यतीन्द्र प्रवण प्रभावम – भाग १७

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम

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उन्होंने श्रीतोऴप्पर् स्वामीजी के पुत्र अप्पन पिळ्ळै को सांत्वना दि जो उनके संग हीं था और उनसे कहा “शोक मत करो क्योंकि उन्होंने अपना दिव्य रूप श्रीशठकोप स्वामीजी के कैंकर्य के लिये दिया हैं; श्रीशठकोप स्वामीजी तुम्हें अपना पुत्र मानते हैं; जो भी वचन श्रीतोऴप्पर् स्वामीजी को दिया गया हैं वों आपको दिया जायेगा”। तत्पश्चात उन्होंने श्रीशठकोप स्वामीजी का दिव्य विग्रह मुन्दिरिप्पु में लाकर पाँच दिनों तक तिरुमंजन किया। लुटेरे, जो वहाँ उस स्थान के करीब रहते थे उन्हें जब इस घटना का पता चला तो वे वहाँ आये, श्रीशठकोप स्वामीजी कि पूजा किये, श्रीशठकोप स्वामीजी और अन्यों से जो भी धन पहिले लूटा उसे वापस किया, श्रीशठकोप स्वामीजी को तिरुक्कणाम्बि ले जाने के लिये एक पालखी दिये और आऴवार् के जाने के लिये एक सुरक्षित राह बनाये। आऴवार् जब तिरुक्कणाम्बि के लिये जा रहे थे तो एक विशाल पेरिय​ तिरुवड़ी पक्षी (गरुड) उनके उपर से उड़ रहा था, उसने वही एक पेड़ पर घोसला बनाकर वहाँ निवास किया। इसे विस्मय से देख लोग श्रीशठकोप स्वामीजी कि पूजा करने लगे, इस घटना का उत्सव मनाया, उनके योग्यतानुसार भेंट चढ़ाये, प्रति दिन और विशेष अवसर पर मंदिर में उत्सव मनाया गया। इन अद्भुत घटनाओं के विषय में सुनकर आस पास के दिव्यदेश जैसे तिरुवनन्तपुरम , तिरुवाट्टाऱु , तिरुवणपरिसारम , तिरुवल्लवाऴ  के नम्बूदिरी पोत्तीमार (पूजारीयों के वंशज) तिरुक्कणाम्बि में पधारे, श्रीशठकोप स्वामीजी कि पूजा किये और वहाँ से प्रस्थान करने कि इच्छा भी नहीं किये। प्रतिदिन सुबह के समय श्रीशठकोप स्वामीजी को भोग लगता था जैसे ददियोधन, घी से बने दोसै सर्क्करैप्पोङ्गल् आदि और कई प्रकार के चावल के प्रसाद बनाने का क्रम दोपहर तक चलता था। फिर श्रीशठकोप स्वामीजी को थोडी देर तक विश्राम कराते और सायंकाल को तिरुवाराधन के पश्चात उन्हें उप्पु चाऱ्ऱमुदु  (दक्षीण भारत में इमली और जल से बनाया हुआ स्वादिष्ट भोजन) दोसै, मुरमुरे आदि और रात्री में सुखी अदरक और दूध से बना शरबत, चावल की तैयारी आदि भोग लगाते थे। पोत्तीमार इनकी तैयारी श्री शठकोप स्वामीजी के लिए बड़े प्रेम से करते हैं। आऴवार्तिरुनगरी (श्रीशठकोप स्वामीजी का जन्म स्थान और आक्रमणकारियों से रक्षा हेतु ले जाने से पहिले जहां विग्रह पहिली बार स्थापित किया गया वह स्थान) के जैसे हीं श्रीशठकोप स्वामीजी के प्रति प्रेम के कारण सभी शिष्य और मठाधीश वही रुके और मंदिर में सभी उत्सव समय समय पर मनाये। 

अब मन्दिर में घटनाएँ (श्रीरङ्गम्)

जैसे कहा गया हैं “अपि वृक्षाः परिम्लानः” भगवान श्रीराम के वन जाने के बाद जैसे आयोध्या का प्राचुर्य और सुन्दरता खो गई थी वैसेही श्रीरङ्गनाथ भगवान श्रीरङ्गम​ को छोड़ने के पश्चात श्रीरङ्गम​ का भी सुंदरता लुप्त हो गई। आऴवार् जैसे अपने पाशुरों “अऱ्ऱपऱ्ऱार् सुऱ्ऱि वाऴुम अन्दणीर अरङ्गम ” (जो पूर्णत: संसारिक सुखों से पृथक हैं उस स्थान के आस पास सुन्दर शीतल  तिरुवरङ्गम  अपने भक्तों सहित रहते हैं) और “नल्लार्गळ वाऴुम नळिरङ्गम ” (अच्छे लोग शीतल  तिरुवरङ्गम  में निवास करते हैं) में इसकी प्रशंसा किए वह वैसे नहीं हैं। वह अपनी सुंदरता पूरी तरह खो चुका हैं। आक्रमणकारी मुसलमान राजाओं ने श्रीरन्ङ्गम  को ओर अधीक नष्ट कर दिया। उन्होंने एक मजबूत दीवार को तोड़ और स्वयं के लिये कण्णनूर (आज के दिन का तिरुवानैक्काविल) में एक आश्रय बनाया। उन्होंने वहाँ निवास के लोगों के लिये और अधीक संकट उत्पन्न किया। एक व्यक्ति जिनका नाम सिन्ङ्गपिरान  हैं जो श्रीरन्ङ्गनाथ् भगवान के भूमि संपत्ति कि देख रेख करता था उसकी सहायता के उद्देश से उस राजा के पास गये और यह सुनिश्चित किया कि दीवार, हवेली, बुर्ज, सड़के आदि को नुकसान न पहुंचाये। सभी आचार्य गण जो वहाँ निवास कर रहे थे वे इससे बहोत खुश थे और उसकी प्रशंसा किये।    

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/01/yathindhra-pravana-prabhavam-17-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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