श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
अब आऴवार् कि घटनाएं
जब श्रीरङ्गनाथ भगवान कोऴिक्कोडु से प्रस्थान किये तब लोगों के पद (अर्चक या स्थानांत्तर) और लोगों के निवास (स्थलत्तार) के अनुचित्त बोली के कारण आऴवार् उनके संग न जा सके। उस समय पूर्व और पश्चिम (कोऴिक्कोडु में आलवार के स्थान) दिशा में लुटेरे रहते थे; उत्तर में मुसलमान आक्रमकारी सक्रीय थे। इसलिये उन्होंने आऴवार् को दक्षीण-पश्चिम दिशा में ले गये। क्योंकि लुटेरों का भय था और कोई विकल्प न होने के कारण उन्हें एक स्थान से पाहड़ से एक ढलान प्राप्त हुआ जहां आऴवार् को एक पेटी में शयन कराकर रखा, उसे एक श्रृंखला (जंजीर) से बांधकर सभी दिव्य आभूषणों को एक सुरक्षित स्थान पर रखकर और उन पहाड़ों से निकलना प्रारम्भ किया। पहाड़ों से उतरते समय लुटेरों ने उन्हें घेर लिया और उनके पास जो भी बहुमूल्य आभूषण थे उन्हें देकर अपने अपने स्थानों को चले गये।
उनमें श्रीतोऴप्पर् स्वामीजी थे जिन्हें आऴवार् के प्रति बहुत भक्ति थी। वें मदुरै गये और श्रीशैलेश स्वामीजी (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के आचार्य) से मिल उन्हें पूर्ण घटनाएँ का वृतान्त सुनाया। यह सुनकर श्रीशैलेश स्वामीजी ने मलयाळ देश के राजा और अपने भरोसे के लोगों को संदेश दिया। तब तक आक्रमकारी से संकट भी कम हो गया था, वें तिरुवांगोट्टूर पहुँच वहाँ राजा से मिल श्रीशैलेश स्वामीजी का सन्देश दिया। यह संदेश पढ़ने के बाद राजा ने श्रीतोऴप्पर् को भेंट दिये, अपने भरोसे के लोगों को सामाग्री सहित भेजे और कहा कि बड़ी करूणा से तिरुक्कणाम्बी में आऴवार् कि स्थापना करें। वें लकड़ी का तख़्ता और सांकल के साथ एक जगह गये जिसका नाम मुन्दिरिप्पु हैं और पहाड़ चड़ने लगे। जब वें उस स्थान पर पहुंचे जहां से उन्हें उस स्थान के लिए उतरना था जहां आऴवार् को विराजमान करना हैं तो वें अचम्बे से अपने जीवन के लिए घबरा गये कि इसके लिये स्वयंसेवक कौन होगा। इस कार्य के लिये श्रीतोऴप्पर् तैयार हो गये। तिरुमाळिगै के जनों ने उन्हें वचन दिया कि मन्दिर में वकुळाभरण भट्टर (एक विशेष कैंकर्य आऴवार्तिरुनगरी में जो श्रीशठकोप स्वामीजी का दिव्य स्थान हैं) के समान भाग मिलेगा और जब भगवान का एक दिव्य स्नान होता हैं, तिरुमञजनम होता हैं तो उन्हें “आऴवार् तोऴप्पर् ” अरुळप्पाडु (अरुळप्पाडु एक प्रक्रिया हैं जब जिन्हें सम्मान दिया जाता हैं उनका नाम सम्मान देने से पूर्व बड़े आदर से ज़ोर से बुलाया जाता हैं ताकि सभी सुन सके) के साथ दिव्य पुष्प हार जो आऴवार् के मस्तक पर सझाई जाती हैं वो प्राप्त होगा। वें श्रीतोऴप्पर् को लकड़ी के तख़्ता से सांकल से बांधकर नीचे उतारे ताकि वें उस स्थान पर पहुँच सके जहां आऴवार् को बड़ी करूणा से एक पेटी में सुरक्षित छोड़ा गया। श्रीतोऴप्पर् जैसे हीं उस स्थान कि खोज कर रहे थे जहां आऴवार् को छोड़ा गया एक गरुड पक्षी वहाँ एक स्थान पर आवाज करने लगा। यह कोई संयोग न जानकार श्रीतोऴप्पर् ने जाना कि वहाँ पेटी हैं। उन्होंने आऴवार् को साष्टांग दण्डवत प्रणाम कर कुछ समय के लिये चिंतन किया। वह पक्षी उड गया। उन्होंने पेटी खोली और आऴवार् को अंदर पाया। वें एक बार फिर साष्टांग दण्डवत प्रणाम किये। क्योंकि उन्होंने अपने साथ कुछ ताड़ के पत्ते और लिखने के उपकरण ले गये थे तो उन्होंने प्रारम्भ से जो भी देखा जब से वें नीचे आए तो पूरा लिखा। फिर उन्होंने उस दिव्य पेटी को लकड़ी के तख़्ते से बांध उपर जनों को लेने को कहा। उन्होंने लकड़ी के तख़्ते को उपर लिया, जो लिखा सभी पढ़ा, आऴवार् कि पूजा किये, पेटी निकालकर पूनः लकड़ी के तख़्ते को श्रीतोऴप्पर् के लिये नीचे भेजा। जब वें लकड़ी के तख़्ते को श्रीतोझप्पर सहित उपर ले रहे थे तब लकड़ी के तख़्ता किसी से टकरा गया और श्रीतोऴप्पर् नीचे गिर गये और पूनः प्राप्त नहीं हुए।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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