श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
तत्पश्चात जैसे इस श्लोक में कहा गया
अयं पुनः स्वयंव्यक्त अनवतारन् अनुत्तमान्।
निधाय हृदिनीरन्तरं निद्यायन् प्रत्यभुत्यत॥
विशेषेण सिशेवेच शेषभोग विभूषणम्।
अमेयमात इमम्धामं रमेशं रङ्गशायिनम्॥
ध्यायं ध्यायं वपुस्तस्य पायं पायं दयोदतिम्।
कायं कायं गुणानुच्चैस् सोयं तत्भूयसान्वभूत्॥
(अर्चावतार का ध्यान करते हुए बिना रुके श्रीवरवरमुनि स्वामीजी नें अपने दिव्य नेत्रों को खोला जो स्वयंव्यक्त रूप हैं)। उन्होंने सर्वोच्च प्रभा जिन्हें श्रियःपति कहते हैं का ध्यान किया जो श्रीरङ्गम में आदिशेष के समान दिव्य रूप में शयन किये हैं। श्रीरङ्गनाथ भगवान के दिव्य रूप का ध्यान करते हुए, समुन्द्र के समान उनके दिव्य गुणों को ग्रहण करते हुए और उनके गुणों कि प्रशंसा करते हुए श्रीवरवरमुनि स्वामीजी निरन्तर श्रीरङ्गनाथ भगवान के तेज रूप का आनन्द लेते हुए उन्होंने श्रीरङ्गनाथ भगवान के विग्रह के गुणों का दयापूर्वक ध्यान किया। फिर श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरणों के लिये पूर्ण स्नेह के साथ स्नान किया। यह कहा जाता हैं यतीन्द्र के लिये स्नेह भगवान के लिये स्नेह कि सीमा हैं। अपने स्नान के पश्चात उन्होंने अपना नित्यानुष्ठान किया, ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धारण किया, अपने नित्य तिरुवाराधन भगवान श्रीरङ्गनाथ को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया जैसे कहा गया हैं
आत्मस्वरूप यातात्म्यम् आचार्यधीन दैवयत्।
आम्नायानां रहस्यन्त तकिलेभ्यः प्रकाशयन्॥
सर्वं यतिपतेरेव कुर्वन्नादेश पूर्वकम्।
कृत्याकृत्येशु कर्तृत्वं कृतीकिमपि नस्पृशन्॥
तदस्तस्य मुखोल्लासं चिकीर्शन्नेव केवलम्
(श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने कार्यों को श्रीरामानुज स्वामीजी के चेहरे पर खुशी अभिव्यक्ति के उम्मीद में कर रहे थे, बिना किसी के विचार के वे गतिविधि कर रहे थे; इससे उनके आचार्य पारतंत्र्यम (पूर्णत: अपने आचार्य पर निर्भर रहना) के गुण प्रगट हो रहे थे जो वेदों में कहा गया हैं और जो आत्मस्वरूप के सच्चा लक्षण हैं)।
पुन: श्रीशैलनाथार्य कालक्षेप मण्टप में सन्निधिस्थम्बमूलभूषणम् स्तम्भ के समीप सुख पूर्वक बैठ गये।
कन्दाडै अण्णन् के पुरुषकार से एऱुम्बियप्पा वहाँ आये और सुखासीन प्रसन्नमुखमुद्रा में स्थित श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को देख अपनी इच्छा व्यक्त किये “प्रभो! आचार्यवर! आप श्रीमान दास को अपने चरणों के शरण ले लीजिए”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने भी उनपर कृपा कर स्वीकार किया और पञ्चसंस्कार किया और उनके माते को उनके दिव्य चरणों के सुशोभित किया। फिर अपने मन में यह निश्चय किया कि यह अप्पा का मङ्गळाशासन् होगा द्वय मंत्रानुसंधान् किया। और उस निष्ठा को स्थिर करने के लिये उनको अपने साथ लेकर श्रीरङ्गनाथ भगवान के मन्दिर गये वहाँ जाते हुए वह पहिले चारमुख वाले गोपुर की वन्दना किये फिर मन्दिर के अन्दर प्रवेश कर श्लोक में कहे अनुसार सभी सन्निधी में मङ्गळाशासन् किया
