यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ९८

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने अंतिम काल में कृपापूर्वक ४००० दिव्य प्रबन्ध का श्रवण करते हैं।

फिर उन्होंने कृपापूर्वक उन्होंने अपने शिष्यों को व्यक्तिगत रूप से बुलाकर उन्हें अनुकूल निर्देश दिये। जब श्रीवैकुण्ठ, जिसे कलङ्गाप् पेरुनगरम्  (महान स्थान जो कभी भी भ्रम का कारण नहीं बनता है) से जाना जाता है और जहाँ कभी नेत्रों को बंद किये बिना भगवान का निर्दोष सेवा करते हैं, वहाँ प्रस्थान करने के लिये उनके पास चार दिन शेष थे, उन्होंने जीयर् नायनार् और अन्य शिष्यों को बुलाकर उन्हें दिव्य प्रबन्ध का अनुसन्धान करने को कहा। उनके शिष्यों ने पाशुर गाना प्रारम्भ किया। इन पाशुरों को श्रवण कर, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने प्रसन्न होकर तिरुनेडुन्दाण्डगम् का १४वां पाशुर “वळरत्तदनाल् पयन् पेट्रेन्” (पालन पोषण करने का लाभ मुझे प्राप्त हुआ) का अनुसंधान किया; उन्होंने अपना सर झुकाकर अपने नेत्रों को बन्द कर लिया और दिव्य पाशुरों के अर्थों का ध्यान करते रहे। कन्दाडै अण्णन् उनके पास गये और उन्हें पूछा “श्रीमान अभी श्रीमान के दिव्य मन में क्या सोच रहे हैं?” श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उत्तर दिया, “ईडु (तिरुवाय्मोऴि की व्याख्या) का स्वादिष्ट अर्थ मन के माध्याम से प्रवाहित हो रहा है”। जब यह घटना घट रही थी, तब मरुळोऴि नी मडनेञ्जे (श्रीसहस्रगीति १०.६.१) (हे हृदय! अपनी अज्ञाननता से छुटकारा पाओ) पाशुर की अवस्था तक पहुँचे, जिसका अनुसन्धान हो रहा था।

वह द्वादशी थी (पूर्णिमा से १२वें दिन), एकादशी के दूसरे दिन। उन्होंने उत्तम नम्बि और अन्य मंदिरों के कैङ्कर्यपरर्​ को एक संदेश भेजा और उन्हें कहा “आप मेरे सभी अपराधों को क्षमा कर देना” जिसके लिये उन्होंने कहा “क्या श्रीमान कभी कोई अपराध कर सकते हैं?”। उन्होंने फिर उनसे कहा “श्रीरङ्गनाथ भगवान के सभी कैङ्कर्य बिना कोई कमी से कीजिए; श्रीवैष्णवों का समर्थन कीजिए”; उन्होंने अपना सब कुछ यानि अपने तिरुवाराधन भगवान, आचार्य के विग्रह, दिव्य ग्रन्थ, अन्य सहायक उपकरण और अपना मठ श्रीरङ्गनाथ भगवान को दे दिया जैसे “यस्यैते तस्य तत्धनम्​” (जैसे हैं वैसे ही अपने सभी द्रव्य अर्पण करना) में कहा गया है। उन्होंने फिर दिव्य प्रसाद और श्रीतीर्थ अर्पण कर अपने भक्तों की पूजा कर तदियाराधन किया और उनके प्रति जो अपराध उन्होंने किया हो उनके लिये क्षमा माँगा। जैसे पक्षीयाँ एक परिपक्व और वृद्ध वृक्ष की रक्षा करते हैं, वैसे ही उनके शिष्यों ने अंजलीहस्त से उनकी पूजा की। 

जल्द ही सूरज डूब गया; उन्होंने उस समय किये जानेवाले कार्यों को किया। उन्होंने अपने आचार्य श्रीशैलेश स्वामीजी का ध्यान कर कहा “पिळ्ळै तिरुवड़ीगळे शरणम (मैं श्रीशैलेश स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों का शरणागत होता हूँ), वाऴि उलगासिरियन् (श्री पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी का मंगल हो)”। स्वयं को नियंत्रीत करने में असमर्थ होने के कारण, उन्होंने लकड़ी की सहायता से शयन किया। उनके सभी शिष्यों ने हाथ जोड़कर ब्रह्मवल्ली, भृगुवल्ली (तैत्तिरीय उपनिषद के अध्याय) का अनुसंधान किया; उन्होंने सूऴ्विसुंबु अणि मुगिल् (श्रीसहस्रगीति १०.९.१), अर्चिरादी (श्री पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी द्वारा रचित गूढ़ार्थ ग्रन्थ) और श्रीरामानुज नूट्रन्दादि का अनुसंधान किया। जब वे श्रीरामानुज नूट्रन्दादि के १०८वें पाशुर अंङ्गयल् पाय् वयल् तेन्नरङ्गन् तक पहुँचे, उन्होंने कृपाकर उसका हाथ जोड़कर श्रवण किया और कहे “एम्पेरुमानार् तिरुवड़ीगळे शरणम्” (मैं श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरणों में शरण लेता हूँ) और अपने नेत्रों को बंद कर ध्यान किया। 

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कृपाकर तिरुनाडु (श्रीवैकुण्ठ) पधारते हैं 

