द्रमिडोपनिषत प्रभाव् सर्वस्वम् 5

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्री वानाचलमहामुनये नमः

द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्

<< भाग 4

 

आल्वार और भगवद रामानुज स्वामीजी 

श्री वरवरमुनी स्वामीजी

श्री वरवरमुनी स्वामीजी कहते हैं, “यह वास्तव में रामानुज दर्शन है, जैसे श्री शठकोप स्वामीजी ने बताया था।” श्रीवैष्णव संप्रदायेतर संप्रदाय भी यह मानते हैं की देशव्यापी (और विश्वव्यापी) भक्ति आंदोलन श्री रामानुज स्वामीजीने जो बीज बोये थे उसी के कारण प्रचलन में है। इसलिए यह महत्त्वपूर्ण है की हम द्रमिडोपनिषत का वैभव हमारे स्वामीजी के ग्रंथोंके माध्यम से समझें।

पिछले लेखोंमें श्री रामानुज स्वामीजी का आ वर्णन एक शिक्षक तथा एक दिव्य प्रबंध के विद्यार्थी के रूप में, आल्वारोंके आश्रित के रूप में, और अपने अनेक शिष्योंके माध्यम से संप्रदाय का प्रचारक के रूप में किया गया।

12 आल्वार

आने वाले लेखोंमें, हम श्री रामानुज स्वामीजी और श्री आल्वारोंके कार्य में सीधा संबंध का अनुभव करेंगे।

श्री रामानुज स्वामीजी के साहित्य की और उनके व्याख्यानोंकी एक विशेषता है। जब भी भगवान का विषय आता है तो श्री रामानुज स्वामीजी आल्वारोंके तरह भगवान के स्वरूप, अनन्त दिव्य कल्याण गुण, उनकी दिव्य लीलाओं का विषद वर्णन करना प्रारम्भ कर देते हैं। ऐसा एक भी अवसर नही जहाँ उन्होने ऐसा करनेमें संकोच किया हो। वे भगवान का विषद अनुभव करते हैं, जिससे पाठक और श्रोता के मन में दिव्य परमानन्द प्राप्त हो। आल्वारोंके कृपा पात्र होने के कारण श्री रामानुज स्वामीजी भगवद अनुभव करनेका कोई भी अवसर छोड नहीं सकते। जिन्हे इस दिव्य आनंद का अनुभव लेना हो, उन्हे श्रीभाष्य, श्री गीताभाष्य, और श्री गद्यट्राय अवश्य पढ़ना चाहिए।

मन्मना भव!

भगवान श्री कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ९ में कहते हैं:

मन्मना भव मद्भक्तो  मद्याजी  माँ  नमस्कुरु ।

मामेवैश्यसी यूक्तैवमात्मानं मत्परायणम् ॥

सरल शब्दार्थ है: “तेरा मन मुझमें स्थिर कर, मेरा भक्त बन, मेरी सेवा कर, मुझे प्रणाम कर, अंतिम लक्ष्य की तरह मेरा अनुभव कर। इस प्रकार मन को बनानेसे तू केवल मुझे ही प्राप्त करेगा।”

श्री मध्वाचार्यजी
श्री शंकराचार्य

“मन्मना भव” का अर्थ है, तेरा मन मुझमें स्थिर कर। यह शब्द इतने सरल प्रतीत होते हैं की श्री मध्वाचार्यजी  नें इसका विशेष गौर नहीं किया। श्री शंकराचार्य लिखते हैं, “मयि वासुदेवे मनः यस्य तव स त्वं मन्मना भव”। सीधे अर्थ के साथ साथ उन्होने विशेष बात यह बताई की “मैं” का अर्थ “वासुदेव” है। “तेरा मन मुझ वासुदेव में स्थिर कर”। श्री शंकराचार्य “मैं” को विशेष महत्त्व देकर “मैं” का अर्थ वासुदेव बताते हैं। यह विश्लेषण इन सरल शब्दोंके लिए पर्याप्त प्रतीत होते हैं।

 

परंतु, श्री रामानुज स्वामीजी का विश्लेषण सुन किसी पाषाण हृदय वालेको भी अश्रु आजायेंगे।

मन्मना भवमयि सर्वेश्वरे निखिलहेयप्रत्यनीककल्याणैकताने सर्वज्ञे सत्यसङ्कल्पे निखिलजगदेककारणे परस्मिन् ब्रह्मणि पुरुषोत्तमे पुण्डरीकदलामलायतेक्षणे स्वच्छनीलजीमूतसंकाशे युगपदुदितदिनकरसहस्रसदृशतेजसि लावण्यामृतमहोदधौ उदारपीवरचतुर्बाहौ अत्युज्ज्वलपीताम्बरे अमलकिरीटमकरकुण्डलहारकेयूरकटकभूषिते अपारकारुण्यसौशील्यसौन्दर्यमाधुर्यगाम्भीर्यौदार्यवात्सल्यजलधौ अनालोचितविशेषाशेषलोकशरण्ये सर्वस्वामिनि तैलधारावदविच्छेदेन निविष्टमना भव!

