श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उत्तर दिव्य देशों के भगवान का ध्यान करते हैं
फिर एक दिन सुबह श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कृपाकर श्रीशैलेश स्वामीजी के कालक्षेप मण्टप में जाते हैं और दिव्यदेशों का ध्यान करते हैं। एक कमजोर दिव्य मन के साथ वें करीब चार घंटों तक आनंदपूर्वक दिव्यदेशों के नामों का ध्यान कर रहे थे। वें “चिन्दिक्कुम् दिसैक्कुम् तेऱुम् कै कूप्पुम्”, “वेरुवादाळ् वाय्वेरुवि”, “इवऱिराप्पगल् वाय् वेरीई” दिव्यप्रबन्ध का स्मरण कर रहे थे और विरक्त दशा में विश्राम कर रहे थे। आचार्यगण कालक्षेप के लिये पधार गये थे। जैसे इस श्लोक में उल्लेख हैं
अव्याजबन्धोर् गरुडद्वजस्य दिव्याञ्चिदान्यायतनानिभूयः
द्यायम्स्तमोनाशकराणि मोहावशात्तदेवप्रहरत्वयम्सः
यात्वा दिव्याञ्चिदार्चा विलसितनिलयान्यौत्तराण्यासु
विष्णोः तत्सेवा यत्तचित्ते प्रणिगततिमुहुर्नामतस् तानि तानि
तूष्णीं भूतेश भाश्पं सपुळगनिचयं रम्यजामातृयोगि न्यप्
येत्यानम्यसर्वे किमितमिति परामार्तिम् आपुर्महान्तः
(श्रीवरवरमुनि स्वामीजी भगवान के दिव्यदेश का ध्यान कर रहे थे जो एक प्राकृतिक सम्बन्धी हैं और जिनके ध्वज मस्तूल के रूप में गरुड हैं। वें भावनाओं से अभिभूत हो गये और करीब ५० मिनट वहाँ रूके। फिर उन्होंने भगवान के उन दिव्यदेशों का ध्यान किया जो उत्तर भारत में हैं और जहां भगवान अर्चावतार रूप में हैं। वें उन दिव्यदेशों कि पूजा करने के इच्छुक थे और उन दिव्यदेशों के दिव्य नामों का ध्यान किये। उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गये और उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे। जब वें इस परिस्थिति में थे तो कुछ विशेष जन जो उनके शिष्य थे उनके निकट पधारे, साष्टांग दण्डवत किया और उनके इस स्थिति को देखकर व्यथित हो गये कि क्या हो रहा हैं), श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कुछ पाशुरों का अनुसन्धान कर रहे थे जैसे “किळरोळि इळमै केडुवदन् मुन्नम्” (श्रीसहस्रगीति २.१०.१)। वें उत्तर भारत के दिव्यदेशों जैसे अयोध्या आदि पर ध्यान कर रहे थे और दु:ख होकर कहे “इनकी पूजा करना हमारे सौभाग्य में नहीं हैं”। आचार्य जैसे अष्टदिग्गज को आश्चर्य हुआ कि क्या हो रहा हैं और व्यथित हो रहे थे। उन्होंने उन्हें सांत्वना देने कि कोशिश किये परन्तु श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अपने नेत्र नहीं खोले जहां से अश्रु बह रहे थे। उनकी यह स्थिति देखकर वें बहुत भावनात्मक हो गये। उस समय जब शिष्य चरमपर्वम में रहते थे, आचार्य के दिव्य चरणों के विश्वासपात्र रहते थे तब एक व्यक्ति जिसका नाम रामानुजदास था जो दिव्यदेशों में कैङ्कर्य करता था जैसे उल्लेख हैं “कण्डियूर् अरङ्गम् मेय्यम् कच्चि पेर मल्लै” और जैसे इस श्लोक में उल्लेख हैं
समेत्य रामानुजदास नाम आव्य जिज्ञ बद्धं वरयोगिवर्यम्।
निशेव्य सर्वाणि पदानि विष्णोः समर्पयिष्यामित्तैव तत्वः॥
