श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः
“श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरत्तु नम्बी को दिया। वंगी पुरत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधी परिहारंगल (बाधाओं को हटाना)” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया। इस ग्रन्थ पर अंग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेंगे। इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग “https://goo.gl/AfGoa9” पर हिन्दी में देख सकते है।
<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन – ४१)
७२) तत्व विरोधी – सत्य / वास्तविकता को जानने में बाधाएं – भाग – 3
भगवान श्रीमन्नारायण श्रीमहालक्ष्मी, भूदेवी, नीलादेवी और नित्यसूरियों के संग – श्रीवैकुण्ठ
श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीरामानुज स्वामीजी, श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी
पिछले अध्याय से तत्व विरोधी विषय पर आगे चर्चा करेंगे। ऐसे अनेक विषयों को जानने के लिये गहरा ज्ञान होना आवश्यक है जो शास्त्र के अध्ययन से प्राप्त होता है। इसे पूर्ण समझने के लिये इन तत्वों को आचार्य के मार्गदर्शन में अध्ययन करना चाहिये।
- चित्त और अचित्त जो भगवान के लिये शरीर है, चित्त को देह, इंद्रियाँ, आदि मानना बाधा है। जैसे श्रुति में कहा गया है “जीवध्वारा अनुप्रविष्य” (जीवात्मा द्वारा प्रवेश करना), भगवान अचित्त (अनगिनत निर्विकार पदार्थ) में जीवात्मा के द्वारा प्रवेश करते हैं। जैसे कि कहा गया है “देहेंद्रिय मन: प्राणधिभ्यों अन्य:” – जीवात्मा देह, इंद्रियाँ, मन, प्राण, बुद्धी, आदि से भिन्न हैं, यह सामान्य ज्ञान है। अनुवादक टिप्पणी: यहाँ से प्रारम्भ करते हैं कि जीवात्मा तत्वम का यहाँ पर विस्तृत वर्णन किया गया है। तत्वत्रय में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी चित्त प्रकरणम विषय को विस्तार से समझाते हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के व्याख्या से इस विषय को हम स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं। ६ठें सूत्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी आत्मा और देह, आदि में बहुत भेदों को समझाते हैं। मुख्य रूप से आत्मा को “मैं” और देह, आदि को “मेरा” ऐसा देखा गया हैं। आत्मा स्वयं के लिये निरन्तर एक वचन महसूस करता हैं (“मैं” – केवल एक) परन्तु स्वयं के देह, आदि के लिये वह अनेक महसूस करता हैं (जैसे शरीर, इंद्रियाँ, मन, आदि)। इससे हम समझ सकते हैं कि देह, आदि से आत्मा भिन्न हैं। ७वें सूत्र में वें एक मुख्य पहलू को दर्शाते है। यहाँ तक की बुद्धिमत्ता पूर्ण दलीलों से इन्हें भी नकार देते हैं, शास्त्रानुसार हमें यह समझना चाहिये कि आत्मा देह, आदि से भिन्न है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इसे बड़ी सुन्दरता से समझाते हैं। वें कहते हैं कि इस सिद्धान्त को नकारना बहुत कठीन है – फिर भी यदि कोई अधिक बुद्धिमान हो ओर ऐसी दलील प्रस्तुत करता हैं जो मैं और मेरा मे जो अन्तर है उसे नकारते हैं परन्तु शास्त्रों द्वारा इसे सरलता पूर्वक प्रमाणित कर सकते हैं कि आत्मा और देह, आदि भिन्न हैं। वें अपने व्याख्या में इस विषय में कई प्रमाण देकर इसे स्थापित करते हैं। अन्त में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहते है कि श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी बहुत ही विश्वास पूर्वक शास्त्रों के आधार पर प्रमाणित करते हैं कि आत्मा के स्पष्ट लक्षणों को कोई भी बुद्दिमत्ता पूर्ण दलील से नकार नहीं सकते हैं।
- आत्मा केवल ज्ञान है यह समझना और आत्मा का ज्ञान प्रासंगिक संकलन है यह जानकार हैरान होना बाधा है। यह शास्त्र से जाना गया है कि आत्मा ज्ञान स्वरूप है। परन्तु आत्मा को हमेशा ज्ञान का घर मानना चाहिये। आत्मा दोनों ज्ञान और ज्ञानगुणकन (जिसे ज्ञान है) है। अनुवादक टिप्पणी: ज्ञान दो प्रकार के हैं। धर्मी ज्ञान (आत्मा स्वयं ज्ञान है) और धर्म भूत ज्ञान (आत्मा ज्ञान का घर है) हैं। धर्मी ज्ञान वह ज्ञान है जो निरन्तर अपनी मौजूदगी का स्मरण करता है। धर्म भूत ज्ञान वह है जिसके द्वारा हम बाहरी पहलूओं को समझ सकते है। कुछ तर्क शास्त्र जैसे बौद्ध शास्त्र हैं जहाँ आत्मा को केवल ज्ञान ऐसा समझाया गया है और अन्य विशेषताओं को नकारा गया हैं। परन्तु ऐसे तत्व शास्त्र के विपरीत हैं जो आत्मा हीं ज्ञान ऐसा समझाता हैं। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी इस सिद्धान्त को तत्वत्रय के २६, २७ और २८ सूत्र में समझाते हैं। हम श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के सुन्दर व्याख्या से समझेंगे। २६वें सूत्र में वें कहते है कि आत्मा ज्ञान का घर हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इसे एक सुन्दर उदाहरण के साथ समझाते है। जैसे दीप (ज्योति) और प्रभा (प्रकाश) दोनों दीपक के अंग है, दीप प्रकाश का घर हैं। इसी तरह धर्मी ज्ञान और धर्म भूत ज्ञान दोनों ज्ञान हैं, धर्मी ज्ञान (आत्मा) धर्म भूत ज्ञान का घर हैं। वें कई प्रमाणों के साथ बताते हैं कि आत्मा भी ज्ञान का घर है। २७वें और २८वें सूत्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी कहते है “आदि आत्मा केवल ज्ञान है और ज्ञान का घर नहीं है तब हमें कहना चाहिये कि मैं ज्ञान हूँ और न कि मैं जानता हूँ”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहते है “किसी के बारें में जानना” यह इशारा करता है कि उसे ज्ञान है और इसे प्रत्यक्ष से हीं समझ सकते हैं। वें श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी को भी इसी तत्व को स्थापित करने को कहते हैं।
