यतीन्द्र प्रवण प्रभावम – भाग ९

श्री:  श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम

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श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै स्वामीजी का वैभव 

श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी तिरुनाडु (श्रीवैकुंठ) को प्राप्त करने के पश्चात श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै स्वामीजी ने इस सम्प्रदाय (श्रीवैष्णव तत्त्व) कि बाग डोर को अपने हाथ में लियें और श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के सभी शिष्यों को एकत्रित किया। श्रीनडुविल् तिरुवीदिप् पिळ्ळै भट्टर स्वामीजी ने श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै स्वामीजी से पूछा “आप उन जनों को कालक्षेप कर रहे हो जिन्हें गुरूपरम्परा और द्वयम पर कालक्षेप प्राप्त हो चुका हैं और जिन्होंने बिना कोई भेदभाव से कालक्षेप को सुना हैं। आप ऐसे क्यों सोच रहे हो कि श्रीवैष्णव जो परमसात्विक हैं आपके पत चिन्ह पर चेलेंगे?”। श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै स्वामीजी ने उत्तर दिया “क्योंकि अड़िएन अहंकारी हैं, अड़िएन यह सोचता हूं कि अड़िएन के विचार से श्रीवैष्णवत्वम (श्रीवैष्णवम के तत्त्व) का अस्तित्व हैं। क्योंकि यह जीवन ईश्वर द्वारा प्रदान किया गया हैं इसलिये अड़िएन यह सोचता हूं कि अड़िएन भी श्रीवैष्णव हैं। अड़िएन लज्जा से सोच रहा हूं  कि ‘यह जन क्या सोचते हैं?’ क्योंकि यह जन अड़िएन का अनुसरण कर रहे हैं इसलिये अड़िएन यह सोचता हूं कि उन जनों के अनुसार भी श्रीवैष्णवत्वम मौजूद हैं। अत: तीनों मतानुसार अड़िएन यह सोचता हूं कि अड़िएन में तीनों प्रकार से श्रीवैष्णवत्वम हैं”। यह उनके ज्ञान कि महानता को समझाता हैं जो बिना स्वयं के सराहना के हैं कि तीनों मतानुसार श्रीवैष्णवत्वम उनमें हैं। 

उनके शिष्य उनसे पूछते हैं “क्या हम भगवान कि लीला या दया के लिये द्रव्य हैं?”। वें यह जवाब देते हुए कहते हैं “नित्यसूरि [श्रीवैकुंठ के नित्य पार्षद] जो अहंकार संबन्धित पूर्णत: शून्य हैं और मुक्त आत्मा [जिन्होंने अहंकार का त्याग किया हैं] उनके मधुरता के द्रव्य हैं। संसारी जिनमे अहंकार और ममकार हैं उनके शौकीन के पदार्थ हैं। हम जो अपने में से अहंकार और ममकार को भगवान कि कृपा और आचार्य के पुरुषकार से मिटाना चाहते हैं उनके दया के पदार्थ हैं”। अत: सर्वेश्वरन् सभी चेतनों का अपनी दयापन से अहंकार और ममकार को मिटाते हैं और अपने कैंकर्य के उपयोग करते हैं। 

कुछ श्रीवैष्णवों ने श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै स्वामीजी के कालक्षेप में उनसे पूछते हैं “आपको कृपाकर हमें कुछ शब्दों को कहना चाहिये जो हमारे लिये शरण्य हैं”। स्वामीजी ने कहा “यह स्थान पूर्णत: उनसे भरा हुआ हैं जो व्यग्र हैं, जो भुलाता हैं, जो हमेशा व्यग्र हैं, जो स्पष्ट करता हैं, जिसे स्पष्टीकरण प्राप्त होता हो और जो हमेशा स्पष्ट हो। यहाँ जो व्यग्र हैं वह जीवात्मा हैं (चेतन या अचेतन); जो चेतन को भूलता हैं वह अचित हैं; जो निरंतर भूलते हैं वें संसारी हैं; जो स्पष्टीकरण देते हैं वें आचार्य हैं; जिसे स्पष्टीकरण प्राप्त होता हैं वह चेतन हैं और जो हमेश स्पष्ट हो वह ईश्वर हैं। अत: जिसे आचार्य के कालक्षेप (माध्यम) से स्पष्टीकरण प्राप्त हो उन्हें इनका त्याग करना चाहिये (अ) जो स्वयं व्यग्र हो, (आ) प्रकृति (मौलिक वस्तु) जिससे घबराहट हो और (इ) संसारी जो हमेशा व्यग्र हैं, और आचार्य को पकड़े रहना चाहिये जो स्पष्टीकरण देते हैं और ईश्वर जो हमेशा स्पष्ट हैं। यह समझना चाहिये कि यह जीवात्मा का स्वरूप हैं”। 

