श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का अंतिम संस्कार
तत्पश्चात उनके अन्त्येष्टि क्रिया करने के लिये उनके प्रमुख शिष्य और परमज्ञानी पौत्र जीयर् नायनार् कावेरी नदी में स्नान तथा ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धारण किया। फिर उन्होंने चांदी के घड़े में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के तिरुमञ्जन के लिये कावेरी नदी से जल लाये। उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के अंतिम दिव्य विग्रह को तिरुमञ्जनवेधी पर विराजमान कर और स्वामीजी का तिरुमञ्जन पुरुषसूक्त, द्वय महामन्त्र आदि श्लोक के अनुसंधान करते हुए किया। अंतिम विग्रह को दिव्यवस्त्र से पोछकर शरीर के विभिन्न अंगों पर द्वादश ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धारण किया। जैसे की “विस्तीर्णबालतल विस्पुरदूर्द्वपुण्ड्रम्” (उनके माथे पर चमकते हुए तिलक) पद में कहा गया हैं। उन्होंने शेष तिरुमण्काप्पु और श्रीचूर्ण को प्रतिकूल समय के लिये धन मानकर आपस में वितरित कर लिया। उन्होंने फिर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य विग्रह को दिव्य सिंहासन पर विराजमान किया और सब ने सिर और छाती को उनके रक्षक समान दिव्य चरणों के नीचे रखा। उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य विग्रह को जिन्हें शुभ आश्रय माना जाता हैं अपने अपने मन में रखा, बिना पलके बंद किये उनके दिव्य रूप को देखते हुए, हर पल का अनुभव करते हुए।
उसी समय उत्तमनम्बी जो श्रीरङ्गम् मन्दिर के अध्यक्ष थे श्रीरङ्गनाथ भगवान का धारण किया हुआ दिव्य सुनहरे वस्त्र और दिव्य माला एक सोने की थाली में शिर पर रख आचार्य का सम्मान करने के लिये लाये, उनके साथ अनेक प्रकार के बाजे, छत्र, चामर आदि भी थे। आचार्य के शिष्यों ने अगवानी करके प्रणिपात पूर्वक उस वस्त्र माला आदि को स्वीकार कर उससे आचार्य के श्रीविग्रह को सजाया। जैसे कि श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी द्वारा रचित तिरुप्पल्लाण्डु के ९वें पाशुर में उल्लेख हैं “उडुत्तुक्कळैन्द निन् पीदकवाडै उडुत्तुक् कलत्तदुण्डु तोडुत्त तुऴाय् मलर् सूडिक्कळैन्दन सूडुमित्तोण्डर्गळोम्” (हम आपके अनुयायी आपके द्वारा धारण का उतारी हुई वस्त्र और तुलसी माला को धारण करेंगे), फिर उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य विग्रह को भगवान के वस्त्र और माला से सजाया। सभी मन्दिर के सेवक, विभिन्न आचार्य पुरुष, जीयर, एकांगी और श्रीवैष्णवों ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की पूजा कर सेय्य तामरै ताळिणै वाऴिये उनकी तनियन् को गाया और उनका मङ्गळाशासन् किया। उन्होंने खेद प्रगट करते हुए कहा “यहाँ आचार्य के सन्निधान से श्रीरामानुज स्वामीजी का अभाव नही अखरता था किन्तु आज इनका भी दर्शन दुर्लभ हो गया” यह कहते हुए दुख जताया और एक दूसरे को दिलासा दिये। पुनः लोगों ने पांचरात्र के अनुसार श्रीचूर्ण परिपालन (दिव्य श्रीचूर्ण से दिव्य जीयर कि रक्षा किये) नाम कर्म किये तथा उसके द्वारा संस्कृत श्रीचूर्ण से आचार्य को अलंकृत कर स्वयं भी उनका प्रसाद धारण किये। सभी ने मिलकर स्वामीजी के दिव्य विग्रह को पुष्पकविमान् में विराजमान किया, कई शिष्यों नें पुष्पकविमान् को अपने कंधों पर उठाया, कुछ ने छत्र चवर को लेकर चले। उसके साथ शंख, मृदंग, वीणा, वेणु आदि बाजे बजाते थे जैसे श्लोक में बताया गया हैं
पदाकात् विजिनीम्रम्यां दूर्योद्कुष्ट निनादनीम्।
सिग्दराजपदां राम्यां कृत्स्नं प्रकीर्ण कुसुमोत्कराम्॥
(उन्होंने शहर को सजाया और पथ [वो विथीया जहां से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का दिव्य विग्रह को लेजाया जायेगा] पर सुन्दर झंडे, सभी स्थानों पर संगीत वाद्ययंत्र, जल छिड़काना, पुष्प बिछाना किया)। वें गन्ने को साथ लेकर चले और पाशुर जैसे इरामानुस नूट्रन्दादि, आदि का अनुसंधान किया। उन्होंने दिव्य जल, फुले हुए चावल और पुष्प को छिड़काया और अकेला तिरुच्चिन्नम् (सामान्यता राजा, भगवान, आदि के जुलूस के समय बजाया जाता हैं) को बजाया और “मणवाळमामुनिगळ् सम्प्रदाय में दिव्य स्थान को पधार गये” ऐसा गाया। स्त्रीयाँ दीपार्ती करती रही और सभी जन जब जुलूस उनके वीथी से निकला तो साष्टांग दण्डवत किये।
तिरुप्पळ्ळि करना
[तिरुप्पळ्ळि सम्प्रदाय में सन्यासीयों का दाह संस्कार के बजाय भूमि में लीन करने कि प्रणाली को कहते हैं क्योंकि सन्यासीयों को अग्नि से कोई सम्बन्ध नहीं होता हैं] श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का दिव्य विग्रह को आदि केशव मंदिर के पूर्व कावेरी के दक्षीण तट तवरासन् पडुगै लाया गया (कावेरी नदी का तट जहां श्रीरामानुज स्वामीजी दिव्य स्नान करते थे) ताकि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी भगवान के दिव्य चरणों से दूर न हो सके। जैसे भूसुता सीता को भूमि ने अपने गोद में छिपा लिया था उसी तरह श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को भी अपने गोद में बैठाकर प्रसन्न हो गई। श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी और श्रीरामानुज स्वामीजी के समान श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का दिव्य विग्रह भी यतियों के नियमानुसार भूमि में लीन किया गया।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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