लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियां – ५

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियां

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नम्पिळ्ळै – तिरुवल्लिक्केणि

४१) अव्यतत्तिनुडैय व्यक्ततदशैयिरे महानागिरतु

मूल प्रकृति प्रथम तत्त्व है | ऐसी प्रकृति के तीन गुण हैं : सत्त्व, रजस, तमस | प्रकृति केअव्यक्त स्थिति को अव्यक्त कहते हैं| इस स्थिति मे तीनो गुण (सत्त्व, रजस, तमस) समान मात्रा मे रहते हैं | जब ऐसे अव्यक्त स्थिति मे तीनो गुणों की मात्रा असमान होती है तब प्रकृति की व्यक्त स्थिति प्रदर्शित होती है | ऐसे व्यक्त स्थिति को महान कहते हैं |

अनुवादक टिप्पणी : स्वामी पिळ्ळै लोकाचार्य स्वग्रन्थ ” तत्त्व त्रय ” को ” कुट्टि भाष्य ” कहते हैं | यह ग्रन्थ श्रीभाष्य के विभिन्न अंशों को संक्षिप्त रूप मे प्रकाश करती है | श्रीमद्वरवरमुनि जी ने इस ग्रन्थ पर स्वभाष्य लिखकर महद्योगदान दिया है | इस प्रकार से वेद के सार को स्वभाष्य मे सरल भाव से प्रकाशित करते है | संक्षिप्त विवरण आप के लिये यहाँ ” https://granthams.koyil.org/thathva-thrayam-hindi/” उपलब्ध किया गया है | अचित विषय का संक्षिप्त विवरण यहाँ उपलब्ध है :                                       ” https://granthams.koyil.org/2016/07/17/thathva-thrayam-achith-what-is-matter-hindi/” |

४२) सात्त्विकमायुम् राजसमायुम् तामासमायुम् मून्रु वगैप्पत्तिरे अहङ्कारन्तनिरुप्पतु

अहङ्कार ही बद्ध जीवों को भ्रमित करता है जिससे हम अपने शरीर को आत्मा मान लेते है | अहङ्कार २४ तत्त्वों मे से एक तत्त्व है | यह तत्त्व प्रकृति के व्यक्त स्थिति से उत्पन्न होता है | अहङ्कार तीन प्रकार का होता है : सात्त्विक, रासजिक, तामसिक |

अनुवादक टिप्पणी : अहङ्कार अर्थात् ” अनात्मनि आत्म बुद्धि ” – माने जो आत्मा न हो उसको आत्मा मानना व शरीर को आत्मा मानना अविवेकता एवं अज्ञानता कारण | यह आध्यात्मिक मार्ग मे सबसे बडा विरोधि है | जब तक हम शरीर और आत्मा को भिन्न एवं स्वयं को शरीर नही मानेंगे, तब तक सुनी आध्यात्मिक वचन प्रभावशाली नही होंगे और हमारे सोच कि बुनियाद असत्य ही रहेगी क्योंकि हमारी पहचान असत्य के पर्दे से घिरा हुआ है | भगवद् गीता के दूसरे अध्याय मे, भगवान् श्रीकृष्ण सर्व प्रथम आत्मा का रहस्य एवं आत्मा का स्वभाव समझाते है | बारहवें श्लोक ” नत्वेवाहं ” मे, भगवान् श्रीकृष्ण कहते है जीवात्मा स्थायी है और शरीर अस्थायी है | इसी श्लोक मे भगवान् बहु जीवत्व (जीव असंख्य) है, प्रत्येक जीव का अलग व्यक्तिगत पहचान और जीवात्मा एवं परमात्मा का भिन्नत्व तत्त्व को दर्शाते है | कृपया अधिक जानकारी के लिये यह लिंक क्लिक कर पढे :

https://granthams.koyil.org/2016/07/17/thathva-thrayam-achith-what-is-matter-hindi/

४३) सात्विक अहङ्कार कार्यम् एकादश इन्द्रियङ्गळ् | तामसाहङ्कार कार्यम् पृथिव्यादि भूतङ्गळ् | इरण्डुक्कुम् उपकारमाय् इरुक्कुम् राजस अहङ्कारम् |

सात्विक अहङ्कार से एकादश इन्द्रियोत्पन्न होते है (पञ्च ज्ञानेन्द्रिय : कर्ण(कान), त्वचा (शरीर), चक्षु, जीब (जिह्वा), नाक (नासिका) ; पञ्च कर्मेन्द्रिय : वाक (मुह), हस्थ (हाथ), पाद (पैर), उत्सर्गी इन्द्रिय, उपस्तिन्द्रिय (उत्पादन संबन्धित इन्द्रिय) ; मन (मनस) | तामसिक अहङ्कार से पञ्च भूतेन्द्रियोत्पन्न होते है (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) | राजसिक अहङ्कार, सात्त्विक एवं तामसिक अहङ्कार के कार्यों मे अपना सहयोग देता है |