- स्वाभाविक रूप से निर्भर जीवात्मा को स्वतन्त्र समझना बाधा है। हालाँकि ज्ञान हैं और ज्ञान होना जीवात्मा का स्वभाव है, भगवद शेषत्वम और पारतंत्रयम जीवात्मा के गोपनिय पहलू है। जीवात्मा का स्वयं को स्वतन्त्र समझना सबसे बड़ा पाप है। अनुवादक टिप्पणी: शास्त्र में समझाया गया है कि सबसे बड़ी चोरी/पाप स्वयं (आत्मा) को स्वतन्त्र मानना और उसके अनुसार कार्य करना – इसे श्रीमहाभारत में ऐसे समझाया गया है “किम तेन न कृतम पापं चोरेण आत्मापहारिणा” – वह जो आत्मा को स्वयं कि सम्पत्ति मानता है वह सभी प्रकार के पाप किया है ऐसा मानना है। स्वयं के बारें में सच्चा ज्ञान का अर्थ समझना यानि स्वयं को जीवात्मा मानना जो भगवान का शेष है। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी ने श्रीसहस्रगीति के “अडियेन उल्लान” [8.8.2] पाशुर में अपने पूर्वाचार्य के जीवन कि घटना से समझाया है। श्रीरामानुज स्वामीजी के कालक्षेप गोष्टी में संदेह उत्पन्न होता है – जीवात्मा का मुख्य गुण क्या हैं? क्या वह ज्ञान है या भगवान का दास होना है। श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीकुरेश स्वामीजी को इसका उत्तर प्राप्त करने हेतु श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी के पास भेजते है। श्रीकुरेश स्वामीजी ६ महिने तक श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी कि सेवा करते है और जब अन्त में जब श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी उनके आने का कारण पूछते हैं तो श्रीकुरेश स्वामीजी उन्हें प्रश्न पूछते हैं। उसके लिये श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी कहते है “क्योंकि आल्वार कहते है आडियेन उल्लान, जहाँ अड़िएन जीवात्मा को संभोधित करता है और शेषत्वम जीवात्मा का मुख्य गुण हैं”। “अड़िएन” भगवान की दासता को संभोधित करता है – इसलिये श्रीशठकोप स्वामीजी (जिन्हें भगवान ने दिव्य ज्ञान प्रदान किया) जीवात्मा के सच्चे पहचान को स्थापित करते हैं।
- जीवात्मा जो भगवान का दास है उसे अन्य किसी का भी दास मानना बाधा है। जीवात्मा स्वभाव से भगवान का हीं दास है। स्वयं को दूसरे का दास मानना बाधा है। यहाँ अन्य का अर्थ अम्माजी या परम भागवत नहीं है। अनुवादक टिप्पणी: केवल भगवान हीं स्वामी हैं अन्य सभी उनके दास है। देवतान्तर का अर्थ अन्य देवता गण। ब्रह्माजी से प्रारम्भ कर इस लौकिक संसार में कई देवता है। यह देवतागण हमारे जैसे जन्म मरण के चक्र में बंधे हुए हैं। परन्तु कुछ पुण्य कर्म के कारण जीवात्मा देवता के जैसे उच्च स्थान पाते हैं। फिर भगवान कृष्ण गीताजी के ८.१६ श्लोक में कहते “आब्रह्माभुवनाल्लोका: …” – ब्रह्म लोक से – सबसे उच्च स्थान से नीचे के स्थान तक निरन्तर जन्म मरण हैं। इसलिये मुमुक्षुओं (जो मोक्ष कि इच्छा करते है) के लिये यह उपदेश किया गया है कि वें केवल भगवान कि पूजा सेवा करें नाकि देवताओं की करें। मुमुक्षुप्पड़ी में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी विस्तार से समझाते हैं जब “उ” कार प्रणवम के विषय में समझाते हैं। उकारम स्पष्ट रूप से ज़ोर देकर समझाता है कि जीवात्मा भगवान का एक मात्र दास है। यहाँ ६१वें सूत्र में दूसरों के प्रति दासता को हटा देने का महत्त्व को समझाते हैं। ६२वें सूत्र में वें उदाहरण के साथ समझाते हैं। वें कहते है जीवात्मा का दूसरों के प्रति दासता उसी प्रकार है जिस प्रकार हम यज्ञ आदि में जो कुछ देवताओं को अर्पण करते हैं उसे एक कुत्ते को देते हैं (जिसे देखना भी नहीं और छूना भी नहीं चाहिये)। ६३वें सूत्र में वे कहते हैं कि भगवान के प्रति दासता से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं अन्यों के प्रति दासता को दूर करना। ६४वें सूत्र में वें श्रीपरकाल स्वामीजी के नान्मुगन तिरुवन्दादि के ६८वें पाशुर को दर्शाते है कि श्रीवैष्णव कभी भी देवतान्तर की पूजा नहीं करेंगे – “तिरुवडि तन नामम मरन्दुम पुरम तोला मान्दर” – श्रीवैष्णव वें है जो भगवान का नाम भूल सकते हैं परन्तु कभी भी भगवान छोड़ अन्य कि पूजा नहीं करेंगे। अन्त में ६५वें सूत्र में वें कहते हैं कि यह उकारम यह स्थापित करता है कि जीवात्मा स्वयं या किसी का भी दास नहीं है – वह केवल भगवान का दास है। यहाँ अम्माजी और और भागवत जन भगवान के शरण होने के कारण स्वाभाविक स्वामी है। जो भी पूर्णत: भगवान का शरण हुआ है उसे हमारा स्वामी मानना चाहिये।
