यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ९७

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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जब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ऐसे स्थिति में थे तब मेल्नाट्टुत् तोऴप्पर् और उनके भ्राता अऴगिय मणवाळप्पेरुमाळ् नायनार् जीयर् कृपाकर श्रीरङ्गनाथ भगवान कि पूजा करने हेतु श्रीरङ्गम् में पधारे। श्रीभट्टर्पिरान् जीयर् स्वामीजी उन्हें तेन्माडवीदी (आज के समय में तेऱ्कु उत्तर वीथी) में मिले और उनसे पूछे “आप कहाँ से पधारे हैं? आप कहाँ जा रहे हैं?” वें सम्पूर्ण मन कि पवित्रता और विनम्रता के साथ श्रीभट्टर्पिरान जीयर् स्वामीजी को साष्टांग दण्डवत प्रणाम कर उन्हें श्रीरङ्गनाथ भगवान कि पूजा करने कि अपनी इच्छा को प्रगट किये। श्रीभट्टर्पिरान जीयर् स्वामीजी ने उन्हें कहा “जब आपके पास इतना ज्ञान और भक्ति हैं और सत विषयम के लिए अनुकूल हैं तो आपको हमारे पेरिया जीयर् जो श्रीरामानुज स्वामीजी के अपरावतार हैं कि पूजा क्यों नहीं करनी चाहिये?” वें तुरन्त इस सुझाव को मान लिए और जीयर् स्वामीजी के साथ श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के मठ को गये। जैसे कि इस पद में कहा गया हैं “मणवाळ योगि तञ्जमाम् मलर्त्ताळिणै कट्टि” (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य कमल जैसे चरणों को शरण के रूप में दिखाते हैं), उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों कि पूजा किये। अऴगिय मणवाळप्पेरुमाळ् नायनार् ने यह पाशुर को गाया 

पोदच्चिवन्दु परिमळम् विञ्जुम् पुदुक्कणित्त​
चीदक्कमलत्तै नीरेऱवोट्टिच् चिऱन्दडियेन्
एदत्तै माट्रुम् मणवाळ् योगि इनिमै तरुम्
पादक्कमलङ्गळ् कण्डेनेनक्कुप् पयमिल्लये

(मैंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य कमल जैसे चरणों के दर्शन किया हैं जो सुनहरे हैं जैसे एक पुष्प पूर्ण सुगन्ध और जो पूर्णत: ताजे और ठण्डे भी हैं। वें मेरे दोषो को मिटा सकते हैं। अब जबकी मैंने उन चरणों का दर्शन कर लिया हैं अब मुझे कोई डर नहीं हैं) और उन्होने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों में साष्टांग दण्डवत किया। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उन्हें अपने दिव्य नेत्रों से उन्हें देखा जैसे उन्होंने अपेक्षा किये थे और तिरुनारायणपुरम् (मेलकोटे) को स्मरण किया जो श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य मन में निरंतर था। श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा रचित यह श्लोक को उन्होंने अपने अन्तिम दिनों में स्मरण किया 

गच्छन् पदं परमुवाच वचाम्सि यानि रामानुजार्य इहतेषु चतुर्तसिद्दाम्
श्रीयादावाद्रि वसतिं सततं भजन्तः सन्तो भवन्ति ममसन्दति मूलनाथः

(जो स्थायी रूप से तिरुनारायणपुरम् में निवास करते हैं वों महान होते हैं जैसे कि श्रीरामानुज स्वामीजी, हमारे वंश के समर्पित जनों के मुखियां, श्रीवैकुंठ के अपने दिव्य निवास को जाते समय उनके छह (६) शब्दों में से चौथे के रूप में बताया हैं)। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने पूछा “क्या हमारे शिष्यों में ऐसा कोई नहीं हैं जो निरंतर तिरुनारायणपुरम् में निवास कर सके?” तोऴप्पर् (दोनों भाइयों में अनुज) अपने माते पर वस्त्र को बांधकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से यह कहते हुए आज्ञा मांगे “दास को इस कैङ्कर्य​ कि इच्छा हैं”। यह सुनकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें आज्ञाकर कहे “निरंतर तिरुनारायणपुरम् में निवास करों और यतिराज सम्पतकुमार (वहाँ भगवान का नाम) का मङ्गळाशासन् करों जिससे श्रीरामानुज स्वामीजी और हमें प्रसन्नता होगी”। 

