श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
इन दोनों भाईयों ने कृपाकर तत्वरहस्यम (सच्चे अस्तित्व के रहस्यों के बारे मे) से प्रारम्भ कर कई प्रबंधों कि रचना कि, १०० वर्ष से भी अधिक विराजमान होकर, कई महान जनों ने अपनी जीविका को छोड़ कर श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी के दिव्य चरणों मे शरण लेकर, अपनी जीवि पूर्ण परमानंद में रहें।
उनके कई शिष्य हुए जैसे श्रीकूरकुलोत्तम दास, श्रीमणप्पाक्कत्तु नम्बी, श्रीअऴगिय मणवाळपेरुमाळ पिळ्ळै जिन्हें कोल्ली कावला दास नामसे भी जाना जाता हे श्रीकोटटूरिल अण्णर, श्रीविलानजोलैप पिळ्ळै आदि अम्माजी जैसे श्रीशैलेश स्वामीजी की माताजी। यह सभी निरन्तर इनके दिव्य चरण कमलों की सेवा करते रहें, उन्हे कभी छोड़ा नहीं। श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी उन्के शरण होने के कारण उन्हें कृपा से बुलाकर श्रीशठकोप स्वामीजी द्वारा रचित श्रीसहस्रगीति पर यह सभी व्याख्या जैसे आऱायिरप्पडि, ओन्बदिनायिरप्पडि, इरुप्पत्तु नालायिरप्पडि, मुप्पताऱायिरप्पडि को रचने का कारण बताते थे।
श्रीसहस्रगीति जो तमिऴ वेदों का सागर हैं, कई पूर्वाचार्यों ने जो श्रीसहस्रगीति पर निपुण भि थे अपनी समझदारी के अनुसार और उसे अपने अंतिम लक्ष्य मानकर उसका विस्तृत व्याख्यान किया। श्रीसहस्रगीति को उपनिषद के समान माना गया हैं जिसके १००० शाखायें हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी ने श्रीतिरुक्कुरुगैपिरान पिळ्ळान पर श्रीसहस्रगीति पर व्याख्यान करने की कृपा कि। पिळ्ळान, श्रीशठकोप स्वामीजी, जिन्हें दिव्य अवतार भि माना गया हैं, उन्के दिव्य मन के अनुसार, आरायिरपड़ी व्याख्यान किया।
(६००० पडि ;पडि यानी १० गद्य, जिन्हें ३२ अक्षरों से लिखा जाता हैं)
तत्पश्चात श्रीरामानुज स्वामीजी और अन्य आचार्यों ने श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी (श्रीकुरेश स्वामीजी के पुत्र) को श्रीसहस्त्रगीति पर अधिक विशेष अर्थों के साथ एक ओर व्याख्या करने को कहा जिससे सभी को सुबोध हो वही ओन्बदिनायिरप्पडि (९००० पडि) हैं। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी एक बहस मे माधवर नामक अद्वैती के खिलाफ विजय पाये थे। माधवर (श्रीवेदांती स्वामीजी) सन्यासाश्रम (संसार के सभी मोह को त्याग देना) स्वीकारित कर्के श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी के शरण मे आयें। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी ने उन्हें नन्जीयर नामक पदवी दि और श्रीरङ्गनाथ भगवान कि पूजा करने हेतु श्रीरङ्गम ले आयें। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी, श्रीवेदांती स्वामीजी और कई जीयर स्वामीजी (सन्यासीयों) के सभा में अर्चक के मुखारविंद से श्रीरङ्गनाथ भगवान श्रीवेदांती स्वामीजी को कहे “स्वागत हे, नन्जीयर! ओन्बदिनायिरप्पडि कि व्याख्या लिखिये जो श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी के दिव्य मन हैं”। इस प्रकार नन्जीयर ने ओन्बदिनायिरप्पडि को लिखा जो आऱायिरप्पडि के स्वर्ण मुकुट समान हैं।
श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी को श्रीरङ्गनाथ भगवान द्वारा मोक्ष प्रदान करने के पश्चात नन्जीयर उदास हो गये। उन्होंने सोचा “हम बूढ़े हो रहे हैं [यह हम सोच रहे हैं] क्योंकि श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी युवा हैं, तो दर्शन (विशिष्टाद्वैत के सिद्धान्त) को आगे बढाने में कोई बाधा नहीं होगी और इसका पोषण निरन्तर होता रहेगा। अब स्थिति इस तरह बादल गई हैं”। श्रीवेदांती स्वामीजी श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी के तिरुमाळिगै पहूंचे उनके दिव्य चरणों में गिरकर और शोकाकुल हो गयें। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी ने उन्हें निकट बुलाकर कहा “आप्को अकेले होने कि कोई आवश्यकता नहीं हैं; ऐसे व्यक्ति का खोज करें जो इस दर्शन को अच्छी तरह आगे ले जा सखें”। जीयर इन शब्दों को सुनकर शांत हो गयें और इनके शब्दों को स्मरण करते हुए अपने उत्तरीयम (ऊपरी वस्त्र) मे गांठ लगायें। उन्होंने श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी कि अंतेष्टि उचित रूप से कि। उन्होंने ओन्बदिनायिरप्पडि कि पट्टोलै (यह किसी भी रचना कि पहिली प्रति हैं) बनाई और प्रनेता होकर इसे आगे इरुप्पत्तु नालायिरप्पडि (२४००० पडि) और मुप्पताऱायिरप्पडि (३६००० पडि) में विकसित कर्ने के लिये ऐसे व्यक्ति को खोज रहे थे जो इनकी कई हस्तलिपि बना सके।
आदार – https://granthams.koyil.org/2021/07/18/yathindhra-pravana-prabhavam-3-english/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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