- यह न जानना कि जीवात्मा दिव्य युगल जोड़ी का दास नहीं है बाधा है। श्रीमहालक्ष्मीजी भगवान श्रीमन्नारायण कि मुख्य पत्नी हैं। मिथुनम – युगल जोड़ी। यहाँ भगवान और अम्माजी दिव्य युगल जोड़ी हैं। अनुवादक टिप्पणी: रहस्यत्रयम में पूर्वाचार्य द्वय महामन्त्र कि अधिक स्तुति करते है। यह इसलिये कि श्रीमहालक्ष्मीजी कि भूमिका स्पष्टता से दर्शाई गयी हैं। द्वय मन्त्र के पहिले खण्ड में श्रीमहालक्ष्मीजी को पुरुषकार भूताई (प्रशंसा करनेवाले अधिकारी) ऐसे समझाया गया है, जो यह सुनिश्चित करती है कि भगवान शरण में आये जीवात्मा को स्वीकार करते हैं। दूसरे खण्ड में यह समझाया गया हैं कि जीवात्मा भगवान श्रीमन्नारायण और माता महालक्ष्मीजी दोनों कि ओर कैंकर्य करते हैं। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी मुमुक्षुप्पड़ी के १६६ सूत्र में यह समझाते हैं कि जब भगवान हीं उपाय हैं तब माता पहिले खण्ड में पुरुषकार हो जाती है और जब भगवान प्राप्यम (लक्ष्य) हैं तब माता दोनों लक्ष्य और जीवात्मा द्वारा की जानेवाले कैंकर्य को बढ़ावा देनेवाली होती हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी समझाते हैं कि जब जीवात्मा उनके प्रति कैंकर्य करता है तब अम्माजी इसे भगवान के समक्ष कई गुणा बढ़ाकर दिखाती है और भगवान का अधिक मुखोल्लास करती हैं। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी १६८वें सूत्र में आगे समझाते हैं कि श्रीलक्ष्मणजी माता सीता और श्रीरामजी का एक साथ कैंकर्य करते हैं। १६९वें सूत्र में वें कहते है ऐसा कैंकर्य होता हैं और आनन्ददायक होता है जब भगवान और अम्माजी साथ में होते हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बड़ी सुन्दरता से कहते हैं कि कैसे श्रीलक्ष्मणजी श्रीरामजी की शरणागति माता सीता के पुरुषकार के द्वारा किये और कैसे श्रीलक्ष्मणजी ने दोनों की सेवा किये। वें एक व्यवहारिक उदाहरण के साथ समझाते हैं – जब एक पुत्र अपने माता पिता दोनों की एक साथ सेवा करता हैं तो वह योग्य है – उसी तरह जीवात्मा दिव्य माता पिता कि सेवा करता है तो वह उसके स्वभाव के लिये अधिक योग्य हैं।
- जीवात्मा भगवान के भक्तों का दास है यह न समझना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: जीवात्मा का स्वाभाविक गुण है भगवद दास और पूर्णत: भगवान के आधिन होकर रहना हैं। इससे भी अधिक महत्व – स्वरूप यातात्मयम (सच्चे स्वभाव का तत्व) – भागवत शेषत्वम (भागवतों का दास बनकर रहना)। पेरिया तिरुमोली में श्रीपरकाल स्वामीजी तिरुमन्त्र का तत्व स्वयं भगवान को घोषित किया “निन तिरुवेट्टेळुत्तुम कट्रु नान उट्रदुम् उन्नडियार्क्कडिमै कण्णपुरत्तुरैयम्माने” (तिरुक्कण्णपुरम के प्रिय नाथ! तिरुमन्त्र के तत्व को सिखने के पश्चात मैंने यह समझा कि मैं दासों का दास हूँ)। श्रीपरकाल स्वामीजी नान्मुगन तिरुवन्दादि के १८वें पाशुर में दर्शाते हैं कि “एत्तियिरुप्पारै वेल्लुमे मट्रवरैच् चार्त्ति इरुप्पार तवम” (भक्तों के प्रति भक्ति भगवान कि भक्ति से भी अधिक महान है)। एत्तियिरुप्पवर – भगवद शेष भूतर – वह जो भगवान के शरण हुआ हो। ऐसे जन जो भगवान के शरण हुये हैं वें अधिक महान हैं। श्रीरामायण में श्रीलक्ष्मणजी और श्रीभरतजी दोनों श्रीराम के शरण हुये थे। श्रीशत्रुघनजी के लिए श्रीभरतजी ही सबकुछ थे। श्रीरामायण में कहा गया हैं कि “शत्रुघनो नित्याशत्रुघन:” (वह जिसने नित्य बाधा को जीता है)। हमारे पूर्वाचार्यों ने समझाया हैं कि “श्रीशत्रुघनजी श्रीरामजी के सुन्दरता और दिव्य गुणों को जीता या अनदेखा कर दिये और श्रीभरतजी कि सेवा किये”। श्रीसहस्रगीति में श्रीशठकोप स्वामीजी कहते है “अवनडियार सिरुमामनीसराय एन्नईयाण्डार”। सिरुमामनीसर – वह जो भगवान की पूर्णत: शरणागति किये हैं जो दीखने में छोटे परन्तु ज्ञान और कार्य प्रणाली में महान हैं। श्रीशठकोप स्वामीजी ऐसे भक्तों को स्वामी ऐसे घोषित करते हैं। जब ऐसे भक्त गण यहाँ विराजमान रहते हैं तो उन्हे अनदेखा कर, कैसे कोई भगवान के चरण कमलों की सेवा कर सकता हैं? जीवात्मा के सच्चे स्वभाव के लिये भागवत कैंकर्य अधिक योग्य है। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी मुमुक्षुप्पड़ी के ८९वें सूत्र में समझाते हैं कि “उट्रदुम् उन अदियारक्कडिमै एंगिरपड़िये इथिले भागवत शेषत्वमुम अनुसंदेयम” – क्योंकि श्रीपरकाल स्वामीजी तिरुमन्त्र सिखने के पश्चात कहते हैं कि “मैं यह समझ सकता हूँ कि मैं आपके दासों का दास हूँ, नम: पद भागवत शेषत्वम को बताता है”।
- यह न जानना कि भगवान जो सर्व शरीरि (अन्तर्यामी) है, सर्वेश्वर (सभीको नियंत्रण में करनेवाले) है, बाधा है। यह पहिले ही समझाया गया है। अनुवादक टिप्पणी: शरीरि आत्मा है और शरीरम देह है। देह का नियन्त्रक आत्मा है – स्वयं प्रत्यक्षम से हम इसे समझ सकते हैं। जब तक देह के भीतर है तब तक ही देह क्रिया शील है। एक बार नियंत्रण करनेवाली आत्मा शरीर का त्याग कर देती हैं देह मृत और निष्क्रिय हो जाता है। भगवान सभी अस्तित्वों के लिये अन्तरात्मा है। भगवान स्वाभाविक रूप से सब की आत्मा है इसका अर्थ वे सबके नियन्त्रक हैं। अन्तर्यामीत्वम (आत्मा का निवास करने का स्थान) और नियन्तृत्वम / ईश्वरत्वम दोनों साथ साथ चलते हैं।