अण्णरायर् को भट्टर्पिरान् जीयर् के शरण में लेना 

उस समय के दौरान अण्णरायर् चक्रवर्ति जो तिरुमलै नल्लान् के वंश (वह वंश जिनकी प्रशंसा श्रीरामानुज स्वामीजी ने कि थी) से हैं अपने परिवार सहित श्रीरङ्गनाथ भगवान का मङ्गळाशासन् करने श्रीरङ्गम् पधारे। अण्णरायर् चक्रवर्ति कि माताजी ने कुछ भक्तों (जो भगवान कि पूजा करने मंदिर में आये थे) के समूह को देखा जो श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कि पूजा करने जा रहे थे जो अपने अंतिम चरण में थे। उन्होंने अण्णरायर् से पूछा “क्या हमें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के पास जाकर उनकी पूजा नहीं करनी चाहिये?” अण्णरायर् अपने परिवार सहित श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के मठ को गये और श्रीभट्टर्पिरान् जीयर् स्वामीजी के पुरुषकार से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों के शरण एक उखड़े हुए वृक्ष के समान हुए। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरण, जो मुड़े हुए रह गए थे, लम्बे समय से किसी को स्वीकृति देते हुए नहीं देखा था, अब फैला हुआ है, जैसा कि श्लोक में बताया गया है 

ततः स्तिमितमुद्क्षिप्य वरणं चक्रलाञ्चितम्।
कृपया मूर्दिनि विनयस्य सनिनाय कुरुश्रमम्॥

(तत्पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कृपाकर अपने दिव्य चरणों को ऊपर उठाया जिनपर दिव्य चक्र अंकित हैं और कृपा से उन्हें अण्णरायर् चक्रवर्ति के दिव्य माते पर रखा और उनकी इच्छा को पूर्ण किया)। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कृपाकर अपने दिव्य चरणों को अण्णरायर् चक्रवर्ति के दिव्य माते पर रखा और उनकी इच्छा को पूर्ण किया। शिष्य जो यह दृश्य देख रहे थे अण्णरायर् को भाग्यशाली माना। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अण्णरायर् चक्रवर्ति से कहा “क्या आप वह नहीं हैं जिन्होंने तिरुमला में हमारे रामानुज जीयर् की इस तरह से रक्षा की थी कि तिरुमला के गद्दार उन्हें हानि नहीं पहुँचा सके, साथ ही साथ हमारे सम्प्रदाय के अनुकूल कई गतिविधियों को अंजाम दिया?” उन्होंने आगे कहा “आपके कद के लिए कुच्छ भी उपयुक्त नहीं हैं; आप कुछ समय पूर्व हीं यहाँ आ सकते थे” उन्होंने फिर श्रीभट्टर्पिरान् जीयर् को बुलाकर कहा “ओ गोविंदप्पा दास! आओं। जैसे कि कहा गया हैं ‘रामस्य दक्षिणो बाहु​’ (लक्ष्मणजी को भगवान राम का दाहिना हाथ माना गया हैं), क्या आप हमारे दाहिने हाथ नहीं हैं? यह मानो कि यह कार्य हम कर रहे हैं यहाँ इच्छुक सभी को पञ्च संस्कार करिये” अण्णरायर् चक्रवर्ति, मेल्नाट्टुत् तोऴप्पर् और अऴगिय मणवाळप्पेरुमाळ् नायनार् कि ओर इशारा करते हुए और श्रीभट्टर्पिरान् जीयर् से कहे इन्हें सम्प्रदाय के प्रवर्तक बनाये। श्रीभट्टर्पिरान् जीयर् ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कि कृपाकर आज्ञा का पालन किया। तत्पश्चात अप्पिळ्ळार् और जीयर नायनार दोनों श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के चरणों में साष्टांग प्रणाम कर निवेदन किए कि “आप श्रीमान को हमें अपनी एक दिव्य विग्रह प्रदान करनी होगी”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उनकी इच्छा को मान लिया और उन्हें एक ताम्बे के घड़े को दिया ताकि दो विग्रह बना सके और दोनों एक एक विग्रह अपने पास रख सके।  

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/10/23/yathindhra-pravana-prabhavam-97-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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