श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
अळगिय वरदर् श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शरण हुए
जैसे कि कहा गया हैं “श्रीसौम्य जामातृ मुनीश्वरस्य प्रसादसम्पत प्रथमास्यताय ” (श्रीसौम्यजामातृयोगीन्द्र के सबसे पहिले कृपापात्र) [सबसे उच्च आश्रम यानि सन्यासाश्रम में प्रवेश करने के पश्चात अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ् नायनार् को श्रीसौम्यजामातृमुनि / श्रीमणवाळ मामुनि के नाम से बुलाया जाने लगा], लोग जैसे अऴगिय वरदर्, सेनेश मुदलियाण्डान् नायनार्, आदि ने नायनार् के वैभव के विषय में सुनकर नायनार् के दिव्य चरण कमलों के शरण हुए। उनमें से अऴगिय वरदर् ने सन्यासाश्रम स्वीकार किया और उन्हें रामानुज जीयर् नाम दिया गया [तत्पश्चात उन्हें वानमामलै जीयर् और पोन्नडिक्काल् जीयर् नाम से बुलाया जाने लगा]। जैसे पेरिय तिरुवन्दादि के ३१वें पाशुर में कहा गया “निऴलुम् अडितारुम् आनोम्” ऐसे वें हो गये (हम उनकी परछाई और पदचिह्न हो गये), वें निरंतर चरण की रेखा की नाईं नायनार् कि सेवा में तल्लीन रहा करते थे।
नायनार् का कृपाकर श्रीरङ्गम् पहुँचना
जब वें अपने विश्वसनीय शिष्यों के साथ थे तब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने विचार किया कि “हमें निरन्तर श्रीरङ्गनाथ भगवान कि पूजा करनी चाहिये जो हमारे जीवनरेखा हैं, उनकी स्तुती करनी चाहिये, जब तक यह शरीर हैं श्रीरङ्गम् में वास करना चाहिये; क्या यही हमारे लिये सही नहीं हैं?” तुरन्त उन्होंने श्रीशठकोप स्वामीजी के सन्निधी में जाकर उनके सामने साष्टांग दण्डवत प्रणाम कर उन्हें कहा “क्योंकि आपने श्रीसहसगीति [१०.७.५] में भगवान कि प्रशंसा कि हैं नण्णावसुरर् नलिवेय्द नल्ल अमरर् पोलिवेय्द एण्णादनगळ्एण्णु नान्मुनिवर् इन्बम् तलै सिऱप्प पण्णार् …. (प्रतिकूल राक्षसी लोगों का सर्वनाश करने के लिए, अनुकूल आकाशीय लोगों के खुश होने के लिए और ऋषीगण जो भगवान के दिव्यगुणों के लिये प्रार्थना करते रहते हैं, धुन के साथ गाते हैं …),श्रीरङ्गनाथ भगवान अब वह सब महान हालात देख रहे हैं जो उन्होंने भूतकाल (आक्रमण के पहिले) में देखा हैं। दास श्रीरङ्गनाथ भगवान कि पूजा करना चाहता हैं। दास को आप श्रीमान से अनुमति चाहिये”; श्रीशठकोप स्वामीजी ने प्रार्थना को स्वीकृति प्रदान किये।
तत्पश्चात जैसे इस श्लोक में कहा गया हैं
ततः गतिपयैर्दिवसैः सगुरुः दिव्यदर्शनः।
अजगाम परन्धाम श्रीरङ्गं मङ्गळं भुवः॥
(कुछ दिन बाद श्रीवरवरमुनि स्वामीजी जिनका दिव्य रूप था श्रीरङ्गम् पहुंचे जो धरती पर सर्वोच्च दिव्य निवास और मंगल स्थान हैं), श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने शिष्यों सहित श्रीरङ्गम् के लिये प्रस्थान किये। श्रीरङ्गम् कि ओर जाते समय श्रीविल्ल्पुत्तूर में भगवान के दिव्य चरणों के दर्शन कि इच्छा से जैसे कहा गया हैं “विल्लिपुत्तूर उऱैवान तन पोन्नडि काण्बदोर आसयिनाले” (जो श्रीविल्ल्पुत्तूर में हैं उनके दिव्य स्वर्ण चरणों कि पूजा करने कि इच्छा से) वें श्रीविल्ल्पुत्तूर् पहुंचे, श्रीवटपत्रशाही भगवान (जिनका एक भव्य मन्दिर हैं जो वट पत्र पर शयन मुद्रा में हैं) और श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी कि पूजा किये। तत्पश्चात उन्होंने अन्नवयल्पुदुवै आण्डाळ् (श्रीगोदाम्बाजी जो श्रीविल्ल्पुत्तूर् में रहती हैं जो खेतों में हंसों से घीरा हुआ था) कि प्रशंसा करते हुए पूजा किये जैसे उनके तनियन् में कहा गया हैं नीलातुङ्गस्तनगिरि…गोदा तस्यै नम इदमिदं भूय: (यह अभिवादन श्रीगोदाम्बाजी के लिये हमेशा के लिये रहे जिन्होंने भगवान कृष्ण जो नीळादेवी के छाती पर शयन किये हुए थे के लिये पाशुर गाया)। श्रीगोदाम्बाजी की पूजा कर जैसे इस श्लोक में कहा गया हैं
देवस्यमहिषीं दिव्याम् आदौ गोदामुपासतत्।
यन्मौलिमालिकामेव स्वीकरोति स्वयं प्रभुः॥
(प्रारम्भ में उन्होंने श्रीगोदाम्बाजी कि पूजा किये जो अऴगियमणवाळन् (श्रीरङ्गनाथ भगवान) कि दिव्य पत्नी हैं और उनके लिये बनाई हुई बनमाला वें स्वयं धारण कर भगवान को पहनाती थी और अऴगियमणवाळन् उसे खुशी से स्वयं धारण भी करते थे) उन्होंने इस इच्छा से उस स्थान को छोडे ताकि तिरुमालिरुञ्जोलै कि पूजा कर सके जिसे दिव्य प्रबन्ध में “नेऱिपडुवदुवे निनैवदु नलमे” ऐसे समझाया गया हैं (तिरुमालिरुञ्जोलै जाने के बारें में विचार करना हीं उत्तम हैं), वें तिरुमालिरुञ्जोलै कि ओर आगे बड़े। वें उस स्थान पर पहुंचकर अऴगर के मंदिर में प्रवेश कर, भगवान के दिव्य चरण कमलों कि पूजा किये, दिव्य प्रसाद, श्रीतीर्थ को ग्रहण कर श्रीकुरेश स्वामीजी द्वारा सुन्दर बाहुस्तवम के श्लोक को स्मरण करवाया।
विज्ञापनं वनगिरीश्वर! सत्यरूपम् अङ्गीकुरुष्व करुणार्णव मामकीनाम्।
श्रीरङ्गधामनि यथापुरमेशसोहं रामानुजार्यवशकः परिवर्तिशीय॥
(हे तिरुमालिरुञ्जोलै के रमणीय भगवान जो कृपा के सागर जैसे हैं! आप मेरे सच्चे निवेदन को अपने दिव्य मन से स्वीकार करे। आपको कृपा बरसानी होगी ताकि पहिले के जैसे हीं श्रीरङ्गम् के मन्दिर में दास भगवान के दिव्य चरण कमलों के नीचे रह सके)। वें फिर उत्साह से श्रीरङ्गम् कि ओर प्रस्थान किये ताकि वें तिरुवरङ्गत्तु एम्मान् (श्रीरङ्गम् में मेरे भगवान) के दास बनकर सेवा कर सके।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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