यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ४६

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

<< भाग ४५

अण्णन् श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शरण होते हैं 

तत्पश्चात जैसे इस श्लोक में कहा गया हैं 

रामानुजपदाम्बोज सौगन्द्य निदयोपिये
असाधारण मौनत्यमवधूय निजम्दिया।
उत्तेजयन्तः स्वात्मानं तत्तेजस्सम्पदा सदा
स्वेषामतिशयं मत्वा तत्वेन शरणं ययुः॥

(जिन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरणों से सुगन्ध का धन प्राप्त किया हो, महानता से स्वयं को मुक्त कर स्वयं के लिये एक चमक प्राप्त करने का इरादा जो उनकी अपनी थी, यह विचारकर कि वे उन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के प्रचुर तेज के कारण महानता प्राप्त करेंगे, उन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को पूरी तरह से समर्पित कर दिया। कन्दाडै अण्णन् सहित सभी आचार्य, श्रीरामानुज स्वामीजी के आशिर्वाद से और उनके जन्म, ज्ञान और आचरण के विषय में महानता के बिना, अपने मन में दृढ़ रहते हुए कि केवल जीयर् स्वामीजी के दिव्य चरणों के सम्बन्ध से उन्हें पूर्ण महानता प्राप्त होगी, जीयर् स्वामीजी को अपने दिव्य चरणों के शरण होने के लिये सम्पर्क किया। अण्णन् जीयर् स्वामीजी के दिव्य उपस्थिती में गये और उन्हें कहे “आपके द्वारा अनुयायीयों पर कृपा बरसाने का दिन आगया हैं। कुछ जो एम्बा द्वारा प्रतिबंध लगाये गये और कुछ ने अपने राह को भगवान उनके स्वप्न में कहने पर सुधार लिये और सभा में उपस्थित हो गये। श्रीमान को सभी पर कृपा बरसानी होगी”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने वानमामलै जीयर् स्वामीजी को बुलाकर समाश्रयण कि सभी व्यवस्था करने को कहा। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने भगवान का तिरुवाराधन किया और भगवान को दिव्य प्रसाद और फल अर्पण किया। उन्होंने जो समाश्रयण प्राप्त करनेवाले हैं सभी को अन्दर बुलाया और सभी कार्य किये जो सामान्यता होती हैं। ताप: पुण्ड्र स्थता नाम मंत्रो यागश्च पंचम: (दिव्य चिन्ह को उभारना, भगवान के १२ ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक को धारण करना, दास नाम प्रदान करना, भगवान का दिव्य मन्त्र प्रदान करना और भगवान कि पूजा करने कि विधि सिखाना)। वें अण्णन् स्वामीजी कि ओर बड़ी दया और प्रसन्नता से देख रहे थे। 