- भगवान स्वभाव से स्वतन्त्र है, उनके भक्तों पर उनका आर्विभाव उनकी सर्वोच्च स्वाधीनता / स्वतन्त्रता पर आधारीत है उनके भक्तों पर उनकी निर्भरता निरन्तर है। यह न जानना बाधा है। भगवान सत्यकाम (सभी इच्छा कि पूर्ति करने वाला), सत्य संकल्प (सभी कार्य पूर्ण करने वाला), निरंकुश स्वतन्त्र (अनियंत्रर्णाय ढंग से स्वतन्त्र), आदि माना गया हैं। फिर भी वे आश्रित पक्षपादि (वह जो अपने भक्तों पर अनुग्रह करते है) हैं। जो भगवान के पूर्ण शरणागत हो जाते हैं और उनसे प्रेम करते हैं तो भगवान भी स्वयं को आपको समर्पित करते हैं। क्योंकि यह उनकी इच्छा का परिणाम है यह उनकी स्वतन्त्रता का परिणाम है। यह नित्य है और इसे हम अधिकत्तर अवतारों के समय देख सकते हैं। अनुवादक टिप्पणी: भगवान सर्वोच्च रूप से स्वतन्त्र है। फिर भी वह स्वयं को ऐसी परिस्थिति में लाते हैं जहाँ वे अपने भक्तों के आधीन है। महाभारत युद्ध के दौरान वे पाण्डवों के दूत बन गये थे। वें अर्जुन के सारथी भी बने। यह सब पाण्डवों के प्रति प्रेम के कारण हुआ जो उनके अनन्य भक्त थे। यह सब उनकी सर्वोच्च इच्छा ही का परिणाम है कि वे अपने भक्तों के प्रति दासता / आश्रित का स्थान लेते हैं। यह गुण उनके अर्चावतार में अधिक स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। वे प्रतिज्ञा करते हैं कि वे अपने अर्चकों पर पूर्ण रूप से निर्भर है चाहे अपने प्रसाद, स्नान, वस्त्र, श्रृंगार, आदि के लिये। हमारे पूर्वाचार्यों ने समझाया हैं कि यह उनके सौलभ्य गुण का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
- भक्तों के आधीन रहना यह केवल उनके दिव्य प्रेम का परिणाम है, यह न जानना बाधा है। प्रणायित्वम – भव्य प्यार / लगाव होना। जब किसी के प्रति अधीक प्रेम न हो तब वह अपनी अवस्था के विषय में और किसे प्रेम करना है – नहीं विचार करता है। अनुवादक टिप्पणी: हालाँकि भगवान श्रेष्ठ हैं और जीवात्मा तुच्छ है यह उनके भक्तों के प्रति बहुत दया और प्रेम है वें जीवात्मा के छोटे पन का विचार नहीं करते हैं। वें केवल जीवात्मा में प्रेम देखते हैं और स्वयं जीवात्मा को पूर्ण लगाव के साथ स्वीकार करते हैं। यह गुण जिसमे स्वयं से छोटों के साथ मिलने को सौशिल्य कहते है।
- यह न जानना कि अपने भक्तों के प्रति ऐसा प्यार केवल श्रीमहालक्ष्मीजी के प्रति प्रेम और लगाव के कारण हैं जो सब की माता है, यह बाधा है। श्रीसहस्रगीति में श्रीशठकोप स्वामीजी कहते है “कोलमलर्प पावैक्कनबागिय एन अनबेयो” – भगवान मुझे अधीक प्रिय हैं क्योंकि वे श्रीमहालक्ष्मीजी के दास हैं और जो आपको अधीक प्रिय है। अनुवादक टिप्पणी: इसके साथ श्रीमहालक्ष्मीजी के गुणों को भी समझाया है। भगवान सर्वोच्च स्वतन्त्र हैं। श्रीमहालक्ष्मीजी भगवान कि दिव्य भार्या हैं जो पूर्णत: उन पर निर्भर है। यह उनकी पुरुषकार के कारण भगवान जो उनकी शरण में आते हैं उनको स्वीकार करते हैं। क्योंकि मनुष्य जो शरण में आता हैं उसके अनगिनत पाप होते हैं और भगवान ऐसे मनुष्य को स्वीकार करने के लिये घबराते हैं। परन्तु अम्माजी यह सुनिश्चित करती हैं कि भगवान की कृपा / करुणा का गुण उनकी स्वतन्त्रता गुण से भी बड़ा है और अम्माजी सुनिश्चित करती हैं कि भगवान जीवात्मा को स्वीकार करते हैं। भगवान का अम्माजी के प्रति अपार प्रेम के कारण जीवात्मा को स्वीकार कर पूर्ण सावधानी से जीवात्मा को देखते हैं।
- श्रीमहालक्ष्मीजी भगवान को प्रिय है, उनके जैसे सुन्दर हैं, उनके द्वारा भगवान की पहचान होती है, जो कभी उनसे अलग नहीं होती है, जो उनकी पूर्ण दास हैं, उनकी दिव्य मंगलमय पत्नी और सभी जीवात्मा कि माता हैं। यह न जानना बाधा है। यहाँ अम्माजी का स्वभाव स्थापित होता हैं। वें अभिमताई है – वह जो भगवान को बहुत प्रिय है; अनुरूपै – शारीरिक सौन्दर्य में भगवान के समान; निरूपकै – उनके पहचान का एक भाग – उनको श्रिय:पति (श्रीमहालक्ष्मीजी के स्वामी) ऐसे पहचाना जाता है; नित्यानपायिनी – जो अनन्तकाल तक अभिन्न हैं; शेषभूतै – भगवान का पूर्णत: दास होकर रहना; महिषी – भगवान की पटरानी – श्रुति कहती है “अश्येषाना जागतो विष्णु पत्नी” (वह ब्रह्माण्ड की स्वामी हैं और भगवान विष्णु की पत्नी) – क्योंकी वें एक मात्र भगवान श्रीमन्नारायण की पत्नी हैं वे इस ब्रह्माण्ड की स्वामीनी हो जाती है; जगन माता – ब्रह्माण्ड की माता – क्योंकी भगवान ब्रह्माण्ड में सभी के पिता हैं तो उनकी भार्या सभी की माता हैं। अनुवादक टिप्पणी: यहाँ श्रीमहालक्ष्मीजी को स्वामी ऐसे समझाया गया है। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी इस तत्व को बड़ी सुन्दरता से मुमुक्षुप्पड़ी के ४४वें सूत्र में समझाते हैं। जब कोई किसी के तिरुमाली में दास होकर रहता है तो उस घर के स्वामी और उस नौकर के मध्य में एक समझौता होता है। परन्तु वास्तव में क्योंकि पूरा दिन घर का स्वामी बाहर रहता हैं तो वह नौकर सारा दिन उस स्वामी के पत्नी की आज्ञा का पालन करता है। इसलिये स्वाभाविक रूप से पति का नौकर पत्नी का भी नौकर हो जाता है। भगवान श्रीमन्नारायण श्रेष्ठ स्वामी है और श्रीमहालक्ष्मी उनकी दिव्य पत्नी। सभी जीवात्मा श्रीमन्नारायण के दास हैं। अम्माजी उनकी श्रेष्ठ और मुख्य पत्नी है इसलिये स्वाभाविक रूप से सभी जीवात्मा अम्माजी के भी दास हैं।
