यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ३१

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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तत्पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अन्यों के साथ श्रीशठकोप स्वामीजी के सन्निधी में गये जिन्हें श्रीमहालक्ष्मी के स्वामी तेन्नरङ्गन्  (श्रीरन्ङ्गनाथ​ भगवान) के दिव्य चरण कमलों के रक्षात्मक खड़ाऊँ माना जाता हैं। उन्होंने उनकी पूजा किये, परिभ्रमण तरिके के से भीतर गये, श्रीरन्ङ्गनाच्चियार्  के सन्निधी में पहुँचे जिनकी रामानुज नूट्रन्दादि में अङ्गयल् पाय् वयल् तेन्नरङ्गम् अणियाग मन्नुम् पङ्गयमामलर्प्पावै (श्रीरन्ङ्गनाच्चियार्  जो बड़े कमल के पुष्प पर विराजमान हैं वह श्रीरङ्गम्  में दक्षीण के निवास स्थान में दिव्य आभूषण जैसे चमकती हैं जो खेतों से घीरी हुई हैं जिसमे सुन्दर मछली हैं) ऐसे प्रशंसा किये हैं, अम्माजी के दिव्य चरणों कि “श्रीरङ्गराज महिषीं श्रियमाश्रयामः” (हम श्रीरङ्गम्  के दिव्य चरणों के धन को प्राप्त किये हैं जो श्रीरङ्गराजन् के दिव्य स्वामी हैं) कहकर पूजा किये और उनकी कृपा को प्राप्त किये। पश्चात दिव्य मण्टप से होते हुए वें मन्दिर के भीतर गये और बलिपीटम् (ऊंचा स्तम्भ जहाँ विशिष्ट समय पर दिव्य प्रसाद अर्पण किया जाता हैं) के सामने साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया, फिर श्रीरन्ङ्गनाथ भगवान के मुख्य सन्निधी में गये, परिक्रमा लगाये और प्रणवाकार विमान कि पूजा किये (श्रीरन्ङ्गनाथ भगवान के मुख्य सन्निधी के पवित्र गर्भगृह के उपर जो प्रवणम के रूप में हैं जो सत्यलोक में ब्रह्माजी के द्वारा पूजा किया गया) और श्री विश्वकसेनजी के सन्निधी, श्रीरन्ङ्गनाथ भगवान के मुख्य दिव्य मण्टप में प्रवेश कर साष्टांग दण्डवत प्रणाम कर कहा “आऴिवण्णा! निन् अडियिणै अडैन्देन् अणिपोऴिल् तिरुवरङ्गत्तम्माने!” (ओ जिसका सागर के समान रंग हैं! ओ जो श्रीरङ्गम् में निवास करता हो! जो कावेरी नदी से घीरे हो! मैंने आपके दिव्य चरणों को प्राप्त कर लिया हैं)। उन्होंने तिरुमणत्तूण (पवित्र गर्भगृह के बाहर श्रीरन्ङ्गनाथ भगवान के सामने दो बड़े स्तम्भ) के समीप गरुडजी कि पूजा किये, द्वार पालकों से आज्ञा पाये, मुख्य सन्निधी में प्रवेश किया, हृदय से भगवान कि प्रशंसा किये। उन्होंने भगवान का मङ्गळाशासन्  किया जैसे दिव्य प्रबन्ध में बताया गया हैं जैसे कि पेरुमाळ् तिरुमोऴि “अरङ्गमाकोयिल् कोण्ड करुम्बिनैक् कण्डु कण्णिनै कळित्तु” (गन्ने कि पूजा करना जिसने श्रीरङ्गम्  के विशाल मन्दिर में निवासस्थान पाया हैं जिससे दोनों नेत्र आनंदित महसूस करती हैं), श्रीरन्ङ्गनाथ भगवान के दिव्य चरणों से लेकर दिव्य मुकुट तक रस प्राप्त करना जैसे श्रीयोगीवाहन स्वामीजी अमलनादिपिरान् में गाते हैं कि उन खोये हुए दिनों पर दु:ख होना जब भगवान कि पूजा न कर सके जैसे मुदल् तिरुवन्दादि में उल्लेख किया गया हैं “प​ऴुदे पलपगलुम् पोयिन​” (मैंने पूजा न करके बहुत समय खोया हैं)। उनकी प्रशंसा करना जैसे तिरुप्पल्लाण्डु में हैं “पडुत्त पैङ्गणैप् पळ्ळिकोण्डानुक्कु पल्लाण्डु कूऱुदुमे” (हम उनकी प्रशंसा करें जो निरन्तर रहने के लिये शेषशैया पर शयन किये हैं)। तत्पश्चात उन्होंने श्रीभक्तान्घ्रिरेणु स्वामीजी कि तिरुमालै पाशुर “पायु नीरङ्गन्तन्नुळ् पाम्बणैप् पळ्ळि कोण्ड मायनार् तिरुनन्मार्वुम्” से प्रारम्भ होकर निवेदन किया (भगवान के दिव्य, सुन्दर स्तन जो अद्भुत अस्तित्व हैं, जिन्होंने अपना निवास स्थान श्रीरङ्गम्  जो बहती हुई कावेरी नदी से घीरी हैं वहाँ शेषशैय्या पर हैं) और “आयसीर् मुडियुम् तेसुम् अडियारुक्कु अगलामे” से अंत किया (क्या भगवान जिनके पास दिव्य मुकुट हैं उनके अनुयायियों को उन्हें छोड़ कर रहना मुमकिन हैं?) उन्होंने व्यूह सौहार्दादि (दिव्य गुण जैसे श्रेष्ठ स्वभाव, उदार हृदय आदि को दिखाना) भगवान के गुणों का अनुभव किया और फिर श्रीरन्ङ्गनाथ भगवान कि पूजा किये जो कृपा कर सेरपाण्डियन् (सिंहासन का नाम) के सिंहासन पर विराजमान हैं। उन्होंने श्रीरन्ङ्गनाथ भगवान कि पूजा कि जैसे श्रीरन्ङ्गनाथस्तवम् के पूर्वशतकम ७४ में उल्लेख किया गया हैं।  