श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै स्वामीजी ने श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी के तिरुमोऴि से प्रारम्भ कर सम्पूर्ण नालायिर दिव्य प्रबन्ध पर व्याख्या किए हैं और इस संसार को ऊपर उठाया हैं। यह स्मरण करते हुए श्रीवरवर मुनि स्वामीजी (जीयर) अपने उपदेशरत्नमाला के ४६वें पाशुर में यह लिखे “पेरियवाच्चान्पिळ्ळै पिन्बुळ्ळवैक्कुम् तेरिय वियाक्कियैगळ् सेय्वाल् अरिय अरुळिच् सेयऱ्पोरुळै आरियर्गट्कु इप्पोदु अरुळिच् सेयलाय्त्तु अऱिन्दु” (श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै जिन्हें प्रेम से व्याख्यानच चक्रवर्ती (व्याख्यान कर्तावों में राजा) भी कहा जाता हैं) और जो श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के प्रिय शिष्य थे ने आऴ्वारों के बचे हुए ३००० दिव्य प्रबंधों पर भी व्याख्या किये ताकि सभी जन उन पाशुरों के अर्थ को जान सके। तत्पश्चात उन्होंने कई और ग्रंथ लिखे जैसे रहस्यत्रय विवर्णम, तत्त्वत्रय निर्णयम, आदि।  

एक दिन उनके एक शिष्य श्रीवादि केसरी जो उस समय ग्रहस्थाश्रम में थे ने कुछ जनों जो शास्त्रों के विश्लेषण में निरत थे उन्से पूछा कि वें क्या अध्ययन कर रहे हैं। यह जान कर कि वें ज्ञान रहित हैं उन जनों ने उन्हें व्यङ्ग्यांत्मक तरीके से उत्तर दिया “हम मुसलकिसलयम का अध्ययन कर रहे हैं”।  यह न जानकार कि ऐसा कोई कार्य हैं भी या नहीं उन्होंने श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै स्वामीजी ले पास जाकर इसके बारे में कहा। श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै स्वामीजी यह सुनकर मुस्कराते हुए और कहा उनमें ज्ञान के कमि के  कारण वे आप्को परिहास् कर रहे हैं। वादिकेसरी लज्जित हुए और श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै स्वामीजी को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया और उनसे प्रार्थना कि “आप मुझे एक शिक्षित और विशेषज्ञ मनुष्य बनायेंगे”। श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै स्वामीजी मान गये और उन्हें इस तरह शिक्षण प्रदान किये कि वादि केसरी शास्त्र में विद्वान बन गये। वादिकेसरी ने संस्कृत में एक महाकाव्य लिखा जिसका नाम मुसलकिसलयम था और उसे उन् दो श्रीवैष्णवों को अर्पण करके  पढ़ने को कहा जिन्होंने उनका परिहास् किया था। उन्होंने लज्जासे अप्ने शीश् झुकाया और् उन्के मुख्से एक् शब्द् भी नहीं निख्लेथे। वादिकेसरी संसार से विच्छिन हो गये और सन्यासाश्रम गृहण किया, बहुतों से भगवान हीं श्रेष्ठ हैं इस पर वाद विवाद पर विजय प्राप्त किये, उन्हें वादि केसरि अऴगिय मणवाळ जीयर् नामक शीर्षक दिया। अऴगिय मणवाळ जीयर ने कई ग्रंथों की रचना की । इसमे तिरुवाय्मोऴि का हर शब्द का अर्थ पन्नीऱायिरप्पडि (१२००० पड़ी की रचना सबसे प्रसिद्ध है, एक पड़ी १० पध्य)। यह १२०००  पड़ि अनन्य ग्रन्थ है जिसमे अऴगिय मणवाळ जीयर ने श्रीनम्मऴ्वार् के हर एक भावावेश को प्रतिपादित किये। तिरुवाय्मोऴि की अनेक विवरण ग्रन्थ किये हुए हैं, लेकिन उसमे १२००० पड़ी सर्वोत्तम माना जाता है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने भी अपने उपदेश रत्नमाला के ४५वें श्लोक में लिखते हैं “अन्बोडु अऴगिय मणवाळ जीयर … एदमिल् पन्नीऱायिरम्” (श्री अळगिय मणवाळ जीयर ने अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए बहुत प्रेम, प्यार और सत्भावना से, श्रीनम्मऴ्वार् के तिरुवाय्मोऴि को शब्दार्थ सहित अपने १२००० पडि व्याख्यान मे प्रस्तुत किये, जो अत्यन्त शुद्ध और दोषरहित है)। तत्पश्चात उन्होंने अन्य ग्रन्थ कि रचना किये जैसे द्वीपप्रकाश सतम्, तत्त्व निरूपणम, आदि। 

श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै स्वामीजी का जन्म श्रावण मास के रोहिणी नक्षत्र में हुआ। उनकी तनियन है:  

श्रीमद् कृष्ण समाह्वाय नमो यामुन सूनवे ।
यत् कटाक्षैक लक्ष्याणाम् सुलभः श्रीधरस्सदा ।।

(मैं पेरियवाच्चान पिळ्ळै को प्रार्थना कर रहा हूँ जो यामुनर के पुत्र हैं और जिनके कटाक्ष से एम्पेरुमान श्रीमन्नारायण का अनुग्रह सुलभ से प्राप्त् हो सकता है। उनके श्री कमल चरणों को नमन् कर्ता हूं )

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/07/25/yathindhra-pravana-prabhavam-9-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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