- हालाँकि अम्माजी भी जीवात्मा है परन्तु वें नित्यसूरिगण, मुक्तात्मा, बद्धात्मा से भिन्न हैं। इसे न जानना बाधा है। सभी जीवात्मा एक ही तत्वों से बने हैं – परन्तु उनके परिस्थिति अनुसार उन्हें नित्य, मुक्त, बद्ध वर्ग में किया गया हैं। बद्ध – हमारे जैसे जो इस लौकिक संसार में बंधे हैं; मुक्त – जो इस लौकिक संसार से भगवान कि कृपा से मुक्त होकर परमपदधाम को प्राप्त करते हैं; नित्य – जो नित्य परमपदधाम में भगवान कि सेवा करते हैं। हालाँकि अम्माजी नित्यसूरियों का हीं एक अंग हैं फिर भी उनसे भिन्न हैं क्योंकि वह भगवान की श्रेष्ठ पत्नी हैं। अनुवादक टिप्पणी: साधारणतया श्रीमहालक्ष्मीजी नित्यसूरियों के वर्ग की एक अंग है। फिर भी भगवान कि दिव्य पत्नी होने के कारण उन्हें जीवात्मा में उच्च माना गया हैं। यहाँ तक की भूदेवी, नीलादेवी और अन्य अनगिनत भगवान की पत्नीयां श्रीमहालक्ष्मीजी के आधीन हैं। अन्य सभी नित्य सूरिगण जैसे अनन्तजी, गरुडजी, श्रीविश्वक्सेन आदि और मुक्तामा सभी श्रीमहालक्ष्मीजी के दास हैं। चतु:श्लोकि के प्रथम श्लोक में श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी समझाते हैं कि श्रीमहालक्ष्मीजी कि परमपदधाम में सभी सेवा करते हैं और इस संसार के देवता जैसे ब्रह्म, रुद्र, इन्द्र, आदि भी सेवा करते हैं – यह सभी इसी कारण से कि वें भगवान श्रीमन्नारायण की प्रिय पत्नी हैं।
- श्रीमहालक्ष्मीजी सर्वेश्वरी (सभी कि स्वामी) है जब ईश्वरत्वम (नियन्त्रक स्वभाव) एक से अधिक मनुष्य में नहीं रह सकता है और यह कहना कि उनमें कारणत्वम (सबका कारण) है जो केवल ब्राह्मण का हीं गुण है कहना बाधा है। श्रीमहालक्ष्मीजी के लिये स्वामी होना स्वाभाविक गुण नहीं हैं – परन्तु क्योंकि वें श्रीमन्नारायण की दिव्य पत्नी हैं उसके कारण उन्हें यह गुण प्राप्त है। उसी तरह कारणत्वम (सब कुछ के लिये कारण) यह परमपुरुष का हीं (परब्रह्म) अनूठा गुण है और यह अम्माजी के लिये लागू नहीं हैं। कारणत्वम का अर्थ है जगत व्यापारम में सीधा सह भागिता होना – सृष्टी, स्थिति, संहारम, आदि। अनुवादक टिप्पणी: कभी भी सर्वोच्च तत्व दो नहीं हो सकते हैं। केवल एक ब्रह्म है वों हैं श्रीमन्नारायण। जीवात्मा में अम्माजी सबसे अधिक प्रिय हैं भगवान को क्योंकि वह दिव्य पत्नी है।
- यह कहना कि श्रीमहालक्ष्मीजी और श्रीमन्नारायण स्वभाव से भिन्न नही हैं और केवल रूप में भिन्न हैं और यह कहना कि भगवद स्वरूप दो रूप (भगवान और अम्माजी) में है बाधा है। क्योंकि अम्माजी जीवात्मा के वर्ग में आती है वह स्वभाव से परमात्मा से भिन्न है। ऐसा न कहना सत्य के अंतर्विरोधी होगा।
- यह कहना श्रीमहालक्ष्मीजी स्वयं भगवान हैं और कोई अलग नहीं है बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीमहालक्ष्मीजी जीवात्मा के वर्ग की एक हिस्सा हैं और भगवान कि दिव्य पत्नी हैं। इसलिये स्वाभाविक रूप से वें भगवान से कई तरह से भिन्न हैं – सबसे प्रथम – वह हर कार्य में भगवान पर निर्भर हैं। इसलिये श्रीमहालक्ष्मीजी को ईश्वरत्वम, कारणत्वम, आदि से जोड़ने का कोई प्रश्न हीं नहीं आता है जिसे हमने पहिले देखा हैं।
- अम्माजी में एकही गुण है जब कि वास्तव में वें एक जीवात्मा है जिनमें कई सुन्दर गुण /लक्षण आदि हैं यह कहना बाधा है।
- भगवान अहम (परमपुरुष) है और अम्माजी अहंता (वह पहलू जिसमे भगवान को विलक्षण ढंग से पहचाना जाता है) है को न जानना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: जैसे पहिले चर्चा हुई है कि भगवान को विलक्षण ढ़ंग से पहचानते हैं कि वे श्रीमहालक्ष्मीजी के पती हैं।
- श्रीमहालक्ष्मीजी अणु स्वरूपम है जो निरन्तर भगवान से जुड़ी हुई है जो विभु स्वरूपम हैं को न जानना बाधा है। क्योंकि अम्माजी जीवात्मा हैं वे एक अनुस्वरूप तत्व हैं। फिर भी क्योंकि वें भगवान से अनपायिनी (अभिन्न) हैं वें निरन्तर भगवान से जुड़ी हुई रहेंगी। यह भगवान की एक विशेष योग्यता है – इसे हम भगवान की अकल्पनीय फिर भी संभवनीय योग्यता समझ सकते हैं। अनुवादक टिप्पणी: श्रीसहस्रगीति में श्रीशठकोप स्वामीजी कहते है [6.10.10] “अगलगिल्लेन इरैयुम एनरु अलर्मेल् मन्गै उरै मार्बा”। यहाँ श्रीशठकोप स्वामीजी अम्माजी के विषय में यह कहकर कहते है कि “अगलगिल्लेन इरैयुम” – मैं आपके वक्षस्थल को एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ूँगी। पुराणों में कहा गया हैं कि जब भी भगवान भूलोक में अवतार लेते है (देव, मनुष्य, त्रियक –पशु, पक्षी, स्थावर –पेड़, पौधे, आदि) अम्माजी भगवान के संग यथोचित्त स्वरूप में अवतार लेती है। इसलिये भगवान किसी भी स्वरूप में हों अम्माजी निरन्तर उनके संग रहेंगी।
- जिस तरह रसम क्षीराब्धी में सर्वत्र फैला हुआ है उसी तरह अम्माजी भगवान के सभी ओर फैली हुई हैं। जिस तरह खारेपानी के महासागर में नमक व्याप्त है उसी तरह क्षीरसागर में दिव्य स्वाद व्याप्त है। उसी तरह जहाँ भगवान हैं वहाँ अम्माजी अवश्य होंगी। अनुवादक टिप्पणी: मुमुक्षुप्पड़ी के ४६वें सूत्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी समझाते हैं कि भगवान सूर्य के समान हैं और अम्माजी सूर्य के किरणों के समान और भगवान पुष्प के समान हैं और अम्माजी उस पुष्प कि सुगन्ध की तरह हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी द्वारा बताये अनुसार कहते हैं कि जैसे पुष्प और सुगन्ध एक साथ रहते हैं और अलग नहीं हो सकते हैं वैसे ही भगवान और अम्माजी भी अभिन्न हैं।