 

श्री कृष्ण और अर्जुन

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से नित्य भगवान का स्मरण करना, भगवान का भक्त बनना, भगवान से प्रेम करना, भगवान के भक्ति करनेको कहते हैं। भगवान कहते हैं की ऐसा करनेसे अर्जुन को उसका अंतिम लक्ष्य याने भगवान प्राप्त हो जाएँगे। व्याख्यान करने वाले को यहाँ सरल शब्दार्थ से ज्यादा क्या करना चाहिए? श्री रामानुज स्वामीजी उससे आगे बढ़ते हैं और भगवान के समस्त दिव्य कल्याण गुणोंका वर्णन करते हैं। क्या भगवान अर्जुन को यह सब भावरहित उपासना की तरह करने को कहते हैं? वो उसे भगवान को पूर्ण प्रेम करनेको और मन को भगवान को समर्पित करनेको कहते हैं। श्री कृष्ण कौन हैं? क्या वो एक सामान्य शिक्षक हैं जो अपने विद्यार्थी को कुछ करनेको कह रहे हैं? वो पूर्ण पुरुषोत्तम सर्वोच्च परब्रह्म भगवान हैं, जो अति सुंदर हैं, अति पवित्र हैं, अति आश्चर्यजनक हैं, और ऐसे हैं जिनके विचार से ही भक्त का हृदय गद् गद् हो जाता है और वे परमानन्द प्राप्त करते हैं। श्री कृष्ण सब चेतन-अचेतन मात्र के भगवान हैं। तो भी वे सुलभ हैं और कृपालू हैं। जिस तरह भी आप उनके पास देखो, भगवान से भिन्न और प्रेम और सेवा के योग्य कौन हो सकता है?

अर्जुन के लिए, यह स्पष्ट है। तो भी श्री रामानुज स्वामी यह विषयका विशेष रूप से वर्णन करना चाहते हैं। श्री आल्वारोंके कृपापात्र और उनके परंपरा में आनेवाले श्री रामानुज स्वामीजी आप खुद ही भगवान में पूर्ण रूप से समर्पित हैं, वो भगवान को विशेष प्रेम करते हैं, और अपना मन भगवान में दृढ़ करते हैं। श्री कुरेश स्वामीजीने रामानुज स्वामीजी का वर्णन इस प्रकार किया है, “नित्यमच्युतपदाम्बुजयुग्मरुक्मव्यामोह”। अत: इन शब्दोंके केवल उच्चारण से ही दिव्य अनुभव प्रारम्भ हो जाता है। श्रोताओं और पाठकों के हृदय में भक्ति का संचार करनेकी शक्ति उनमें हैं, जो भगवान श्री कृष्ण का उद्देश्य है। संक्षिप्त में श्री रामानुज स्वामीजी ३ कार्य एक साथ करते हैं, “भाष्यकार, आचार्य, और प्रेमी भक्त”। जब भगवान श्री कृष्ण के शब्द आल्वारोंके दिव्य प्रबंधोंमें निरत आचार्य (श्री रामानुज स्वामीजी) के हृदय से मिलते हैं तो फल अतिविशेष होता है।

“तेरा मन मुझमें स्थिर कर” मैं अर्थात जो सभी देवताओंके भी भगवान हैं, जो दोष रहित हैं, दिव्य कल्याण गुणोंके भंडार हैं, जो अंतर्यामी परमात्मा हैं, जिनका संकल्प सत्य होता है, जो समस्त चराचर विश्व के एकमात्र कारण हैं, जो परब्रह्म है, जो सर्वोच्च हैं, जिनके नयन अभी अभी खिले हुये कमलदल के समान हैं, जिनके दिव्य स्वरूपमें अद्वितीय तथा निर्दोष नीले रंग की छटा है, जिनका स्वरूपमें सहस्रो सूर्योंकी कान्ति है, जो रूप के महासागर हैं, जिन्हे चार शक्तिशाली एवं मनोहर भुजाएँ हैं, जो चमकीला पीताम्बर धारण करते हैं, जो मुकुट, कुंडल, कंठहार, बाजूबंद, नूपुर आदि अनेक आभूषणोंकों विभूषित करते हैं, जिनका प्रेम अद्वितीय है, जो सुलभ हैं, जो अतिसुंदर हैं, जो मधुर हैं, जो महान हैं, जो अपार करुणा के सागर हैं, जो प्रेममय और दयावान हैं, जो सब के लिए एकमात्र शरण्य हैं, जो सबके भगवान हैं। अर्जुन, तेरा मन मुझमें अविरल तैलधारा के समान स्थिर कर।

इस व्याख्या से श्री रामानुज स्वामीजी भक्ति के कारणोंकी सुंदर रचना करते हैं – जैसे उनका दिव्य मनोहर स्वरूप, उनका प्रभुत्व, उनके आनंदमय एवं पवित्र कल्याण गुण, इत्यादी – और अपने शिष्योंके हृदय को लुभाते हैं। वे उन्हे परमानंद की अवस्था में पहुंचादेते हैं, जहाँ उनका मन भगवान के दिव्य कल्याण गुण और वैभवमें आकर्षित हो जाता है और भगवान की प्रेममय सेवा करनेके लिए इच्छा करता है। इस व्याख्या को अध्ययन करनेवाले का मन त्वरीत कृष्णभक्ति में डूब जाता है और भगवद्गीता का संदेश यथार्थ में परिणित हो जाता है।

यह कहनेकी आवश्यकता नहीं की श्री रामानुज स्वामीजी की भक्ति की समृद्धि उनको मिली हुयी आल्वारोंकी प्रसादी है। इसी कारण श्री अमूघनार गाते है:                                                                                                        पण् तरू मारन् पशु्न्दमिल् आनन्दम् पाये मदमाय् विण्डिड एगंल इरामानुज मुनि वेलम!

कलि मिक्क शेन्नल कलनि क्कुरैयल कला प्परूमान् ओलिमिक्क पाडलै उण्डु तन उल्लम् तडित्तु अदनाल वलि मिक्क सीयम इरामानुशन!

आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/03/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-5-english/

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