श्रीवचन भूषण – सूत्रं ६

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श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य​ स्वामीजी ने उज्जीवन के लिए आवश्यक पहलुओं को उजागर करने के लिए उपब्रुह्मणों के माध्यम से वेदांत का सार निर्धारित करना प्रारम्भ किया। इसमें, बाद में, वह दयापूर्वक इस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं कि “वर्तमान संदर्भ में वेदांत सिद्धांतों की क्या व्याख्या की गई है”।

सूत्रं

इवैयिरण्डालुम् पुरुषकार वैभवमुम् उपाय वैभवमुम् सोल्लिट्रायित्तु 

सरल अनुवाद

इन दो पहलुओं के साथ पुरुषकार और उपाय कि महानता को समझाया गया हैं। 

व्याख्यान

इवै

अर्थात इन दो पहलुओं (कैद में बन्द व्यक्ति की महानता और जो दूत के रूप में गया था) के साथ, पुरुषकार भूत कि महानता, यानि पिराट्टि और उपाय भूत यानि भगवान कि महानता को समझाया गया हैं।  

पिराट्टि कि महानता – सभी कि माँ होने के नाते और उनकी दया के कारण, चेतनों को उन्हें अपनी  शरण के रूप में देखने के लिये बीच में किसी अन्य कि सिफारिश करनेवाले कि कोई आवश्यकता नहीं हैं; हर कोई आसानी से उससे सम्पर्क  कर सकता हैं; वह ईश्वर के हृदय को परिवर्तीत कर देगी जो चेतनों के पापों को देखकर अपना क्रोध प्रगट करते हैं जैसे कि श्रीभगवत गीता १६.१९ में कहा गया हैं “क्षिपामि …” (में उन्हें निचले योनियों में धकेल देता हूँ) और वराह पुराण  “नक्षमामि” (मैं उन जाओन को बर्दाश्त नहीं करूंगा जो मेरे भक्तों को कष्ट पहूंचाते हैं)  और  उन चेतनों को स्वीकार करवाएँ। 

भगवान कि महानता – चेतनों को स्वीकार करने के पश्चात भी अगर पिराट्टि चेतनों कि शिकायत करती हैं वह पूरेजोर से उसे खण्डन करेगा जैसे पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ४.९.२ “एन् अडियार् अदु सेय्यार्” में कहा गया हैं (मेरे भक्त कभी भी कोई गलती नहीं करेंगे) और उनकी रक्षा करते हैं।  

श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कृपाकर अम्माजी और भगवान को पहचाने के लिये पुरूषकार और उपाय शब्द का उपयोग करते हैं यह दर्शाने के लिये कि अम्माजी के लिये पुरुषकार विशिष्ट भूमिका है और भगवान के लिये उपाय विशिष्ट भूमिका है.  

भगवान स्वयं भगवद शास्त्र (पाञ्चरात्र आगमम्) में यह समझाते हैं (पुरुषकार और उपाय कि भूमिका): 

  • “मत् प्राप्तिं प्रति जन्तूनां सम्सारे पततामदः। लक्ष्मीः पुरुषकारत्वे निरदिष्ठा परमर्षिभिः। ममापिच मतं ह्येतत् नान्यथा लक्षणं भवेत्॥” (इस संसार में मुझ तक पहुँचने के लिये जीव नीचे गिरते हैं ऋषियों अनुसार श्रीमहालक्ष्मीजी पुरुषकार कि भूमिका निभाती हैं; हमारे राय भी यही हैं कि उनका पुरुषकार हीं स्वीकारनिय हैं, कोई और भूमिका उनके लिये नही होगी)।  
  • “मत् प्राप्तिं प्रति जन्तूनां सम्सारे पततामदः। लक्ष्मीः पुरुषकारत्वे निरदिष्ठा परमर्षिभिः। ममापिच मतं ह्येतत् नान्यथा लक्षणं भवेत्॥” (मैं, श्रीमहालक्ष्मी का स्वामी हूं, उपाय हूं; लक्ष्मी जो मुझे आकर्षित कर सकती है, अपने पुरुषकार से चेतन को मुझे प्राप्त करने में सहायता करती है; वेदान्त में मेरी और अम्माजी की इस पहचान की सराहना की गई है)
  • “आकिञ्चन्यैक शरणाः केचित् भाग्याधिकाः पुनः। मत्पादाम्भोरुह द्वन्द्वं प्रपद्य प्रीत मानसाः॥ लक्ष्मीं पुरुषकारेण वृता वन्तो वराणन​। मत् क्षमां प्राप्य सेनेश प्रराप्यं प्रापकम् एव माम्॥ लभ्धुवा कृतार्थाः प्राप्स्यन्ते मामेवानन्य मानसाः॥” (हे सुंदर चेहरेवाले विश्वक्सेन! कुछ भाग्यशाली जन जो मुझे उपाय के रूप में देखते हैं, मेरे दो चरण कमलों में समर्पण करते हैं, मन को प्रसन्न करते हुए, फिर से श्रीमहालक्ष्मी को पुरुषकार के रूप में देखते हैं, मैं उन्हें क्षमा कर देता हूं और मुझे उपाय के रूप में अपनाते हैं, शांतिपूर्णता से रहते हें आवश्यक कार्यों को पूरा करने के बाद, वे बिना किसी अन्य खुशी की तलाश के मेरे पास पहुंचेंगे)। 