- भगवान के साथ अम्माजी का रहने का कारण यह हैं कि वें अपने पुरुषार्थ द्वारा जीवात्मा को भगवान तक पहुँचाने में निरन्तर सहायता करती हैं। यह न जानना बाधा है। श्रीमहालक्ष्मीजी भगवान के साथ निरन्तर रहकर भगवान को जीवात्मा जो कभी भी किसी भी समय भगवान के निकट आता है उसको स्वीकार करने में सहायता करती हैं। अनुवादक टिप्पणी: यह तत्व द्वय महामन्त्र में बहुत ही सुन्दरता से समझाया गया है। मुमुक्षुप्पड़ी में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी समझाते हैं कि “श्री” यानि जो जीवात्मा को सुनते हैं और भगवान तक उनकी प्रार्थना पहुँचाते हैं। वें आगे समझाते हैं कि जीवात्मा भगवान के पास कभी भी जा सकते है। और यदि अम्माजी उस समय उनके निकट न होती तो वें जीवात्मा के असंख्य पापों को गिनाकर अस्वीकार कर देते। ऐसी परिस्थिति से बचने के लिये श्रीमहालक्ष्मीजी भगवान श्रीमन्नारायण के साथ रहती हैं। पहले के पाशुर में जो कहा हैं “अगलगिल्लेन” उसमें विस्तार से समझाया गया है। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी बड़ी सुन्दरता से कहते हैं कि “जैसे माता सीता विवाह के पश्चात अपने पिता के घर नहीं गई और जैसे मुक्तात्मा इस संसार में फिर नहीं आते है”, अम्माजी भी भगवान को छोड़ने का विचार भी नहीं करती हैं।
- श्रीमहालक्ष्मीजी के भगवत स्वरूप को श्रिय:पति की तरह प्रमाणित करने के लिये कार्य में लेना चाहिये, यह न जानना बाधा है। जिस तरह श्रीमहालक्ष्मीजी को अपूर्व ढंग से विष्णुपत्नी के रूप से पहचानते हैं उसी तरह श्रीमन्नारायण को भी अपूर्व ढंग से श्रिय:पति के रूप से पहचानते हैं – हमें इसे दृढ़तापूर्वक समझना चाहिये।
- भगवान स्वाभाविक रूप से ज्ञान और आनन्द से भरे हैं, सभी दोषों को नाश करनेवाले, सभी पवित्र गुणों के भण्डार, तीनों प्रतिबंधों (समय, स्थान और वस्तु) के नियंत्रण में न रहना, विभु (महान, सब में व्याप्त) है, निरंतर रूप से सृजन, भरणपोषण, विनाश के चक्र द्वारा आनंदित होना हालाँकि इस में उनकी कोई भी इच्छा अधूरी नहीं है और किसी से कुछ अपेक्षा भी नहीं हैं। यह सब न मानना बाधा है। इससे प्रारम्भ कर भगवत स्वरूप को विस्तार से समझाया गया है। जैसे श्रीसहस्रगीति में श्रीशठकोप स्वामीजी समझाते हैं कि भगवत स्वरूप उणरनलम है। उणर ज्ञानम – ज्ञान प्रतिभा और नलम – आनंदम। उनके लक्षण सभी दोषों के विपरीत हैं और दूसरों के अन्दर से इन दोषों का नाश करनेवाले हैं। वें कई पवित्र गुणों से परिपूर्ण है। वें स्थान, समय और वस्तु के नियंत्रण में नहीं है। इसका अर्थ वे सर्वव्यापी है, निरन्तर सभी स्वरूप / पहलुओं में है। अपनी सही गुण के कारण वे सर्वव्यापी हैं और इस गुण को “विभु” कहते हैं। वे अवाप्तसमस्थाकामन है – वह जिसकी सभी इच्छाओं की पूर्ति हो गयी है और उन्हें न ही कोई नयी इच्छा पूरी करनी है। ऐसे भगवान जो सभी चीजों से पूर्ण हैं – सृजन, भरण, पोषण व विनाश को एक खेल की तरह करने में व्यस्त हैं। श्रीसहस्रगीति में श्रीशठकोप स्वामीजी कहते है कि “इंबुरुम इव्विळैयाट्टुडैयान्” – उनके लिये सब कुछ एक खेल की तरह है।
- भगवान नित्य विभूति में तिरुमामणि मण्डप (हीरे जवाहरात से जड़ा हुआ सभा भवन) में आदिशेष के दिव्य सिंहासन पर विराजमान हैं। वे वहाँ अपनी दिव्य पत्नियों के साथ विराजमान हैं जो भगवान के साथ ही बहुत प्रफूल्लित और तेजोन्मय हैं। वें वहाँ से हीं नित्य विभूति और लीला विभूति दोनों पर शासन करते हैं। वें नित्यसूरिगण जैसे श्रीअनन्तजी, श्रीगरुड़जी, श्रीविश्वक्सेनजी, आदि कि सेवा का आनन्द लेते हैं जैसे समझाया गया है “सोष्नुते सारवान कामान”। फिर भी संसार में दु:खी आत्मा कि सहायता करने के लिये तथा जो भगवान की पूजा करते हैं आर्शिवाद देने उनके कार्यपूर्ति के लिये परमपदधाम से क्षीराब्धी में व्यूह वासुदेव के रूप में अवतार लेते हैं। अनुवादक टिप्पणी: भगवान के पाँच भिन्न स्वरूप (परत्वाधी पंचकम) को विस्तृत रूप से समझाया गया है। इसे श्रीपिल्लै लोकाचार्य द्वारा रचित तत्वत्रय ग्रंथ में विस्तृत रूप से समझाया गया है जिसे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा दिये गए व्याख्या में भी अध्ययन किया जा सकता हैं। यहाँ पर हम भगवान के परत्व स्वरूप जिसे हम पर वासुदेव के रूप में परमपद में दर्शन कर सकते हैं समझाया गया है। परमपद एक शुद्ध सत्वम से भरा हुआ महल है जिसे हम मण्डप, गोपुर, आदि कह कर व्यक्त करते हैं। यह हम पहिले भी देख चुके हैं। सम्पूर्ण परमपद आनन्द से परिपूर्ण है और भगवान ही उसके एक मात्र सर्वश्रेष्ठ उपभोक्ता हैं और सभी नित्य सूरिगण, मुक्तात्मा इसे अच्छी तरह समझते हैं और उसके अनुसार अपना कैंकर्य करते हैं। पर वासुदेव से अगले व्यूह वासुदेव का प्राकट्य होता है। तीन और स्वरूप – संकर्षण, प्रध्युम और अनिरुद्ध व्यूह वासुदेव से प्रगट होते है। व्यूह वासुदेव में भगवान सामान्यतया क्षीराब्धी में विराजमान होते हैं। यहाँ भगवान अपने भक्तों की सहायता के लिये रहते हैं। सभी देवता ब्रह्म से प्रारम्भ कर अपनी तकलीफ को दूर करने हेतु यहीं आते हैं।