अब्जन्यस्तपदाब्जमञ्चितकटीसंवादिकौशेयकं
      किञ्चित्ताण्डवगन्धिसंहननकं निर्व्याजमन्दस्मितम्
चूडाचुम्बिमुखाम्बुजं निजभुजाविश्रान्तदिव्यायुधं
      श्रीरङ्गे शरदः शतं तत इतः पश्येम लक्ष्मीसखम्

(हम ओर सौ वर्ष तक तिरुवरङ्गम् के श्रीरन्ङ्गनाथ भगवान कि पूजा करें जिनके दिव्य चरण कमल  के आसान पर सुशोभित हैं, जिनके अपने दिव्य कमर के लिए उपयुक्त दिव्य रेशमी वस्त्र हैं, जिनका दिव्य स्वरूप हैं जैसे कि वह नृत्य कर रहा हैं, जिनकी प्राकृतिक मुस्कान हैं, जिनके दिव्य कमल समान मुख हैं जो उनके दिव्य मुकुट को गले लगा रहा हैं, जिनके पास दिव्य शस्त्र हैं और जो श्रीमहालक्ष्मीजी को प्रिय हैं)। उन्होंने तत्पश्चात मुमूक्षुप्पडि द्वय प्रकरण सूत्र २१ को गाया “तिरुक्कैयिले पिडित्त दिव्यायुदङ्गळुम् वैत्तञ्जेलेन्ऱ कैयुम् कवित्त मुडियुम् मुकमुम् मुऱुवलुम् आसनपद्मत्तिले अऴुन्दिय तिरुवडिगळुमाय निऱ्किऱ निलये नमक्कुत् तञ्जम्(जिस शैली से श्रीरन्ङ्गनाथ भगवान अपने दिव्य हाथों में दिव्य अस्त्र को पकड़े हैं, जिस तरह से अपने हाथों में पकड़े हैं वें कह रहे हैं कि किसीसे घबराने कि कोई बात हीं नहीं हैं, मुकुट उनके दिव्य चहरे को सजा रही हैं और अपने दिव्य चरणों को दिव्य कमलों पर दृढ़ता से रखे हैं जो यह दर्शाता हैं कि वें हीं हमारे शरणस्थान हैं)। उन्होंने श्रीरन्ङ्गनाथ भगवान के दिव्य मुख को एक गरीब आदमी जो धन को कैसे देखता हैं वैसे देखा, श्रीरन्ङ्गनाथ भगवान आचार्यों के एक महान धन हैं, उनके लाल दिव्य चेहरे और कस्तूरी तिलक को एक क्षण के लिये भी आँखों से हटाये बिना देखा। उसी समय में भी श्रीरन्ङ्गनाथ भगवान ने अपनी कृपा उन पर बरसाई वैसे हीं जैसे पालक अपने पुत्र को देखते हैं जो बहुत दिनों से अन्य स्थान में रहता हैं और पुन: घर लौटता हैं और सोचता हैं “हम ढूंढगे और जिन्हें हम चाहते हैं उन्हें प्राप्त करें”, उन्हें अपने ध्यान के योग्य एक अस्तित्व के रूप में मानते हुए जैसे उन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी को माना था।

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/15/yathindhra-pravana-prabhavam-31-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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