४४) किट्टिनार्क्कु साम्यापत्तिरयिरे फलम्

परमपद नाथ – श्रीमन्नारायण एवं परमपद घोष्टि

जीवात्मा के लिये निज उद्देश्य उस परमपदनाथ को प्राप्त करना है | ऐसे जीव जो भगवद्धाम प्राप्त करते है उनको साम्यापत्ति (साम्य मोक्ष) जैसे तिरुमङ्गैयाळ्वार पेरिय तिरुमोळि ११.३.५ पासुर मे कहते है : तम्मैये ओक्क अरुळ् चेय्वर् अर्थात् भगवान् उस जीव पर अनुग्रह कर अपने गुण देते है |

अनुवाद टिप्पणी : साम्यापत्ति मोक्ष (साम्य मोक्ष) का अर्थ है कि भगवद्कृपा से जीव परमपद मे आठ विषेश गुण प्राप्त करता है जो भगवान् मे स्वयं है | इन गुणों के अलावा, ऐसे कुछ विषेश गुण है जो केवल भगवान् मे ही है जैसे – श्रिय: पतित्व, शेषशायित्व, उभयविभूतिनाथत्व इत्यादि |

उपरोक्त आठ गुण है :

  • १) अपहतपाप्मा : सभी प्रकार के दोषों के मुक्त (दोष रहित)
  • २) विजर : वृद्धापन से मुक्ति (सदैव युवावस्था मे रहना) यौवनत्व
  • ३) विमृत्यु : मृत्यु के मुक्ति (अमरत्व)
  • ४) विशोक: शोक के मुक्ति
  • ५) विजिगट्स : भूख से मुक्ति
  • ६) अपिपास : प्यास से मुक्ति
  • ७) सत्यकाम : सभी प्रकार के इच्छाओं कि पूर्ति
  • ८) सत्यसङ्कल्प : सभी प्रकार के कार्यों को करने कि क्षमता

४५) मुक्तर् पञ्च विंशति वार्शिकरायिरुप्पर्गळिले – निरन्तर भगवदनुभवत्ताले

नित्य निरन्तर भगवदनुभव करने वाले मुक्त जीव 25 वर्षीय ही रहते है अर्थात नित्ययौवनावस्था प्राप्त करते है |

अनुवादक टिप्पणी : नित्य भगवदानुभव करने वाले, आध्यात्मिक यौवनावस्था भगवदानुग्रह से प्राप्त करते है | यह निदर्शन है कि कैसे नित्य पार्षद एवं मुक्त जीव सदैव यौवन रहते है | उदाहरणार्थ :

  • श्री दशरथ महाराज, नित्य भगवान् श्रीरामचन्द्र के सौन्दर्य लावण्य को देखकर आत्मानंद प्राप्त कर रहे थे जिसका फलस्वरूप उनको यौवनावस्था प्राप्त हो रही थी | ऐसी प्राप्त यौवनावस्था का उल्लेख स्वामी कुलशेखर आळ्वार स्व पेरुमाळ् तिरुमोळि के ९.४ वें पासुर ” वा पोगु वा ” मे करते है |

  • श्री तिरुप्पावै के ग्यारहवें पासुर “कट्ट्रक्करवै” मे भी यही भाव का प्रसतुतिकरण हुआ है श्री गोदाम्बा अम्मा जी द्वारा | कट्ट्र : गाय का बछड़ा, करवै : दूध देने वाले गाय ! यहाँ एक प्रश्न उठता है कि कैसे गाय का बछड़ा दूध देने योग्य है ? कैसे यह सम्भव है ? इसका समाधान श्री अळगिय मणवाळ पेरुमाळ् नायनार इस प्रकार से करते है : जिस प्रकार नित्य त्रिपादविभूति धाम मे मुक्त एवं नित्य पार्षद सदैव यौवनावस्था मे रहते है ठीक उसी प्रकार इस धाम के गाय भी अपने यौवनावस्था के कारण बछड़े के समान होकर भी दुग्ध धारा बहाते है केवल भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य स्पर्श से |

४६) क्षुद्र विषयङ्गळाय् अनुभविक्पुककाल् , अवै अल्पास्थिरत्वादि दोष तुष्टमागैयाळे , अनुभविक्कुम् कालमुम् अल्प आयिरुक्कुम्

भगवद् विषय के परिधि के बाहर आने वाले समस्त विषय (क्षुद्र विषय) अल्पायुषी, अनित्य, अशाश्वत, तुच्छ है |