- संसारी जीवात्मा जो अज्ञानता से ढके हैं उनके उत्थान के लिये स्वयं भगवान कई रूप जैसे मानव, आदि धारण करते हैं और जो साधारण मानव की तरह दु:ख से गुजरते हैं। परम और व्यूह स्वरूप के पहिले यहाँ से प्रारम्भ कर विभव, अर्चावतार और अन्तर्यामी स्वरूपों को समझाया गया हैं। क्षीराब्धीनाथन अलग अलग लोकों में अलग अलग स्वरूप में अलग अलग लक्ष्यों को पूरा करने के लिये जैसे साधु परित्राणम (सही लोगों कि रक्षा करना), धर्म संस्थापनम (धर्म कि रक्षा करना) और पाप का नाश करने के लिये अवतार लेते हैं। अति प्राचीन काल से इस संसार में जीवात्मा जन्म मरण के चक्र तड़प रहा हैं – इसे निद्रावस्था (अज्ञानता) कहते हैं। वह उन्हें उठाते हैं और कई रामकृष्णादि अवतार लेकर उन्हें उत्तेजित करने का कार्य करते हैं। हालाँकि साधारण मनुष्य कि तरह अवतार लेकर भगवान भी सुख और कष्ट को सहते हैं। अनुवादक टिप्पणी: विभवम – अवतार। अवतारम का अर्थ नीचे अवतरित होना – स्वयं नीचे आना। भगवान समय, स्थान और वस्तु से बंधे हुए नहीं हैं। परन्तु कई अवतार लेकर नीचे आते हैं और वे स्वयं को विशिष्ट समय (जैसे श्रीराम त्रेता युग में थे), स्थान (श्रीराम अब अयोध्या में है) और उद्देश (भगवान श्रीराम के रूप में है) के आधीन हो जाते हैं। भगवान के नैच्छानुसंधान के पहलू को आचार्य और आल्वारों ने बहुत प्रशंसा किये हैं। यहाँ अवतार को दो मुख्य वर्ग में बाँटा गया है – मुख्यावतार – भगवान स्वयं भिन्न भिन्न रूप में प्रगट होते हैं और गौणावतार – भगवान अपने कुछ विशिष्ट गुण / शक्ति को जीवात्मा को प्रदान कर कुछ विशिष्ट कार्यों की पूर्ति के लिये भेजते हैं। मुमुक्षु मुख्यावतार कि पूजा करते हैं और गौणावतार कि पूजा मुमुक्षु नहीं करते हैं।
- यह देखना कि उनके इच्छा विरुद्ध उनका कोई पीछा तो नहीं कर रहा है वें स्वयं को अन्तर्यामी की तरह छुपाने की कोशिश करता है जैसे किसी ने भी नहीं देखा हो। श्रीसहस्रगीति के पाशुर में श्रीशठकोप स्वामीजी समझाते हैं “करन्तसिलिदन्तोरुम इदंतिगल पोरुल तोरूम करन्थेंगुम परंतुलन” – जो सर्व व्यापी है – सब जगह व्याप्त रहना और श्रीसहस्रगीति के पाशुर में “कट्किली” (जो हमारे नेत्रों से नहीं दीखता है) – भगवान अन्तर्यामी का रूप धारण करते हैं। अनुवादक टिप्पणी: अन्तर्यामी भगवान का एक पहलू है जिसमें भगवान प्रत्येक अणु कण में रहते हैं और एक कणों की क्रियाओं का नियंत्रण करते हैं। भगवान सचेतन व निर्विकार दोनों में व्याप्त हैं और उनका नियंत्रण करते हैं।
- ऐसे सर्वोच्च भगवान जो अर्चा स्वरूप धारण करके दिव्य देश व अन्य मंदिरों में भिन्न भिन्न मुद्राओं में जैसे खड़े, शयन, बैठे, आदि रहते हैं जैसे मानों एक राजा किसी बगीचे में विश्राम कर रहा हो और उसके दासों से उसकी सेवा हो रही हो। इसे न मानना बाधा है। यहाँ जैसे एक चोर को पकड़ने के लिये पूरे इलाके को पुलिस घेर लेती है भगवान भी जीवात्मा के हृदय को पकड़ने के लिये चारों ओर से मंदिरों में भिन्न भिन्न स्वरूप को धारण करते हैं। और अर्चावतार भगवान अपने प्रसाद, तिरुमंजन, वस्त्र, शयन, आदि सबके लिये अपने अर्चकों पर निर्भर रहते हैं। अनुवादक टिप्पणी: दिव्य देशों को “उगन्तु अरुलीन निलंगल” कहते हैं – जीवात्मा के उद्धार के लिये तीव्र इच्छा के कारण भगवान द्वारा आधिकृत स्थान हैं। अर्चावतार भगवान दिव्य देशों, अभिमान स्थल, गाँव, शहर, मन्दिर, मठ, तिरुमाली, आदि में भगवान का आर्विभाव होता है, यह भगवान का श्रेष्ठ सौलभ्य गुण है। वें इस भूतल में ऐसी जगह अवतरित होते हैं जो स्थान सबके लिये सुलभ है, अपने सौन्दर्य द्वारा सबको आकर्षित करते हैं। जो भाग्यशाली हैं वे उनके वैभव को जानते हैं और भगवान के प्रति अपने विश्वास को दृढ़ आत्म विश्वास में विकसित कर भगवान का निरन्तर कैंकर्य से अपने अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।
- परत्वम (परवासुदेव स्वरूप) यह जीवात्मा (नित्य, मुक्त, बद्ध) के हर वर्ग के नित्यसूरि व अवतार के आनन्द के लिये हैं। परमपदधाम में भगवान का आनन्द केवल नित्यसूरि व मुक्तात्मा हीं प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु विभव और अर्चावतार के समय इस संसार के सभी जीवात्मा देख भी सकते हैं और आनन्द भी प्राप्त कर सकते हैं। अनुवादक टिप्पणी: यह एक मनोहर पहलू हम देख सकते हैं कि अर्चावतार भगवान का आनन्द और सेवा नित्यसूरिगण भी करते है। उदाहरण के लिये श्रीसहस्रगीति में श्रीशठकोप स्वामीजी “इन ओलिविल कालम” पाधिगम में दर्शाते हैं कि नित्यसूरिगण भी परमपदधाम से तिरुमला आकर भगवान श्रीनिवास की सेवा करते हैं। परन्तु जो इस संसार में बंधा है (देवता, ऋषि, मनुष्य, आदि) इस सांसारिक शरीर और वस्तु के लगाव में वों परमपदधाम के अन्दर जाने का विचार भी नहीं कर सकते हैं – केवल भगवान कि कृपा से वह परमपदधाम में प्रवेश कर सकता हैं।
