यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ८९

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

<< भाग ८८

महाबली वाणनाथरायन् श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शरण लेते हैं 

जब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी मधुरै में थे तब वहाँ के राजा महाबली वाणनाथरायन् श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के सम्पर्क में आए और उनके दिव्य चरणों के शरण हुए। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अपनी निर्हेतुक कृपा राजा पर बरसाई, उनका पञ्च संस्कार किया और उन्हें अपने दिव्य चरणों में लाये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उस दिन और अगले दिन वहाँ बिताया और अगले दिन मध्य रात्री में जैसे कहा गया हैं

मणिकाञ्चन सञ्जनां चिपिकां तत् अधिष्ठिताम्।
अस्पन्नयनत सवस्कन्दे कृत्वा केचित् प्रतस्तिरे॥

(कुछ श्रीवैष्णवों ने सोने और माणिक से बनी पालकी जिसपर कृपाकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी विराजमान हैं को अपने कंधों पर उठाया और बिना थकावट के चले गये) अगले दिन मध्य रात्री में उस अमूल्य पालकी जिसे राजा ने ९ जवाहरात से बनाये पर चले गये। श्रीवैष्णवों ने पालकी को लेकर चले जो थंड और ओस गिरने के कारण ढकी हुई थी। जैसे इसमें उल्लेख हैं 

छत्रंचित्रं तदुः केचित् चामरे तदिरेपरे।
भृङ्गारमवरेऽबिप्रन् कळाचीमपि केचन​॥

तत् पादाभ्ज रजस्पर्श पावनीमात्म भाविनीम्।
सन्तस्सन्तरायन्तिस्म मौळिनामणि पादुकाम्॥

अकायन्नग्रतः केचित् अतरुन्यन्ति केचन।​

(कुछ श्रीवैष्णवों ने दिव्य छत्री उठाया; कुछ ने चवर सेवा किए; कुछ ने पदिक्कम् (जल लाने के लिये पात्र जो विग्रह के तिरुमञ्जनम् के लिये उपयोग होता हैं) और कलांजी (पान के पत्ते और सुपारी उठाने का पात्र) को लेकर चले; कुछ ने उनकी चरण पादुका को लेकर चले क्योंकि उनके दिव्य चरणों से चूर्ण के दाने उनपर गिरने से वें शुद्ध और उनकी प्रकृति के अनुरूप बनेंगे; कुछ आगे चले यह सुनिश्चित करने कि राह सुरक्षीत हैं; कुछ ने नृत्य किया; यह सब करते समय यह सुनिश्चित किया कि जीयर् स्वामीजी को कोई कष्ट न हो। इसके पश्चात उन्होंने करीब २० कोस का रास्ता तय किया, शाम हो गई। वैगई नदी के किनारे वें रूक गये और अपना अनुष्ठान किया। वह राजा जो स्वयं को एक पालकी उठानेवाले के जैसे वस्त्र धारण किया ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों कि सेवा किये जिसे देख श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अचम्बित हुए और उन्हें कहा “क्या आप को ऐसे करना चाहिये?” राजा ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से मुत्तरसन्  नामक गाँव जहां वें अभी पहुंचे हैं पर अपनी कृपा बरसाने को कहा। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने भी उस गाँव पर अपनी कृपा बरसाई और उस गाँव को एक दिव्य नाम प्रदान किये “अऴगियमणवाळ नल्लूर्​”। उन्होंने राजा को वापस जाने कि आज्ञा प्रदान किये। वें तिरुप्पुल्लाणि नामक गाँव के जरिये आगे बड़े और विश्राम के लिये एक गाँव ढूंढ रहे थे। उन्होंने एक बड़ा इमली का वृक्ष देखा जो उन्हें छाया प्रदान करें। 

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इमली के वृक्ष को मोक्ष प्रदान करते हैं 

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शिष्यों ने उनसे इमली के वृक्ष पर उनकी कृपा बरसाने को कहे क्योंकि वह वृक्ष ने उनपर बहुत लाभ प्रदान किया। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने अद्भुत कृपा से उस वृक्ष को अपने दिव्य हाथों से स्पर्श किया और कहा “मेरे प्राप्य फल को आप भी प्राप्त करो” और उस स्थान से आगे गये। उनके ऐसे कहते हीं वह इमली का वृक्ष समूल सूख गया। जिसे देख सभी शिष्य विस्मित होकर कहे 

यं यं स्पृशति पाणिभ्यां यं यं पश्यति चक्षुषा । 
स्थावराण्यपि मुच्यन्ते किं पुनर्बान्धवा जनाः ॥ 

(भगवान के भक्त महापुरुष (सात्विक) के हाथों के स्पर्श एवं दया दृष्टि से स्थावर (वृक्ष आदि) भी कर्मबंधनों से मुक्त हो जाते हैं फिर उनके शिष्य आदि सम्बन्धीयों के लिये तो कहना ही क्या। यह लक्षण श्रीवरवरमुनि स्वामीजी में प्रत्यक्ष दीखता हैं)। 

तदानंतर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कृपाकर कुरुकापुरी भगवान के दिव्य चरणों कि पूजा कर कुरुकापुरी पहुँचे। उस स्थान को छोड़ अपनी यात्रा को जारी रखा और आऴ्वार्तिरुनगरि पहुँचे। वहाँ श्रीशठकोप स्वामीजी और पोलिन्दुनिन्ऱपिरान् (आऴ्वार्तिरुनगरि में भगवान का दिव्य नाम) का मङ्गळाशासन् कर कृतार्थ हुए। वहाँ कई भक्तों को सही किया और उन्हें तिरुमगळ्केळ्वन्  (श्रीमहालक्ष्मीजी के स्वामी) के दास बनाये। उन्होंने उन भक्तों को दिव्यप्रबन्ध जैसे श्रीसहस्रगीति का उपदेश देकर कृतार्थ किया और श्रीशठकोप स्वामीजी का प्रतिदिन तिरुमञ्जनम् और दिव्य उत्सवों का दर्शन किया।  

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/10/15/yathindhra-pravana-prabhavam-89-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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