आल्वार तिरुनगरी वैभव – प्राचीन इतिहास

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नम:

आल्वार तिरुनगरी वैभव

आल्वार तिरुनगरी, जिसे श्रीकुरुगापुरी क्षेत्र भी कहा जाता है, यह एक पुण्य क्षेत्र {धार्मिक स्थल} है जिसे आदि क्षेत्र भी कहा जाता है। इसे भगवान ने अपनी लीला के लिए बनाया था यही इसकी श्रेष्ठता है। ब्रम्हांड बनाने के पश्चात, इसे बनाते वक्त, उन्होने अपने मन में पहले ब्रम्हाजी को बनाने का तय किया, जो अनमुखन (चार मुखवाले) के प्रसिद्ध नाम से जाने जाते हैं और बाद में उनके माध्यम से सृष्टि (बचा हुआ निर्माण कार्य) का पालन करेंगे। ब्रम्हाजी ने भगवान के दर्शन के बारे मे सोचा और इस निर्माण कार्य को अंजाम दिया, हजारों सालों की गंभीर तपस्या की और भगवान के दर्शन और कृपा प्राप्त की। ब्रम्हाजी ने भगवान की कई तरिकों से प्रार्थना की। उस वक्त भगवान ने कृपा करके गोपनीय बातें उनसे साझा किये। इस पृथ्वी पर के भारत देश के दक्षिण भाग मे मलयामलै नामक पर्वतीय श्रंखला है। ताम्रपर्णि नदी का उद्गम स्थान इस मलयामलै से हुआ। आदिक्षेत्रम निवास इसके दक्षिण भाग मे स्थित है। भगवान ने ब्रम्हाजी को कहा की वह किसी के द्वारा नहीं देखे जाय ऐसा आदिनाथ का सुंदर रूप धारण करेंगे और श्रीमहालक्ष्मीजी के साथ उस निवास पर लीला करेंगे। उन्होने ब्रम्हाजी से कहा की आप उस निवास पर उनकी पुजा करने जा सकते हैं। इस निवास की महानता समझने के बाद ब्रम्हाजी आनंदित हुये और इस क्षेत्र को कुरुग क्षेत्र बुलाने की इच्छा प्रकट की, जिसे भगवान ने सहमति दी। तत्पश्चात ब्रम्हाजी आदिक्षेत्र पहुचे और बहोत लम्बे समय तक भगवान की अच्छे से पूजा किये। जैसे हमारे आचार्यों ने बताया है की यह निवास और ताम्रपर्णी नदी जो यहा पर बहती है यह भगवान के पसंदीदा है। 

इस निवास पर कुछ घटनायें हुई थी उसमे से कुछ हम देखते है

कुछ महर्षि इस स्थान पर तीर्थयात्रा करते हुए आए और उन्होने भगवान की पूजा की। उस वक्त एक शिकारी और एक हाथी मे लड़ाई हुई और उन्होने एक दूसरे को मार डाला। विष्णु लोक (भगवान विष्णु का निवास स्थान) से दूत वहाँ पधारे और दोनों आत्माओं को विष्णु लोक जाने के लिये निर्देशित किया। महर्षियों ने इसे देखा कि यह उस स्थान के वैभव की वजह से हुआ, उन्होंने इसे समझा और इसकी सराहना की।