(एक व्यक्ति जिसका नाम रामानुज दास हैं वहाँ आकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से कहे “दास सभी दिव्यदेशों में जाकर दिव्यदेशों में भगवान विष्णु कि पूजा कर लौटेगा और उस सेवा को दास के प्रसाद के रूप में श्रीमान के दिव्य चरणों में अर्पित करें”) उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के पास जाकर कहा “रामानुज दास सभी उत्तर भारत के दिव्यदेशों में आप श्रीमान के चरण पादुका के साथ एक मार्गदर्शक के जैसे जायेगा और सभी भगवान कि पूजा करेगा श्रीमान के मङ्गळाशासन् के रूप में और उसे श्रीमान के दिव्य चरणों में प्रस्तुत करेगा”। जैसे इस श्लोक में उल्लेख हैं
आसेतोरापदर्याश्रमवरनिलया दासपूर्वापराप्तेः
क्षेत्राणि श्रीधरस्य द्रुहिणा शठजिताद्यन्चितानि प्रणम्य।
प्राप्स्येरामानुजोयं भवतयतनुशतश्चिन्तयंस्त्वत्
पदाविद्यस्मिन् विज्ञापयित्वा प्रणमति बुभुते सौम्यजामातृयोगी॥
(रामानुज दास ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों कि पूजा किये और उन्हें कहा “श्रीमान भगवान विष्णु के दिव्यदेशों में न जाकर उनकी पूजा न करने के लिये दुखी महसूस कर रहे हैं, जिनकी पूजा देवो और आऴ्वारों ने दक्षिण में सेतु से लेकर उत्तर में बदरीकाश्रम तक और पूर्व से लेकर पश्चीम के महासागर तक पूजा कि गई। श्रीमान के दिव्य चरणों का ध्यान करते हुए दास इन दिव्यदेशों में एक सक्षम व्यक्ति के रूप मे जाकर भगवान कि पूजा करेगा”; यह शब्द सुनकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने व्यग्र स्थिति से बाहर आये) जैसे हीं रामानुज दास ने उन्हें साष्टांग कर प्रार्थना किये श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अपने दिव्य नेत्र खोलकर कहा “हे रामानुज दास! आवों!” सभी अष्टदिग्गज और अन्यों नें रामानुज दास कि प्रशंसा किये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उठकर और कृपाकर कहे “बहुत समय हो गया हैं हम कालक्षेप नहीं कर पा रहे हैं”। अन्यों ने कहा “हम भगवान के दिव्यदेशों का अनुभव करने वाले श्रीमान को न तो प्रणाम कर सकते हैं और नाहीं अनुभव कर सकते हैं; हम बहुत चिंतित हैं”। उन्होंने रामानुज दास से पूछा “हे रामानुजदास! आपने जो कहा अब क्या वो होने कि सम्भावना हैं?” दास तुरंत यात्रा के लिये तैयार हो गया। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कोमण्डूर् इळैयाऴ्वार् पिळ्ळै को बुलाया जो उनके दिव्य चरणों से सम्बन्ध रखते थे और उनसे पूछे “क्या आप रामानुज दास के साथ जायेंगे?” उसने कहा वह यह कैङ्कर्य करने के लिये बहुत भाग्यशाली हैं। जैसे कहा गया हैं
ततोन्ययुङ्क्त स्वगमुत्तरीयं विदीर्य रामानुजदासमाषु।
सहस्व पादावनि नित्य योग महोजुषायाचिक लक्ष्मणेन॥
(तत्पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कृपाकर अपनी उत्तरियम को रामानुज दास को दिये और उन्हें कोमण्डूर् इळैयाऴ्वार् पिळ्ळै के साथ जाने को कहे जिनका उनके चरणों से सम्बन्ध हैं) उन्होंने अपने उपरी वस्त्र को रामानुज दास को दिया और अपनी चरण पादुका कोमण्डूर् इळैयाऴ्वार् पिळ्ळै को दिया और इस यात्रा को शीघ्र प्रारम्भ करने को कहे।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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