यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग २८

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

<< भाग २७

श्रीशैलेश स्वामीजी का श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को अंतिम आज्ञा 

ज्ञान, भक्ति और वैराग्य इन गुणों की निरतिशय अभिवृद्धि होने के कारण महान वैभव के साथ श्रीशैलेश स्वामीजी बहुत समय तक कैङ्कर्यश्री (सेवा का धन) के साथ रहे। अब नित्यविभूति में शाश्वत सेवा का विचार कर उन्होंने अपने आचार्य श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य​ स्वामीजी का स्मरण किया।   

उत्तमने! उलगारियने! मट्रोप्पारैयिल्ला
वित्तगने! नल्ल वेदियने! तण्मुडुम्बै मन्ना!
सुद्द नन् ज्ञानियर् नट्रुणैये सुद्दसत्तुवने!
एत्तनै कालमिरुन्दु उऴल्वेन् इव्वुडम्बैक कोण्डु?

(ओ सबसे अच्छे अस्तित्व! ओ लोकाचार्य! ओ बुद्धिमान बिना किसी समानांतर! ओ वेदों के महान विद्वान! ओ मुदुंबै वंश के उदासीन सरदार! ओ बुद्धि जनों के साथी जो पूर्ण पवित्र हैं! ओ वह जो अच्छे गुणों से परिपूर्ण हैं! कब तक मैं इस शरीर से भोगता रहूँगा?)

उन्हें यह अच्छी तरह ज्ञात हो गया कि उनके आचार्य के पास जाने के लिये यह शरीर हीं सबसे बड़ी बाधा हैं इसलिये उन्होंने अपने आचार्य को उन्हें इस शरीर से मुक्त करने का निवेदन किया। वें बीमार पढ़ गये और थकावट के कारण आराम कर रहे थे। वें अचानक पीड़ा और शोक से उठ गये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी और अन्य शिष्यों ने उनसे पूछा “क्या हुआ?” उन्होंने उत्तर दिया “यह कली का काल हैं। अब सम्प्रदाय और आऴ्वारों के दिव्यप्रबन्ध को कौन पूर्ण रुचि और आस्था से आगे बढ़ायेगा? दास इस कारण से बहुत चिंतित हूँ”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उन्हें साष्टांग दण्डवत प्रणाम कर आश्वासन देते हुए कहे “दास करेगा” तब श्रीशैलेश स्वामीजी कहते हैं “केवल शब्द काफी नहीं हैं” तब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने श्रीशैलेश स्वामीजी के दिव्य चरणों को स्पर्श करके वैसे हीं कहा जैसे प्रमाण वचन लेते हैं कि “दास करेगा” तब श्रीशैलेश स्वामीजी को समादान हुआ; उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को दया कर बुलाकर कहा “आप संस्कृत शास्त्र पर अपना ध्यान मत केन्द्रीत करिये; एक बार श्रीभाष्य को सुनिए परन्तु दिव्य प्रबन्धों का निरन्तर विश्लेषन करते रहिए जो भगवान और हमें प्रिय हैं। जैसे हमारे पूर्वज श्रीरङ्गनाथ भगवान कि पूजा करते रहे और स्थायी रूप से श्रीरङ्गम् में निवास किया” उन्होंने अन्य शिष्यों को बुलाकर कहा “एक विशिष्ट अवतार के समान आप इन्हें सहयोग देते रहना”। जैसे श्रीसहस्रगीति में कहा गया हैं “मागवैकुन्दम् काण एन् मनम् एगमेण्णुम् ” उन्होंने अपने आचार्य श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य​ स्वामीजी के दिव्य चरणों का ध्यान करके उन्होंने निरन्तर श्रीवैकुण्ठ पहुँचने का विचार किया। उन्होंने दिव्य धाम को वैशाख (ऋषभ मास) महिने के बहुलाष्टमी (कृष्णपक्ष के आठवें दिन) के दिन प्रस्थान किया। 

