श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
तत्पश्चात वें कावेरी नदी के तट पर पहुँचे जिसे “एण्तिसैक् कणङ्गळुम् इरैञ्जियाडु तीर्थ नीर्” ऐसे वर्णन किया गया हैं (सभी आठ दिशाओं से उत्पन्न किये हुए अस्तित्व उत्साह से कावेरी में पवित्र स्नान करते हैं) और “गङ्गैयिलुम् पुनिदमाय कावेरि” (कावेरी जो गङ्गा से भी अधीक पवित्र हैं) दिव्य कावेरी नदी में पवित्र स्नान किया और केशवादि द्वादश ऊर्ध्वपुण्ड्र को धारण किया (केशव नाम से प्रारम्भ होकर द्वादश दिव्य तिलक) और भव्य दिव्य गाँव तिरुवरङ्गम् को प्रणाम किया। तिरुवरङ्गम् के अनुयायियों कि भारी संख्या उन्हें लेने के लिये आये। उन्होंने उन्हें साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया और श्रीरङ्गम् के बागों को पार कर उनके साथ चले गये। उन्होंने पश्चात श्रीरङ्गम् के गलीयों में गये जैसे इस पाशुर में कहा गया हैं
माडमाळिगैसूऴ् तिरुवीदियुम् मन्नुसेर् तिरुविक्रमन् वीदियुम्
आडल्माऱन् अगळङ्गन् वीदियुम् आलिनाडन् अमर्न्दुऱै वीदियुम्
कूडल् वाऴ् कुलसेकरन् वीदियुम् कुलवु रासमगेन्द्रन् वीदियुम्
तेडुतन्मा वन्माविन् वीदियुम् तेन्नरङ्गर् तिरुवावरणमे
(वें उन गलीयों से गुजरे जहाँ विशाल भवन थी, तिरुविक्रमन् गली से गुजरे, अगळङ्गन् गली से गुजरे, परकाल आऴ्वार् गली से गुजरे, कुलशेकर गली से गुजरे, राजमहेन्द्र गली से गुजरे, सभी श्रीरङ्गम् के सुरक्षीत गलीयों से गुजरे)। दिव्य भवन, दिव्य गलीयाँ, दिव्य स्तम्भ को देखकर वें बहुत आनंदित हुए और श्रीकोट्टूरिलण्णर् जो वहाँ उनके जैसे एक आचार्य थे के तिरुमाळिगै में पहुँचे। श्रीकोट्टूरिलण्णर् ने पहिले भी श्रीसहस्रगीति के इरुप्पत्तु नालायिरपडि के ऊपर तिरुमेय्यम् (श्रीपेरियवाच्चान् पिळ्ळै द्वारा रचित श्रीसहस्रगीति पर व्याख्या) के दिव्य निवास स्थान पर कालक्षेप किया था जिसके पश्चात श्रीरङ्गनाथ भगवान श्रीरङ्गम् में लौटे और वें भी स्थायी रूप से श्रीरङ्गम् में रहने के लिये लौटे। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने श्रीकोट्टूरिलण्णर् को अपना आदर प्रदान किया जिन्हें यह अहसास हुआ कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी एक विशिष्ट अवतार हैं। अण्णर् श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को मन्दिर ले जाने के लिये उस समय के श्रीरङ्गम् मन्दिर के प्रदान अर्चक श्रीतिरुमालै तन्द पेरुमाळ् भट्टर् के तिरुमाळिगै को गये। उन्हें पाकर भट्टर् अत्याधीक आनंदित हुए और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से निवेदन किए कि कृपाकर उन्हें श्रीसहस्रगीति के पाशुरों का अर्थ प्रदान करें। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने पाशुर के अर्थों को सुनाया जो श्रीशठकोप स्वामीजी के वैभव को प्रतिबिंबित करता हैं [ईडु अवतारिकै (६.५ दशक का परिचय जैसे ईडु व्याख्या में दिया गया हैं) हमारे आचार्य अनुसार यह कहता हैं कि श्रीसहस्रगीति ६.५.१ तुवळिलिल मणिमाडम् यह पाशुर हैं जो स्पष्ट रूप आऴ्वार् के स्वभाव को बताता हैं]. भट्टर् इन अर्थों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और कहे “श्रीवरवरमुनि स्वामीजी मुप्पत्ताऱायिरप् पेरुक्कर् (वह जो ईडु को स्पष्टता से विभिन्न अर्थों में समझाता हैं) के समान हैं”। इसके पश्चात उन्होंने उन्हें श्रीरङ्गनाथ भगवान का मङ्गळाशासन् करने का आमंत्रण दिया और अन्य श्रीवैष्णवों को उनके साथ जुडने को कहा। सभी जन साथ में चले प्रारम्भ में श्रीरामानुज स्वामीजी के सन्निधी में इरामानुस नूट्रन्दादि के पाशुर के साथ पोन्नरङ्गमेन्निल् मयले पेरुगुम् इरामानुसन् (जिस क्षण उन्होंने ‘महान श्रीरङ्गम्’ का शब्द सुना श्रीरामानुज स्वामीजी उत्साहित हो जायेंगे). उन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरणों कि पूजा किए और उनकी तनियन गाते हुए पूजा किये यो नित्यमच्युत… से प्रारम्भ कर रामानुजस्य चरणौ शरणं प्रपध्ये तक समाप्त कर।
इव्वुलगन्दन्निल् एतिरासर् कोण्डरुळुम्
एव्वुरुवुम् यान् सेन्ऱिऱैञ्जिनक्काल् -अव्वुरुवुम्
एल्लाम् इनिदेलुम् एऴिल् अरङ्गत्तु इरुप्पुप्पोल्
निल्लादेन् नेञ्जु निऱैन्दु
(इस संसार में जहां भी मैं जाकर श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य रूप कि पूजा करता हूँ वह मुझे श्रीरङ्गम् के दिव्य रूप के समान हीं दिखते हैं और मेरा हृदय भर जाता हैं)।
आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/14/yathindhra-pravana-prabhavam-30-english/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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