हम इसे धानतन कि कथा से भी समझ सकते है। उत्तर भारत में श्री सालग्राम दिव्यदेश हैं वहाँ एक शिष्य एक ब्राम्ह्ण से जो कि उस स्थान में रहते थे उनसे वेदों का अध्ययन करता था। अपर्याप्त ज्ञान के कारण वह उस ब्राम्हण से ठीक तरह से सीख नहीं पा रहा था।  उस ब्राम्हण ने शिष्य को श्राप दिया और कहा “क्योकि तुम वेदों का अच्छी तरह से अध्ययन नहीं कर रहे हो इसीलिये अगले जन्म मे तुम क्षुद्र बनकर जन्म लोगे।” परंतु वह शिष्य उस श्राप से भयभीत होने के बजाय उसी स्थान पर रहा, उस स्थान के नजदीक विष्णु मंदिर के अंदर घास काटता और उस घास को बेचकर अपनी जीविका चलाता। वह शिष्य भगवान विष्णु के कृपा कटाक्ष मे आ गया (क्योकि मंदिर मे से घास काटकर मंदिर को साफ रखता और उसे सुंदर बनाने लगा)। उसके अगले जन्म मे वह आदिक्षेत्र मे क्षुद्र बनकर पैदा हुआ। भगवान की कृपा की वजह से वह धैर्यवान बना रहा और धानतन यह नाम प्राप्त किया। भगवान की पुजा के लिए वह वहीं पर रुक गया। देवों (स्वर्गीय संस्था) और असुरों (राक्षसी संस्था) के बीच मे युद्ध के वक्त, देवताओं के राजा इंद्र देवों के साथ यहा पधारे और भगवान की पुजा कि। उन्होने धानतन का अपमान किया इस वजह से उन्होने अपनी दृष्टि खो दी। धानतन ने उनके पापों को क्षमा कर दिया और भगवान से उनको उनकी दृष्टि वापस देने कि प्रार्थना की और सफल रहे। धानतन ने यहा पर भगवान कि पुजा करना निरंतर जारी रखा आखिर मे इस संसार से मुक्ति प्राप्त की।  

पूर्व समय मे एक संखमुनिवन नामक एक साधु थे जो इन्द्र (स्वर्ग लोक के राजा) का पद पाने के लिये तपस्या कर रहे थे। नारद मुनि उस जगह पर आये और उनकी तपस्या के बारे मे पूछताछ की, संखमुनिवन ने नारद मुनी को प्रणाम किया। संखमुनिवन ने नारदजी से कहा की उसे लगता है की विष्णु भगवान सभी देवताओं मे बड़े है। नारदजी ने उसे कहा “तुम भारी गलती कर रहे हो।

तुम अगर भगवान विष्णु को सभी देवताओं मे परब्रम्ह (सर्वोच्च भगवान) मानते हो तो तुम्हें समंदर मे एक शंख के रूप मे जन्म लेना होगा।” और उसे श्राप दिया।  संखमुनिवन ने अपनी गलती को समझा और उनके श्राप से मुक्त होने का क्या साधन है इसके बारे मे पूछा।   नारदजी ने उसे कहा “तुम्हें आदिक्षेत्र के भगवान की कृपा के माध्यम से मुक्ति प्राप्त करनी होगी।” संखमुनिवन एक शंख के रूप मे समंदर मे जन्म लिया, और ताम्रपर्णी नदी मे पहुंचे, जहा उन्होने भगवान का लगातार ध्यान किया। वह किनारा जहा वे रुके थे उसे संगणित्तुरै कहते है। भगवान ने संखमुनिवन जो शंख के रूप मे उन्हे मुक्त किया और साथ ही दूसरे कुछ शंख को भी मुक्त किया। इसके अलावा उन्होने दयापूर्वक उस दिव्य निवास स्थान पर अपने दिव्य रूप को प्रकट किया ताकि सभी जन उस दिव्य रूप का दर्शन कर सकें। ब्रम्हाजी के जरिये उन्होने दयापूर्वक श्रीदेवी, भूदेवी, नीलादेवी (उनकी दिव्य पत्नियाँ), वराह भगवान (जंगली सूअर के रूप मे भगवान) और गरुडजी (भगवान के दिव्य वाहन) के दिव्य रूपों को उस निवास स्थान पर प्रकट करवाया।  

तत्पश्चात महान ऋषि जैसे भृगु ऋषि और मार्केण्डेय ऋषि, एक राजा कार्थव्यार्जुन और पाँच पांडवों मे एक अर्जुन इन्होने भगवान के दिव्य निवास मे उनके दर्शन किये। 

कुरूगापुरी महात्म्य मे आदिक्षेत्र की महानता को श्रीवेदव्यासजी द्वारा उनके पुत्र श्री सुकर, ब्रम्हाजी और वशिष्ठजी को अच्छी तरह से समझाया गया हैं। 

इस तरह से इस निवास स्थान के प्राचीन इतिहास का हमने आनंद प्राप्त किया। 

संदर्भ – आदिनाथ आलवार देवस्थान द्वारा कुरुकापुरी क्षेत्र वैभव पर प्रकाशित ग्रंथ।

आदार – https://granthams.koyil.org/2022/12/02/azhwarthirunagari-vaibhavam-1-english/

अडियेन् शिल्पा रामानुज दासि

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