श्रीवचन भूषण – अवतारिका – भाग १ 

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नम:

श्रीवचन भूषण​

<< तनियन्

तिरुमन्त्र सम्पूर्ण वेद का सार हैं। तिरुमन्त्र में ३ शब्द ३ सिद्धान्तों को प्रकाशित करता हैं (अनन्यार्ह शेषत्व – केवल भगवान के शेष होकर रहना, अनन्य शरणत्व – उन्हीं के सर्वविध शरण रहना, अनन्य भोग्यत्व – भगवान के ही सर्वविधभोग्य रहना)। यह ३ सिद्धान्त सभी जीवात्मा के लिये समान हैं। भले हीं सभी जीवात्माओं के पास परमपदधाम (जो पवित्र हैं) में रहने के लिये आवश्यक योग्यता हैं, जो नित्यसूरियों का निवास स्थान हैं जिन्हें यजुर वेद अच्छिद्रम में यत्र ऋषयः प्रथम जाये पुराणाः के रूप में समझाया गया हैं (परमपदधाम के निवासी जिन्हें जो सर्वोपरी और प्राचीन हैं) जहां सभी का ज्ञान पूर्णत: खिला/विस्तारित हैं, जहां शाश्वत आनंद हैं जो भगवान के नाम, रूप, गुण, आदि से प्राप्त हुए हैं जैसे माण्डूक्य उपनिषद २.२१ में कहा गया हैं अनादि मायया सुप्तः (अनादी काल से अज्ञानता से अन्तर्गत होता हुआ) और तिलतैलवत् दारुवन्हिवत् (तिल के बीज के अंदर तेल और जलाऊ लकड़ी के अंदर अग्नि के रूप में पदार्थ से अविभाज्य रहता हैं), जीवात्मा अनादि माया से आच्छादित हैं जो ज्ञान को ढक लेता हैं और अनादि अज्ञान हैं जो संचित और अंतहीन कर्म कि ओर ले जाता हैं, जो सुर (स्वर्ग), नर, तिर्यक (जानवर) और स्थावर (पौधे) में अनगिनत जन्मों कि ओर ले जाता हैं जैसे श्रीसहस्रगीति के २.६.८ में कहा गया माऱि माऱिप् पल पिऱप्पुम् पिरन्दु (विबिन्न प्रजातियों में निरन्तर जन्म लेना)। प्रत्येक जन्म में वें कई बाधाओं से गुजरते हैं जैसे देहात्माभिमान (शरीर को स्वयं का मानना), स्वातंत्रीय (स्वयं को स्वतन्त्र मानना), अन्य शेषत्वम (भगवान छोड़ अन्य कि सेवा करना) और ऐसे गुणों के अनुरूप प्रयासों और परिणामों में संलग्न होते हैं। ऐसे जीवात्माओं का संकल्प हैं कि वें भगवान को हर संभव तरीके से छोड़ देंगे जैसे तिरुविरुत्तम ९५ में कहा गया हैं “यादानुम पट्रि नीडगुम विरदत्ते” (भौतिक क्षेत्र में किसी भी वस्तु को पकड़कर भगवान के त्याग का व्रत) भगवान के जो बहुत विपरीत हैं जो परम हैं गुरु और जीवात्मा के लिये सर्वोत्तम लक्ष्य और साधन हैं। परिणाम स्वरूप जीवात्मा सात चरणों से गुजरता हैं गर्भ, जन्म, बाल्य, यौवन, वार्धक, मरण और नरक जो शाश्वत और अंतहीन दुखों का कारण बनते हैं। उन पीड़ित आत्माओं में कुछ भगवान कि कृपा को स्वीकार करते हैं जो जन्म के समय प्रदान किये जाते हैं, जो रजो और तमो गुणों को वश में करती हैं और सत्वगुणों को बढ़ाती हैं और मोक्ष के लिये इच्छा विकसित करती हैं। 