देवीगोदा यतिपति शठद्वेशिणौ रङ्गशृङ्गम्
सेनानाथो विहगवृषभः श्रीनिधिस्सिन्धुकन्याः।
भूमानीळा गुरुजनवृतः पुरुषश्चेत्यमीशाम्
अग्रेनित्यं वरवरमुनेः अङ्घ्रियुग्मं प्रपद्ये॥
(मैं प्रतिदिन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों में पूजा करता हूँ जो कृपाकर परमपदनाथ का मङ्गळाशासन् करते हैं जो श्रीगोदादेवी, श्रीरामानुज स्वामीजी, श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीरङ्ग विमान, श्रीविश्वक्सेनजी, श्रीगरुड़जी, श्रीरङ्गनाथ भगवान, श्रीरङ्गनायिका अम्माजी, भूदेवी, नीळादेवी और आऴ्वारों से घीरे हैं और सभी सन्निधी में मङ्गळाशासन् किया। तत्पश्चात उन्होंने श्रीरङ्गनाथ भगवान (मूल मूर्ति और उत्सव मूर्ति) कि पूजा किये। फिर जैसे इस श्लोक में कहा गया हैं)
उपेत्य पुनरप्येश निजमेव निवेशनम्।
निवेद्य निखिलं तत्र यतीन्द्राय नमस्यया॥
(श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने मठ को लौटकर और पूर्ण घटनाओं को श्रीरामानुज स्वामीजी जो कृपाकर उनके मठ में निवास कर रहे हैं को अवगत करवाया)। वें फिर श्रीशैलनाथार्य कालक्षेप मण्टप में प्रवेश किया वहाँ एऱुम्बियप्पा को श्रीपादतीर्थ प्रदान किया जिससे वें इस संसार बंधन से मुक्त हो जाये। आगे इस श्लोक में कहा गया हैं
अथ माध्याह्निकं कृत्यं कृत्वा सर्वोत्तरं मुनिः।
आराध्य विधिवत देवमन्वभूत रङ्गभूषणम्॥
ततस्सं मुखसम्स्पर्शरसेन सुगन्धिना।
शुचीना सुकुमारेण सत्वसं शुद्धि हेतुना॥
भक्ति भूतं प्रभूतेन भोज्येन भगवत्प्रियान्।
तत् परस्तर्पयामास तदीयप्रेम वृत्तये॥
आत्मानम् आत्मनापश्यन् भोक्तारं पुरुषम्बरम्।
अनुयागं यथायोगं निस्सङ्गो निरवर्तयन्॥
(तत्पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी जो एक महान सात्विक हैं अपने माध्यानिक अनुष्ठान् कर और सही तरीके से श्रीअरङ्गनगरप्पन् का तिरुवाराधन किया)। उन्होंने भगवान के गुणों का ध्यान किया। तत्पश्चात भगवान के परमकोमल मुख के उचित एवं उनके प्रिय सरस, सुवासित पवित्र, मन को शुद्ध करनेवाले भक्ति पूर्वक अधिक से अधिक भोज्यपदार्थ उनको निवेदन किये और उस निवेदित प्रसाद से भागवतों को संतुष्ट किये और शिष्यों की प्रार्थना से अपना शेष प्रसाद एऱुम्बियप्पा को प्रदान कर पवित्र किये। एऱुम्बियप्पा भी अपने स्वाचार्य श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का अति दुर्लभ उच्छिष्ट प्रसाद पाकर बड़े हर्षित हुए। जैसे श्रीभक्ताङ्घ्रिरेणु स्वामीजी के पाशुर मे कहा गया हैं “पोनगम् सेय्द सेडम् तरुवरेल् पुनिदमन्ऱे” (अगर भगवद्भक्त आचार्य का उच्छिष्ट ग्रहण करते हैं तो वह पवित्र हैं)।
आदार – https://granthams.koyil.org/2021/09/06/yathindhra-pravana-prabhavam-53-english/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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