- मुख्यावतार को भगवान जिस विशिष्ट रूप आदि में अवतरित हुये थे उसका सिर्फ अवशेष मात्र समझना बाधा है। मुख्य अवतार में भगवान कि श्रेष्ठता पूर्ण स्पष्ट प्रगट होती हैं। हमें भगवान को सिर्फ मत्स्य, कछुवा, वराह, मनुष्य, आदि नहीं मानना चाहिये। ऐसे रूप लेने के समय भी उन्होंने अपनी श्रेष्ठता बनाये रखे जैसे पुण्डरीकाक्षत्वम (जैसे सुन्दर कमल नयन), आदि सभी समय में स्पष्ट हो जाते हैं। अनुवादक टिप्पणी: क्योंकि भगवान प्राणी, मानव, आदि का मिलता हुआ स्वरूप धारण किया हैं इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि वे भी नश्वर हैं। जो भी स्वरूप हो वह दिव्य और सांसारियों से भिन्न हैं। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र में समझाते हैं कि ऐसे स्वरूप में शारीरिक तृटियों को देखना स्वयं में भगवद अपचार हैं।
- गौणावतारम को पूजनीय मानना बाधा है। गौणावतारम में आवेश अवतार (भगवान के उच्च शक्तियों को कुछ जीवात्माओं पर प्रभाव डालना) शामिल है जैसे श्रीपरशुरामजी, श्रीकार्तवीर्यार्जुन, आदि। यह अवतार मुमुक्षुओं द्वारा पूजनीय नहीं हैं। उन्हें केवल भगवान के अवतार हैं इसलिये सम्मान करना चाहिये। श्रीरामानुज नूत्तन्दादि के ५६वें पाशुर “कोक्कुल मन्नरै मूवेलुकाल” के व्याख्या में हम देख सकते हैं। अनुवादक टिप्पणी: क्योंकि भगवान अपनी कुछ शक्तियां कुछ जीवात्माओं को देते है ताकि कुछ निश्चित कार्यों को कर सके परन्तु जरूरी नहीं ऐसे जीवात्मा पूर्ण रूप से सात्विक गुणों के हो, मुमुक्षुओं को इनकी पूजा नहीं करनी चाहिये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी यह प्रश्न एक व्याख्या में उठाते हैं और समझाते हैं कि ऐसे अवतार पुरुषों को पूर्ण मर्यादा देनी चाहिये उनके द्वारा किये गये कार्य के लिये परन्तु पूजा नहीं करनी चाहिये। वें अन्य आल्वारों के पाशुरों को दर्शाते है जो परशुरामजी कि स्तुति अपने पाशुरों में करते हैं।
- अर्चावतार भगवान को असमर्थ समझना बाधा है। अर्चावतार रूप में भगवान कई सन्निधियों में विराजमान रहते हैं, वें प्रतिज्ञा किये हैं कि वें पूर्ण रूप से अपने अर्चक पर निर्भर रहेंगे। यह उनकी प्रतिज्ञा को उनकी असमर्थतता नहीं समझनी चाहिये। हमारे पूर्वाचार्य यह समझाते हैं कि भगवान की सर्वोच्चता पूर्ण रूप से अर्चावतार स्वरूप में भी हैं। अनुवादक टिप्पणी: हम यह पहिले भी देख चुके हैं कि भगवान कि इच्छा हैं कि वें अर्चा स्वरूप में रहकर सबकी उन्नति करें। क्योंकि भी वें सीधे किसी से वार्तालाप नहीं करते हैं और अपनी इच्छा को प्राकृतिक ढंग से व्यक्त करते हैं, इसलिये हमें यह नहीं विचार करना चाहिये कि वे असमर्थ हैं। कई उदाहरण हैं जहाँ अर्चावतार भगवान महान भक्तों से वार्ता करते हैं। श्रीवरदराज भगवान का निरन्तर श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी से बात करना यह एक इतिहास का आधारीत तथ्य है।
- अपने आचार्य में भगवान के अवतार की तरह आस्था नहीं रखना बाधा है। जैसे कहा गया है “आचार्यास स हरी: साक्षात” हमें यह पूर्ण विश्वास होना चाहिये कि आचार्य स्वयं भगवान के अपरावतार हैं। भगवान के पाँच प्रकारम में आचार्य को छठा स्वरूप समझा गया है। अनुवादक टिप्पणी: इसे समझने के लिये “अन्तिमोपाय निष्ठा” (https://granthams.koyil.org/anthimopaya-nishtai-english/) पढना चाहिये।
- अवतार परत्वम से उच्च है। यह न जानना बाधा है। परमपदधाम में केवल उनकी श्रेष्ठता ही सर्वत्र दिखाई देती है। परन्तु जब भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, आदि का अवतार लेते हैं तो उनके सभी दिव्य गुण चमकते हैं। इस तरह हम परत्वम से अधिक अवतार की महानता समझ सकते हैं। अनुवादक टिप्पणी: दु:खी जीवात्माओं की सहायता के लिये भगवान इस संसार में बिना किसी कारण के दया दिखाते हुये अवतार लेते हैं। इसलिये ऋग्वेद में कहा गया हैं कि “स उ श्रेयान भवति जायमान:” – भगवान जब इस संसार में अवतार लेते हैं तो वें अधिक प्रशंसनीय हो जाते हैं। और जब वें परमपदधाम से इस संसार में अवतरित होते हैं वे अपनी किसी भी दिव्य गुणों को कम नहीं करते हैं और उसी दिव्य स्वरूप (जीवात्माओं के भौतिक देह के तत्वों से भिन्न) में प्रगट होते हैं। इस तत्व को श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्रगीति में समझाते हैं – “आधियम चोटी सोदि उरुवै अन्गु वैत्तु इंगुप पिरन्तु” – भगवान जो नित्य है इस संसार में अपने सबसे अधिक मोहित करनेवाले और दिव्य स्वरूप जिसे हम परमपदधाम में देखते है में अवतरित होते हैं।
- आचार्य के दिव्य शरीर / स्वरूप को भौतिक मानना, यह समझाने के पश्चात कि वें भगवान के अवतार है बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: हमें यह समझना आवश्यक हैं कि आचार्य हीं शिष्य को भगवान के चरण कमलों तक पहुँचा सकते हैं। अपनी महान अनुकम्पा से ही आचार्य सही ज्ञान को अपने उपदेशों और व्यवहार द्वारा सबको समझाते हैं। ऐसे आचार्य के शिष्यों को सबसे अधिक आदर और स्तुति करना चाहिये।
-अडियेन केशव रामानुज दासन्
आधार: https://granthams.koyil.org/2014/10/virodhi-pariharangal-42/
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