  • जब कोई मोक्ष कि इच्छा करता तब उसे तत्त्वम (जीवात्मा का स्वभाव कि वह भगवान का दास बन कर रहे), हितम (साधन) और पुरुषार्थम (लक्ष्य) को समझना चाहिये।
  • शास्त्र (जो इस ज्ञान का प्राथमिक स्तोत्र हैं) के माध्यम से इन ३ सिद्धांतों को समझाने कि कोशिश करते समय शास्त्रों में प्रमुख वेदों का अनुसरण किया जाता हैं। परन्तु जैसे कि यजुर वेद के १.४४ “अनन्तावै वेदाः” में वर्णित हैं कि वेद अनन्त हैं। और वेद के किसी भी सिद्धान्त को निर्धारित करने के लिये कुछ विधियों का प्रयोग करना पड़ता हैं जैसे “सर्व शाखा प्रत्यय न्यायम्” (पूर्ण समझ सुनिश्चित करने के लिये वेद के विभिन्न वर्गो के माध्यम से सिद्धान्त को निर्धारण करना) आदि। ये सब सीमित बुद्धि वाले लोगों के लिये बहुत कठिन हैं। 
  • यह मानते हुए कि वेदों से सच्चे सिद्धान्त को समझाना बहुत कठिन हैं अगला साधन ऋषियों जैसे व्यास आदि के पास जाना जिन्होंने अपने स्वयं के प्रयासों से वेद में महारत प्राप्त किया हैं और स्मृति, इतिहास और पुराणों को संकलित किया हैं। परन्तु इनमें केवल सक्षम व्यक्ति हीं सार और बाहरी पहलू के बीच अन्तर कर पायेंगे। 
  • इनमें कठिनाईयों को ध्यान में रखते हुए कोई भी भगवान कि ओर देख सकता हैं जो दयापूर्वक एक आचार्य की भूमिका को स्वीकार करते हैं और सभी जीवात्माओं के लाभ के लिये रहस्यत्रय (तिरुमन्त्र, द्वय मन्त्र और चरम श्लोक) प्रगट करते हैं। परन्तु वह बहुत संक्षिप्त हैं और उनमें मौजूद महान अर्थ सभी के लिये समझना मुमकिन नहीं हैं। 
  • आऴवार् जिन्हें भगवान ने अपनी अहैतुकी कृपा से स्वयं भगवान द्वारा निष्कलंक ज्ञान और भक्ति का आशीर्वाद दिया था, उन्होंने पूरे वेदों के सार को समझा और दिव्य प्रबंधों के माध्यम से इसे सबसे सटीक तरीके से प्रकट किया, जिसे द्रविड़ वेद कहा जाता है। वेदम और उसका अंगम और उपांगम हैं। फिर भी, सीमित बुद्धिवाले लोग दिव्य प्रबंधों के वास्तविक अर्थ को पूरी तरह से नहीं समझ सके।

आऴवार्

  • यह देखते हुए कि भगवत विषय का स्वाद लेनेवाले भी अपने सीमित ज्ञान के कारण सार से चूक रहे हैं, श्रीमन् नाथमुनि से प्रारम्भ होनेवाले आचार्य जिन्हें आऴवारों कि अहैतुकी कृपा से दिव्य आशीर्वाद प्राप्त था, जिन्होंने दृढ़ता से सत संप्रदाय कि स्थापना किये, जो इसमें निपुण थे और जो अत्यंत दयालु थे, वेदों आदि के सार को समझा और सटीक तरीके से समझाया ताकि कम बुद्धिवाले भी इसे समझ सके। उन्होंने विभिन्न ग्रन्थों में सत सम्प्रदाय के दस्तावेजीकरण किया। 

आचार्य परम्परा

  • उनके पदचिन्हों पर चलते हुए श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी उन पीडित आत्माओं के प्रति बड़ी करुणा से जो एसी आत्माओं के लाभ के लिये सीधे और शाश्वत रूप से भगवान कि सेवा करने के अद्भुत अवसर से वंचित हैं, ऐसे जनों के लिये कई प्रबन्ध को संकलित किये। यह सिद्धान्त को पहिले मौकिक परम्परा में आचार्य परम्परा के माध्यम से प्रेषित किया जाता था। पूर्वाचार्यों ने सिद्धान्तों की सबसे मूल्यवाल स्वभाव को देखते हुए शिष्यों को गोपनीय तरीके से शिक्षा प्रदान किये। सिद्धान्तों का परम प्रतापी स्वरूप देखकर वे उन्हें सार्वजनिक रूप से प्रगट नहीं करते थे। परन्तु श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी भविष्य के पीढ़ी के भाग्य को देखते हुए अपनी महान करुणा और स्वप्न के माध्याम से स्वयं भगवान कि इच्छा / आदेश के आधार पर इस ग्रन्थ के माध्यम से सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त को प्रगट किये जिसका नाम श्रीवचन भूषण रखा गया। 

