श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
तत्पश्चात भगवान ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को श्रीतीर्थ, प्रसाद, श्रीशठारी और दिव्य पुष्पमाला प्रदान कर अलंकृत किया। वें ऐसे प्रसन्न हो गये जैसे कि उन्हें एक राजा के समान मुकुट और हार प्राप्त हुआ, यह सोचते हुए कि “हम श्रीरङ्गनाथ भगवान के दिव्य कृपा के लक्ष्य हो गये हैं”। श्रीतिरुक्कोट्टूरिल् अण्णर् कि ओर देखते हुए उन्होंने कहा “श्रीरङ्गनाथ भगवान ने दास के लिए यह कृपा बरसाई हैं”। इसके पश्चात वें अण्णर् के साथ उनके दिव्य तिरुमाळिगै में गये जहां भट्टर् श्रीरङ्गनाथ भगवान का शेष प्रसाद भेजे। उन्होंने उसे स्वीकार कर पाया। इसके पश्चात अण्णर् ने उन्हें पूर्वाचार्यों के अच्छे शब्दों और कार्यों पर कालक्षेप किया। तत्पश्चात वें अण्णर् के साथ कई दिव्य तिरुमाळिगै में गये जहां पूर्वचार्य विराजमान करते थे। जब उन्होंने श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के दिव्य तिरुमाळिगै में गये तब उन्होंने साष्टांग दण्डवत प्रणाम कर उनकी तनियन् का अनुसंधान किया
वाऴि उलगासिरियन् वाऴि अवन् मन्नुकुलम्
वाऴि मुडुम्बै एन्नुम् मानगरम् वाऴि
मनञ्चूऴन्द पेरिन्बमल्गु मिगु नल्लार्
इनञ्चूऴन्दु इरुक्कुम् इरुप्पु
(श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी का मंगल हो! उनके महान वंशज का मंगल हो! महान मुडुम्बै स्थान का मंगल हो! उन महान लोगों का मंगल हो जो मन को घेरे हुए है और परमानंद को लाये हैं)। फिर उनके मन में एक और पाशुर उत्पन्न हुआ:
मणवाळन् माऱन् मनमुरैत्तान् वाऴि
मणवाळन् मन्नुकुलम् वाऴि मणवाळन्
वाऴि मुडुम्बै वाऴि वडवीदि तान्
वाऴियवन् उरै चेय्द नूल्
(श्रीअऴगियमणवाळप्पेरुमाळ् नायनार् (श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के भाई) श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य मन को कहे। उन मणवाळन् के दिव्य वंशज का मंगल हो। मणवाळन् का मंगल हो! मुडम्बै का मंगल हो! उत्तरवीथी (वह गली जहां श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी की तिरुमाळिगै का निर्माण हुआ हैं) का मंगल हो! उनके द्वारा रचित स्तोत्र पाठ का मंगल हो!) यह दो आचार्य (श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी और श्रीअऴगियमणवाळप्पेरुमाळ् नायनार्) पर तीन श्लोकों को उनके अतुलनिय वैभव पर संकलित किया गया हैं:
वाणीं पुण्यसुधापकां शठजित्स्वैरं विगाह्यादरात्
आनीयामृत मत्रचक्रदुकुबौ लोकोपकारात्मकौ ।
यौ वाक्भूषण देशिकेन्द्रहृदयापिक्यौ प्रबन्धाविमौ
ते वन्दे भुवनार्यसुन्दरवरौ कृष्णात्मजौ देशिकौ ॥
(मैं उन दो आचार्य श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी और श्रीअऴगियमणवाळप्पेरुमाळ् नायनार् जो श्रीकृष्णपाद स्वामीजी के पुत्र हैं के नत मस्तक होता हूँ जो सांसारियों (भौतिकवादि क्षेत्र के निवासी) कि सहायता करने का स्वभाव रखते हैं, श्रीवचन भूषण और आचार्य हृदयम् की रचना किये, श्रीशठकोप स्वामीजी के श्रीसहस्रगीति में पूर्ण समर्पण से तल्लीन होना और अमृतमय अर्थों से बाहर आना),
आर्यसौम्यवरश्शठारिकलिजित भट्टेश मुख्यात्मनाम्
भक्तानां विमलोक्तिमौग्तिक मणिनाथाय चक्रे ब्रुशम् ।
कृत्वा साधुरहस्यत्रयार्थम् अखिलं कूटं विश्पचित्रियम्
लोकार्यावरजस्सुशिक्षकवरः चूडामणिः शोभते ॥
(श्रीअऴगियमणवाळप्पेरुमाळ् नायनार् श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के दिव्य अनुज थे; उन्होंने सतसम्प्रदाय (अच्छे, परंपरागत तत्त्व) के अर्थों को सीखा; वें सभी से पूजे जाते थे और एक महान आभूषण थे। महान भक्त जैसे श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीपरकाल स्वामीजी, श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी, आदि के पवित्र शब्द जो मोती समान हैं, उन्होंने पूर्वाचार्यों के दिव्य मन के साथ रहस्यत्रय (तिरुमंत्र, द्वय और चरम श्लोक) के अर्थों का घहरा अर्थ निकाला) और
