है “मैंने श्रीरामानुज स्वामीजी से इसका अर्थ नहीं सुना है और वे अभी श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी से मिलने गये है। परन्तु क्योंकि आपने हमें यह पूछा है तो मुझे आपको समझाना है” और श्रीरामानुज स्वामीजी के चरण पादुका को लेकर अपने सिर पर रख और कुछ पल के लिये ध्यान करते है। कुछ पल बाद अपने नेत्र खोल कर और यह कहते है “अब श्रीरामानुज स्वामीजी ने मुझे इसका अर्थ बताया है आप सुन सकते है। इसे इस तरह लिया जाना चाहिये कि पाद वल्लार – चायै पोल – तामुम अणुक्कर्गले अर्थात जो इन पाशुरों को गा सकता है वो मेरी परछाई जैसे बन जायेगा और मेरे बहुत प्रिय रहेगा”।

-अडियेन केशव रामानुज दासन्

आधार: https://granthams.koyil.org/2014/02/virodhi-pariharangal-15/

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