श्रीशैलेश स्वामीजी कि विशिष्टता

तत्पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी और अन्य आचार्यगण अपने आचार्य से बिछुड़ने के वियोग में सदमाग्रस्त हो गये। वें इस शोक से बाहर आकर श्रीशैलेश स्वामीजी के अंतिम संस्कार का कार्य पूर्ण किये और १३वें दिन तिरुवध्ययनम् का कार्य किये। इसके पश्चात प्रतिवर्ष वैशाख महीने में पूर्णिमा के ८वें दिन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी वैष्णवों के लिये एक पर्व रखते थे जिसमे तीन प्रकार के फल (आम, केला और कटहल [पनस]) शामिल हैं। 

श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य​ स्वामीजी कि एक विशिष्टता यह थी कि वें विशिष्ट अर्थों को एक विस्तृत तरिके से समझाते थे जिसे स्त्रीयाँ और अज्ञानी जन भी आसानी से समझ सकते थे। वें भगवान से बिछड़ कर रह नहीं सकते थे और निरन्तर उनकी सेवा करते रहते थे। जैसे कि शिष्य के पहचान के लिये कहा गया हैं “शरीरमर्थं प्राण्ञ्च सद्गुरुभ्यो निवेदयेत् ” (हम सब का शरीर, धन और जीवन आचार्य कि सेवा के लिये हीं उपयोग में लेना चाहिये), श्रीशैलेश स्वामीजी अपने परमाचार्य श्रीशठकोप स्वामीजी और अपने सबसे प्रिय शिष्य उडयवर के विग्रह को आऴ्वार्तिरुनगरि में स्थापित किये। यह श्रीशैलेश स्वामीजी के लिये एक बहुत महत्त्वपूर्ण विशिष्टता थी। 

उनके लिये एक और अनोखी विशिष्टता आऴ्वारों के दिव्य प्रबन्ध में जुड़ाव था और जिस अनुभव और दृढ़ता से वें उसका प्रचार प्रसार करते थे। उनका दिव्य नक्षत्र विशाखा और मास वृषभ हैं। उनकी तनियन् 

नम: श्रीशैलनाथाय कुन्तीनगर जन्मने।
प्रसादलब्ध परमप्राप्य कैङ्कर्य शालिने॥

(मैं श्रीतिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै जिन्हें श्रीशैलेश भी कहकर बुलाते हैं को नमन करता हूँ जिनका  कुन्तीपुरम् में अवतार हुआ। श्रीशठकोप स्वामीजी कि निर्हेतुक कृपा से उन्हें असमानांतर कैङ्कर्य प्राप्त हुआ हैं और इसके कारण वें भव्य थे)

तत्पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी भी अपने आचार्य श्रीशैलेश स्वामीजी के आज्ञानुसार दिव्य प्रबन्धों पर कालक्षेप करने लगे जैसे श्रीसहस्रगीति। जैसे इस श्लोक में उल्लेख हैं 

तदस्तु मूलभूतेषु तेषु दिव्येषु योगिषु
ववृते वरदयन्भक्तिं वगुळाभरणादिषु
तथा तद्दत् प्रपन्नार्थ सम्प्रदायं प्रवर्तकान्
अयमाद्रियत श्रीमान् आचार्यानादिमानपि

(तत्पश्चात, अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ् नायनार्  जो एक श्रीमान (जिनके पास कैङ्कर्य का धन) हैं, आऴ्वारों जैसे श्रीशठकोप स्वामीजी के प्रति भक्ति किये, अत: स्वयं का पोषण किया। इसी तरह उन्होंने पूर्वाचार्यों जिन्होंने अपने जीवन में सम्प्रदाय के अर्थों जिसे आऴ्वारों ने कहा हैं के प्रति बहुत सम्मान दिखाया)। विशिष्ट प्रमाण (ग्रन्थ), प्रमेय (सर्वेश्वर) और प्रमाथ (ग्रन्थों के रचयिता) के प्रति बहुत सम्मान दिखाते हुए आऴ्वार्तिरुनगरि में सम्प्रदाय का पोषण करते रहे। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/12/yathindhra-pravana-prabhavam-28-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – https://pillai.koyil.org

2 thoughts on “यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग २८”

Leave a Comment