४७) अनुभाव्य विषयम् अपरिच्छिन्नमागैलाये कालमुम् अनन्तकालमाय् इरुक्कुम्

श्री शठकोप सूरि तिरुक्कुडन्दै आरावमुदन् भगवान् को नित्य असीमित अबाधित अमृत रस से सम्बोधित करते हैं

क्योंकि भगवान् असीमित हैं, उनके प्रति की गई सेवा (कैङ्कर्य) भी असीमित है अर्थात् नित्य होती ही रहेगी

४८) माता पिताक्कळ् कुरैवालर् पक्कलिलेयिरे इरङ्गवतु

जैसे शारीरिक व मानसिक विकलांगता से बाधित सन्तान के प्रति माता-पिता ज्यादा अनुरक्त और चिन्तित रहते हैं ठीक उसी प्रकार भगवान् भी भौतिक जगत् मे पीडित बद्ध जीवों के प्रति चिन्तित एवं अनुरक्त रहते हैं |

अनुवादक टिप्पणी : नित्य एवं मुक्त पार्षद, सम्पूर्ण ज्ञानमयी है एवं परिपूर्ण रूप से भगवद्-कैङ्कर्य मे संलग्न है परन्तु बद्ध जीव भौतिक जगत् मे बाधित एवं पीडित हैं | क्योंकि भगवद्-कैङ्कर्य सभी जीवों का समान हक है, बद्ध जीव भी इसका सदुपयोग कर स्वरूप, स्वस्वरूप ज्ञान से भगवद्दास होकर भगवान् श्रीमन्नारायण का स्वामित्व स्वीकर करने से उसका आत्मोज्जीवन होगा अन्यथा कालरूप संसार चक्र मे पुनरागमन अवश्य होगा | ऐसे अचेतनता वश मे गिरा हुआ बद्ध चेतन के लिये भगवान् का उद्यम को देखिये :

  • सृष्टि करना
  • जीवों को शरीर व इन्द्रिय प्रदान करना
  • ज्ञान प्रदान करना
  • जीवों का साथ देना – अन्तर्यामी ब्रह्म के रूप मे
  • भगवद् श्वासोत्पन्न नित्य शास्त्र प्रदान करना
  • भौतिक जगत् मे यथावत धर्म वृद्धि, भगवद् भक्त संरक्षणार्थ, अधर्म विनाशार्थ अवतरित होना (अवतार लेना)
  • करुणामय आळ्वार, आचार्यों का भौतिक जगत् मे सुसाध्य आगमन करना बद्ध जीवों के लिये

उपरोक्त विषयों को स्वामी पिळ्ळै लोकाचार्य श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के ३८१ सूत्र ” त्रिपाद विभूतियिळे परिपूर्ण अनुभवम् नडवा नीर्क ” और अगले चन्द सूत्रों मे दर्शाते हैं | ये सूत्र भगवान् कि निर्हेतुक कृपा तत्त्व को सविस्तार पूर्वक प्रतिपादित करते हैं | श्री वरवरमुनि अपनी व्याख्या मे और विस्तृत रूप से इस विषय को समझाते हैं |

४९) तेळिविसुम्बागैयाले अन्निलम् ताने सोल्लुविक्कुम् | इरुळ् तरुमा ज्ञालमागैयाले इन्निलम् अत्तैत् तविर्पिक्कुम् |

त्रिपादविभूति श्रीवैकुण्ठ धाम अनन्त असीमित आनन्द व निष्कलंक ज्ञान का आलय है | अत: यह स्वभावतः सभी जीवों को भगवान् श्रीमन्नारायण का नित्य गुणगान (साम गान, भगवन्नाम सङ्कीर्तन इत्यादि) करने मे संलग्न करता है | इसके विपरीत मे देखा जाये तो सांसारिक जगत् मे केवल अज्ञान है जिसकी वजह से सभी जीव सांसारिक व इन्द्रिय तृप्ति विषय मे ही व्यस्त रहते हैं जो तुच्छ है |

५०) भगवन्नाम सङ्कीर्तननुम् भागवत सहसवासमुम् सत्तयातारकम्

भगवद् भक्तों (भागवतों) के सहवास मे (सत्सङ्ग मे) अन्य भगवद्भक्त भगवन्नाम सङ्कीर्तन और कैङ्कर्य परायणता से आत्मोज्जीवन करते हैं (अपना जीवन व्यापन करते हैं) |

पूर्ण लिङ्क यहाँ उपलब्ध है : https://granthams.koyil.org/divine-revelations-of-lokacharya-hindi/

अडियेन् सेट्टलूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तीक रामानुज दास

आधार – https://granthams.koyil.org/2013/08/divine-revelations-of-lokacharya-5/

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