जैसे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने चाहा था, कनकगिरि मेल् करिय मुगिल् पोल् विनतै सिऱुवन् मेऱ्कोण्डु (विनता के पुत्र गरुड़ के ऊपर बैठे हुए भगवान, एक सुनहरे पहाड़ की चोटी पर एक काले मेघ के समान) और एन्दै तिरुवरङ्गर् एरार् गरुडन् मेल् वन्दु मुगम् काट्टि वऴि नडत्त (मेरे स्वामी, श्रीरङ्गनाथ भगवान, सुंदर गरुड़ के ऊपर अपना दिव्य चेहरा प्रकट कर मार्गदर्शन करते हुए) के प्रकार, श्रीरङ्गनाथ भगवान गरुड़ के ऊपर पधारे, अपने दिव्य चरणों को श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य शीर्ष पर रखते हुए, जैसे एक प्रसिद्ध स्वर्ण पर्वत के ऊपर अपने दिव्य रूप को एक विशाल बादल की तरह प्रकट करते हुए; श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने, श्रीरङ्गनाथ भगवान की कृपापूर्वक अनुमती से वैसा अनुभव किया जैसे कहा गया है “उन् सरणम् तन्दु एन् सन्मम् कळैयाये” (अपने दिव्य चरणों को अर्पण कर मुझे इस जन्म जन्मांतर के चक्र बन्धन से उद्धार करें), “सुखेनेमाम् प्रकृतिं स्थूल सूक्ष्म रूपं विसृज्य” (इस मूल प्रकृति से जुड़े मेरे सूक्ष्म और स्थूल रूपों से मुझे छुटकारा दिलाएँ और मुझे प्रसन्न करें), नोय्गळाल् नलङ्गामल् सदिराग उन्  तिरुत्ताळ् ता (मुझे रोगों की यातना न देते हुए मुझे अपने दिव्य चरण कमलों में स्थान प्रदान करें)।

उन्होंने अपने अद्भुत, आनन्ददायक, दिव्य स्वरूप से छुटकारा पाकर, अंगीकरण पा लिया, जैसे कहा गया है, “माधवन् तन् तुणैया नडन्दाळ्” (वह भगवान के संग चली), “अरङ्गत्तु उऱैयुम् इन्तुणैवनोडुम् पोय्” (श्रीरङ्गम् में निवास करनेवाले मधुर श्रीरङ्गनाथ भगवान के साथ जा रहे हैं) और गरुड पर विराजमान श्रीरङ्गनाथ भगवान के साथ, हार्द्दान् उनका मार्गदर्शन करते हुए, उन्होंने सुषुम्ना नाड़ी (१०१वीं नाड़ी जो आत्मा को श्रीवैकुण्ठ ले जाती है) में प्रवेश किया, उनके कपाल को खोल ब्रह्मरन्ध्र भेदन से तिरुनाडु (श्रीवैकुण्ठ) को प्राप्त किये। 

तत्पश्चात श्रीरङ्गनाथ भगवान भी जैसे कहा गया है “विसृज्य लक्षमणम् रामो दुःखशोका समन्वित: (भगवान श्रीराम अपने अनुज श्रीलक्ष्मणजी से बिछड़ने के बाद दु:ख और उदासी के वश में आ गये), सौमित्रेर्मे सकलु भगवान् सौम्य जामातृ योगी (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीलक्ष्मणजी के अवतार ही हैं), पेरिय जीयर् को वैकुंठ पधारने अनुमति दिये, स्वयं कुछ न खाए-पिए और विकल हो गये। 

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों में संबंध होने वाले सभी शिष्यों ने पूछा कि क्या श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का जाना उचित है, वे दुख को समेटने में असमर्थ थे, एक दूसरे को सांत्वना दे रहे थे। फिर उन्होंने यह श्लोक का अनुसंधान किया ताकि सभी अंतिम क्षण जान सके। 

कुम्भ पास्वति​ याति तत्सुतदिने पक्षे वळक्षेतरे
द्वादश्याँ श्रवणर्क्षपाजि रुधिरोद्गार्याग्य सम्वत्सरे
धीभक्तयादिगुणार्णवो यतिवराधीनाखिलात्मस्थिति 

श्रीवैकुण्ठमकुण्ठ वैभवभवमगात्कांतोपयन्ता मुनि: ॥ 

[ज्ञान, भक्ति, वैराग्य आदि गुणों के महासमुद्र, (जैसे) केवल श्रीरामानुज स्वामीजी के भाग की उन सारी स्थितियों को पानेवाले श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, रुधिरोद्गारी संवत्सर में सूर्य के कुंभराशि में प्रविष्ट होने पर, शनिवार में, कृष्णपक्ष में, श्रवण नक्षत्र युक्त द्वादशी तिथि में, सीमातीत वैभवशाली श्रीवैकुण्ठधाम को प्राप्त हुए]।  

आगे उन्होंने उनके अवतार के समय का और दिव्य वैकुंठ को पधारने के समय के पाशुर का अनुसंधान किया । 

आसिलाद मणवाळ मामुनियण्णल् भूमियुऱु ऐप्पसियिल् तिरुमूलम्
तेसनाळदु वन्दु अरुळ् सेय्द नम् तिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै  तान्
ईसनागि एऴुबत्तु मूवाण्डु एव्वुयिर्गळैयुम् उय्वित्तु वाऴन्दनन्
मासि माल्पक्कत्तु दुवादसि मामणि मण्डपत्तु एय्दिनन् वाऴिये

(दोषरहित श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का अवतार तुला मास के मूल नक्षत्र में हुआ; श्रीशैलेश स्वामीजी उनके स्वामी थे; वे हम सब को इस संसार बन्धन से मुक्त कराने के लिए तिरासी वर्ष तक रहे; उन्होंने दिव्य मामणि मण्डप (श्रीवैकुण्ठ में दिव्य कक्ष जो मणिपत्थर से बनाया हैं) को माघ मास में, कृष्णपक्ष में, श्रवण नक्षत्र युक्त द्वादशी तिथि के दिन प्राप्त किया। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का मंगल हो)।

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/10/24/yathindhra-pravana-prabhavam-98-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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