श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
मधुरकवि स्वामीजी के निष्ठा के जैसे श्रीगोविन्द दास अप्पन्
फिर एक दिन जब सभी जन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के मठ में एक साथ इकट्ठे हुए थे, हालांकी सभी यह जानते थे कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कहा कि “तेवुमट्रऱियेन्” (दास ओर कोई देवता (आचार्य सिवा) के विषय में जानता नहीं हैं) केवल श्रीगोविन्द दास अप्पन् के लिये उपयुक्त होगा, उन्हें एक विशिष्ट तरिके से पहचानना।
जैसे कि यहाँ कहा गया हैं
साक्षान्नारायणो देवः क्रुत्वा मर्त्य मयीं तनुम्।
मग्नानुद्धरते लोकान् कारुण्याच्चास्त्र पाणिना॥
जगतो हित चिन्तायै जाग्रतः पणिशायिनः।
अवतारेश्यन्यतमं विद्धि सौम्यवरं मुनिम्॥
(पता हैं कि यह केवल नारायण ही सर्वेश्वर हैं, जो मानव रूप लेकर (आचार्य) इस संसार में अवतार लिये हैं और शास्त्रों के सहायता और उनकी कृपा से उन जनों का उत्थान करते हैं जो इस संसार सागर में डूब गए हैं और उन अवतारों में से जो आदिशेष पर शयन किये हैं और जो जाग रहे हैं और संसार को लाभ पहुंचाने के लिये करते हैं श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उनमें से एक हैं) ताकि यह दयापूर्वक स्पष्ट हो सके कि “हम यह हैं” श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने श्रीगोविन्द दास अप्पन को अऴगियमणवाळप् पेरुमाळ् कि विग्रह उनके तिरुवाराधन के लिये देते हैं जिससे वें अपने अन्तिम लक्ष्य (भगवद प्राप्ति) के साथ गहराई से जुड़ जाते हैं। श्रीगोविन्द दास अप्पन जो ३० वर्ष से भी मोर् मुन्नम् (पहिले दही चावल पाना) का अभ्यास कर रहे हैं ने रहस्यार्थ के पूर्ण गूढ़ार्थ श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से श्रवण किया, उनके दिव्य चरणों का कभी भी त्याग नहीं किये, अपने स्थान पर विश्राम के लिये कभी नहीं जाते और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का नित्य सेवा करते [मोर् मुन्नम् शब्द यह दर्शाता हैं कि यह प्रथा हैं कि शिष्य हमेश उसी केले के पत्ते में प्रसाद पाता हैं जिस पत्ते में आचार्य ने प्रसाद पाया हैं; क्योंकि आचार्य दही चावल अंत में पाते हैं तो उस का स्वाद न बदले इसलिये शिष्य उसी पत्ते में पहिले दही चावल पाता हैं फिर अन्य प्रसाद पाता हैं]। फिर तिरुवाडिप्पूरम् (श्रीगोदम्बाजी का अवतार उत्सव) के समय श्रीगोविन्द दास अप्पन् श्रीतीर्थ और अन्य प्रसाद चूडिक्कोडुत्त नाच्चियार् (श्रीगोदम्बाजी को दिया हुआ एक दिव्य नाम क्योंकि उन्होंने श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी द्वारा बनाई हुई माला को स्वयं धारण कर फिर भगवान को धारण करवाया जिसे देख श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी दंग रह गये) से लाकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को अर्पण करते हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उन्हें स्वीकार किया और श्रीगोदम्बाजी को प्रसन्न करने हेतु श्रीगोविन्द दास अप्पन् को “भट्टर् पिरान् दास” (भट्टर् पिरान् श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी का नाम हैं) नाम दिया। तत्पश्चात जब श्रीगोविन्द दास अप्पन् पूर्णत: इस संसार से विच्छिन हो गये और सन्यासाश्रम को स्वीकार किया उन्हें भट्टर् पिरान् जीयर् कहकर बुलाया गया। जैसे आन्ध्रपूर्ण स्वामीजी पूर्णत: श्रीरामानुज स्वमीजी के चरणों के शरण थे उसी तरह भट्टर् पिरान् जीयर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के चरणों के शरण थे यानि आचार्यनिष्ठाग्रेसर । हालांकि वें चरम पर्व निष्ठा के साथ रहते थे अपने आचार्य के प्रति अनुकरणीय सेवा करते थे इसलिये उन्हें कई नामों से जाना जाता था जैसे भट्टर् पिरान् जीयर्, तेवुमट्रऱियेन्(भगवान का ज्ञात न रखते हुए आचार्य को ही भगवान के समान पूजना/उनका कैङ्कर्य करना), भट्टर् नाथ मुनिवराभीष्ट दैवतम् (मणवाळ मामुनिगळ् भट्टर् पिरान् जीयर् के इच्छुक देवता थे), श्री मधुरकविचरितकारि महित चरित्र श्रीमान् भट्टनाथपतीश्वरः [मणवाळ मामुणिगळ् के प्रति श्री मधुरकवि निष्ठा (पूर्णतः निर्भर होना) रखने वाले श्री भट्टर् पिरान् जीयर् ही हैं] श्रीवरवरमुनि स्वामीजी जो सौम्यजामातृ मुनि हैं जिन्हें ऐसे अंतिमोपाय निष्ठा अग्रसर कि सेवा प्राप्त हुई उन्हें श्रीशठकोप स्वामीजी जो उनके माता, पिता और सम्बन्धी समान हैं कि पूजा करने कि अभिलाषा हुई। उन्होंने श्रीरङ्गनाथ भगवान से प्रार्थना किये और उनसे आज्ञा पाकर और जैसे एक बछड़ा अपनी गौ माता कि ओर दौड़ती हैं श्रीवरवरमुनि स्वामीजी तुरन्त आऴ्वार्तिरुनगरि के लिये चले गये। राह में वें मधुरै कूडल नगर पहुंचे जो तिरुप्पल्लाण्डु का जन्म स्थान हैं और “मल्लाण्ड तिण्तोळ् मणिवण्णन्” (एम्पेरुमान् जिनके रंग रत्न पत्थरों के समान है और जिन्होंने अपने शक्तिशाली कंधों से [कंस द्वारा नियुक्त] पहलवानों का विनाश किया) कि पूजा कर मङ्गळाशासन् किया।
आदार – https://granthams.koyil.org/2021/10/14/yathindhra-pravana-prabhavam-88-english/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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