इससे पहिले काञ्चीपुरम के श्रीवरदराज भगवान अपनी निर्हेतुक कृपा से विशेष रूप से मणर्पाक्कम् नामक गाँव में एक श्रीवैष्णव जिसका नाम नम्बि हैं पर आशीर्वाद किये। उन्होंने मणर्पाक्कत्तु नम्बि के स्वप्न में सत सम्प्रदाय के कुछ आवश्यक पहलू को समझाया और उसे निर्देश दिया कि “अब तुम जावों और दो नदियों (श्रीर्ङ्गम् जो कावेरी और कोळ्ळोडम् के मध्य में स्थित हैं) के मध्य में निवास करों, मैं तुम्हें यहीं सिद्धान्त पूर्ण विस्तार से प्रगट करूंगा”। यह निर्देश को पालन करते हुए नम्बि श्रीर्ङ्गम् में पधारे और श्रीरङ्गनाथ भगवान कि पूजा करते हुए निवास किये और अपनी पहचान प्रगट किये बिना श्रीवरदराज भगवान द्वारा मूल रूप से बताए गए सिद्धान्त पर लगातार ध्यान करते रहते हैं। 

श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कालक्षेप गोष्ठी  

एक बार जब वें काट्टऴगिय सिङ्गर् मंदिर (नृसिंह भगवान का एक मंदिर, श्रीरङ्गम् मंदिर के अधीन) (श्रीरङ्गम् के बाहर में मंदिर) में अकेले थे तो श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी अपने शिष्यों सहित भगवान कि दिव्य इच्छा से वहाँ पधारे। क्योंकि मंदिर न्यूनतम उपद्रव के साथ दूर स्थित हैं इसलिये उन्होंने अपने शिष्यों को हमारे सत सम्प्रदाय के रहस्यत्रय समझाना प्रारम्भ किया। मणर्पाक्कत्तु नम्बि जो उन्हें सुनते (एक स्थान जहां से उन्हें कोई देख नहीं सकता हैं) और समझते हैं कि वें उसी अर्थ से मिलते हैं जो श्रीवरदराज भगवान द्वारा प्रगट किये गये हैं, वें आनंदित हो जाते हैं। वें अन्दर से बाहर आकर श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों में गिरकर उनसे पूछते हैं “क्या आप वों हैं?” और श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य उत्तर देते हैं “हाँ, क्या करना हैं?”। नम्बि फिर समझाते है कि श्रीवरदराज भगवान ने पहिले यहीं सिद्धान्त समझाया और फिर श्रीरङ्गम् जाने का निर्देश दिया और इसे विस्तार से समझने को कहे। श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी आनंदित महसूस किये और नम्बि को शिष्य रूप में स्वीकार किये और नम्बि भी उनकी सेवा करना प्रारम्भ किये और विस्तार से सिद्धान्तों को सीखना प्रारम्भ किये। एक बार भगवान नम्बि के स्वप्न में आकर निर्देश दिये कि वें श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी को निवेदन कर इस सुन्दर और अद्भुत सिद्धान्त को प्रबन्ध रूप में दस्तावेज़ करें ताकि यह समय के चलते यह विस्मरण न होवें। नम्बी श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के पास जाकर भगवान कि इच्छा को उन्हें कहते हैं और श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कहते हैं “अगर यह उनकी इच्छा हैं तो मैं करूंगा” और श्रीवचन भूषण को संकलित किया – यह घटना सभी को पता हैं और स्थापित भी हैं। 

जैसे एक आभूषण जिसमें कई रत्न होते हैं उसे रत्नाभूषण कहते हैं क्योंकि इस प्रबन्ध में पूर्वाचार्यों के शब्द/छन्द भरे हुए हैं और इस प्रबन्ध का ध्यान करने वाले के लिये ज्ञान कि महान चमक लाता हैं इसलिये इसका नाम श्रीवचन भूषण हैं। 

श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी – श्रीपेरुम्बुदूर्

इस प्रकार श्रीवचन भूषण के लिये सबसे शानदार परिचय खंड का पहला भाग समाप्त होता हैं। हमारे सत संप्रदाय के महत्वपूर्ण सिद्धान्तों को सरलतम तरीके से प्रस्तुत करने के लिये इस ग्रन्थ कि बहुत प्रशंसा कि जाती हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कि सटीक और सुन्दर व्याख्या के साथ यह हमारे लिये सँजोने के लिये एक महान धन हैं। सिद्धान्तों को पूरी तरह से समझने के लिये यदि किसी आचार्य के आधीन सुना जाये तो सबसे अधीक लाभदायक होगा। हम इन महान आचार्यों के चरण कमलों में नमन कर आशीर्वाद प्राप्त करें।

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

आधार – https://granthams.koyil.org/2020/12/02/srivachana-bhushanam-avatharikai-1-english/

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