यस्याहं कुलदैवतं रघुपतेः आदनं श्रीसखम्
कावेरी सरितिन्दरीपनगरी वासस्थली पुण्यभूः।
कृष्णो मान्यगुरुः वरेण्यमहिमा वेदान्त विद्यानिधिः
भ्राता सौम्यवरः स्वयन्तु भुवनाचार्योसि कस्ते समः॥
(जिनके लिए श्रीरङ्गनाथ भगवान जो चक्रवर्ती भगवान श्रीराम के आराध्य देव हैं, उनके कुलदेवता हैं, जिनके लिए श्रीरङ्गम् के मन्दिर की पूण्यभूमी जो कावेरी नदी के दो धारा के मध्य में हैं आप की निवास भूमि हैं, जिनके लिए श्रीकृष्णपाद स्वामीजी जो प्रसिद्ध व्यक्तित्त्व और अति आदरणीय हैं, जो पिता और आचार्य दोनों हैं, जिनके लिए श्रीअऴगियमणवाळप्पेरुमाळ् नायनार् जो दोनों वेदांतम् (संस्कृत और द्राविड) के धनी हैं के अनुज हैं, ऐसे श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी सम्पूर्ण संसार के आचार्य हैं। आपके समान संसार में कौन हैं?)
श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के दिव्य तिरुमाळिगै को देखते हुए उन्होंने कहा “रहस्यम् विळैन्द मण्णन्ऱो?” (क्या यह वह स्थान नहीं हैं जहां से अनगिनत रहस्य अर्थ आये?) वें कुछ समय तक वहाँ रूक कर कोट्टूरिल अण्णर् स्वामीजी को श्रवण किया जो श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के वैभव को समझा रहे थे; आभार महसूस करते हुए उन्होंने अण्णर् को पूजते हुए कहा “हम कितने भाग्यवान हैं!” उन्होंने फिर कृपा कर मन्दिर में प्रवेश किया जो पूर्वाचार्यों के तिरुमाळिगै (वें अपने तिरुमाळिगै से भी अधीक मन्दिर में अपना समय व्यतित करते थे) के समान थी। भगवान ने उन्हें श्रीतीर्थ, पुष्प हार, परियट्टम् (दिव्य वस्त्र जिसे माते पर पहनते हैं) और श्रीशठारी दिये। जैसे कि कहा गया हैं
तस्मिन् सस्मित नेत्रेण श्रीमता शेषशायिना ।
सत्कृत: कृतवान् वासं किञ्चित्तत्र तदन्तिके ॥
(उन्होंने कुछ समय तक श्रीरङ्गनाथ भगवान के दिव्य चरणों में अपना समय व्यतित किया जो श्रीमान हैं और जिनके पास विशाल, दीर्घ, खिले हुए दिव्य नेत्र हैं और जिन्होंने उनके तरफ अनुग्रह से देखा)। श्रीरङ्गनाथ भगवान ने उन्हें कहा “जब तक यह शरीर हैं आप मन्दिर का कार्य संभालते हुए यहाँ विराजमान रहिए जैसे हमारे उडयवर् और सम्प्रदाय के रहस्यों (तत्त्वज्ञान के गुप्त अर्थ) का विश्लेषण करते रहे” जिसे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी “महाप्रसादम्” (यह महान उपहार हैं) कहकर मान गये और अपनी तिरुमाळिगै वहाँ बनाये।
उस समय में उन्होंने पूर्वाचार्यों के सभी रहस्यप्रबन्ध कि हस्तलिपि कि जांच किये, जो दीमक से नष्ट हो गये उन्हें पुन: लिखा और प्रकाश मे लाया। एक दिन वानमामलै जीयर स्वामीजी ने उन्हें कहा “उत्तम नम्बी जो भगवान के तिरुवाराधन का कैङ्कर्य कर रहा हैं उसे सही ढंग से नहीं कर रहा हैं; वें भगवान को अर्पण करने के प्रसाद का प्रमाण कम कर रहा हैं”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बहुत नरम स्वभाव के हैं इसलिए उत्तम नम्बी पर कोई कठोर कार्रवाई नहीं किये। उन्होंने जीयर को भगवान से प्रार्थना करने को कहा “कृपया उन्हें सुधार दी जिये ताकि बिना कमी के वें उनकी तिरुवाराधन को आचरण में लाये” और वें स्वयं भगवान का यह कैङ्कर्य कर सके।
आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/16/yathindhra-pravana-prabhavam-32-english/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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