अप्पाच्चियारण्णन् वानमामलै जीयर् स्वामीजी के शरण होते हैं 

जीयर् स्वामीजी वानमामलै जीयर् स्वामीजी कि ओर दिखाते हुए और बड़ी कृपा से कहे “यह हमारे हृदय के बहुत प्रिय हैं। हमें जो भी महानता प्राप्त हो वो इन्हें भी प्राप्त हो”। अण्णन् को श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य मन का पता था और कहा “दास उसके चरणों कि शरण हो जाता” जिसके लिये श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उत्तर दिया “जो हमारा हैं कैसे हम उसे अन्य को दे देते?”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के इच्छा कि ओर इशारा करते हुए अण्णन् ने अपने सम्बंधीयों कि ओर दया से देखा। आच्चि का पुत्र अण्णा खड़े होकर उन्हें साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया; जीयर् ने उससे उसकी इच्छा को पूछा; उसने कहा “श्रीमान दास के स्वामी वानमामलै जीयर् स्वामीजी के दिव्य चरण पादुका को अपने साथ ले जाने कि अनुमती प्रदान करे”। जीयर् स्वामीजी बहुत प्रसन्न हुए और पूछा “क्या आप हमारे अप्पाच्चियारण्णन् ! हैं, आच्चि के पुत्र”। उन्होंने अप्पाच्चियारण्णन् का हाथ पकड़ अपने पास बैठाया और जीयर स्वामीजी खड़े होकर वानमामलै जीयर् स्वामीजी को उनके (जीयर् स्वामीजी के) स्थान पर विराजमान होने को कहा। उन्होंने अप्पाच्चियारण्णन् को वानमामलै जीयर् स्वामीजी को सौंप दिया और उनका समाश्रयण करने को कहा। वानमामलै जीयर् स्वामीजी घबरा गये; जीयर् स्वामीजी ने कहा “घबराये मत; मुझे जो प्रिय हैं वह करिये”। जीयर् स्वामीजी ने अप्पाच्चियारण्णन् को आलिंगन कर उन्हें वानमामलै जीयर् स्वामीजी के चरणों के शरण होने को कहा। तुरन्त अप्पाच्चियारण्णन् के अनुज दाशरथी अप्पै भी वानमामलै जीयर् स्वामीजी के दिव्य चरणों कि शरण हो गये। वानमामलै जीयर् स्वामीजी अपने स्थान से उठ खड़े हुए और कहा “कृपया दास को जाने दीजिये; यह बहुत हो गया” कुछ दूर जाकर और वहाँ से साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। तत्पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कन्दाडै अण्णन् के अन्य अनुज कन्दाडै अप्पन् और अन्य अनुजों, सम्बन्धीयों और उनके पत्नीयां, बच्चों को समाश्रित किया; कुल मिलाकर १२० जनों को समाश्रित किया। सिङ्गरैयर्  और अन्य भी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से समाश्रित हुए। मन्दिर से अर्चक भगवान का प्रसाद लेकर आये। जीयर् बाहर जाकर मन्दिर का सम्मान पूर्ण आदर से ग्रहण कर और कृपाकर सभी को अन्दर बुलाया। कन्दाडै  अण्णन् ने सभी को पोषित किया और सभी को उचित रूप से बहुमान प्रदान किया। तत्पश्चात सभी जन जो समाश्रित हुए मन्दिर के भीतर गये और श्रीरामानुज स्वामीजी, आऴ्वार्, अम्माजी और भगवान सभी का मङ्गळाशसन्  कर जीयर् स्वामीजी के मठ में आये। वें सभी तदियाराधन प्राप्त किये। सभी प्रसन्न हुए और तोऴप्पर  के स्वप्न को स्मरण किया जब श्रीवरदराज भगवान ने कहा था “जगत रक्षार्पणोऽनन्दा” (अनन्दाऴ्वान  जो इस संसार कि रक्षा में निरत हैं अवतार लेंगे…) [इस प्रबंध के ५वें हिस्से को पढे]। सभी जन जो श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के चरणों के शरण हुए हैं उनके अलौकिक, अद्भुत कथन को स्मरण कर इस श्लोक को गाया 

चिरविरहतश्चिन्ता सन्तानजर्जर चेतसम्
भुजगशयनं देवम्भूयः प्रसादयितुं ध्रुवम्।
यतिकुलपतिः श्रीरामानुज स्व्यमित्य भू
तिधिति समधुषन् सर्वे सर्वत्र तत्र सुतीजनाः॥

(वहाँ के बुद्धिमान जन यह कहते हुए बहुत खुश थे क्योंकि श्रीरङ्गनाथ​ भगवान श्रीरामानुज स्वामीजी के विषय पर विचार करते हुए शिथिल थे, जो इस संसार के छोड़ने के पश्चात यतियों के स्वामी हैं, श्रीरङ्गनाथ​ भगवान को खुश करने हेतु उन्होंने पुनः श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के रूप में अवतार लिया हैं)। उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को श्रीरामानुज स्वामीजी का अपरावतार माना, उनके चरणों के शरण हुए और उनके प्रति बहुत स्नेही थे। जीयर् स्वामीजी जब अपने शिष्यों सहित ऐसे जीवन व्यतित कर रहे थे तब उन्होंने अपने शिष्य तिरुवाऴियाऴ्वार् पिळ्ळै को श्रीकोसम्  (श्रीरामानुज सम्प्रदाय पर हस्तलिपि) को जाँचने और उन्हें सुरक्षित रखने को कहा; उन्होंने पुराने / क्षतिग्रस्त हस्तलिपि को पुनः लिखने और प्रतिलिपि करने के लिये लेखको कि नियुक्ति किये। जब भी आवश्यक हो उनके पास श्रीकोसम् उपलब्ध थी ताकि ईडु को और विस्तार से समझाने के लिये वें इसका उपयोग कर सके। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/30/yathindhra-pravana-prabhavam-46-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – https://pillai.koyil.org

2 thoughts on “यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ४६”

Leave a Comment