अन्य पिराट्टि (भगवान कि दूसरी अम्माजी), नित्यसूरि और भगवान के भक्त (आऴ्वार्/आचार्य) अम्माजी से सम्बन्ध से  भगवान के साथ पुरुषकार उत्पन्न करते हैं, वें स्वाभाविक रूप से उनके लिये मौजूद नहीं हैं।  इसके लिये धीप संग्रहम में  वादि केसरी अऴगिय मणवाळ जीयर् कृपाकार कहते “एतत् सापेक्ष सम्बन्धा तन्येषाम् अमलात्मनां देवी सूरि गुरुणाञ्च गटकत्वं न तु स्वतः:” (भगवान के अन्य दिव्य पिराट्टि जो पवित्र हैं और नित्यसूरि और आचार्य के लिये इस सम्बन्ध से पेरिय पिराट्टि घटकत्वम (जीवात्मा और परमात्मा को एक करने कि भूमिका) होती हैं)।  

सामान्यता उपाय भगवान में हीं होती हैं क्योंकि उन्हें नित्य धर्म कहते हैं जैसे महाभारत में “कृष्णं धर्मं सनातनम्” (कृष्ण को नित्य धर्म कहते हैं) और उनके भक्त जन इसे उनके सम्बन्ध से प्राप्त करते हैं। अत: अम्माजी के लिये पुरुषकार और भगवान के लिये उपाय उनकी पहचान हो सकती हैं। इस तत्त्व को बताने के लिये श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य​ स्वामीजी कृपाकर कर इस सूत्र इस तरीके से बनाए।

इस प्रकार से पुरुषकार और उपाय दो प्रबन्ध (श्रीरामायण और महाभारत) में प्रगट किया गया हैं जो उपबृह्मण (साहित्य जो व्याख्या प्रदान करती हैं) हैं। वेदान्त जो उपबृह्मण  हैं कहा उसे समझाया गया हैं? दोनों को द्वयम के पूर्व भाग में समझाया गया हैं जिसे कटवल्ली उपनिषद में समझाया गया हैं।

जबकी चेतना का पिराट्टि और भगवान के साथ समान सम्बन्ध हैं तो फिर भगवद प्राप्ति के लिये अम्माजी का पुरुषकार कि आवश्यकता हैं? यह इन कारणों से: 

  • उनके महान वात्सल्य जो उनके मातृ सम्बन्ध के कारण हैं। 
  • कठोर और मृदु हृदय वाले भगवान के विपरीत अम्माजी हमेशा मृदु हृदय वाली हैं। 
  • अम्माजी दूसरों के दु:खों को सहन नहीं कर सकती हैं, यह उनका स्वभाव हैं। 
  • वह विमुख (जो भगवान से दूर जाते हैं) को अभिमुख (जो भगवान के सन्मुख खुशी से जाते हैं) बनाती हैं। 
  • जिन्होंने गलती कि हैं वें भी बिना संकोच के उनके शरण हो सकते हैं। 
  • क्योंकि ईश्वर एक पिता कि तरह कठोर हृदय वाला हैं जो बच्चों कि भलाई चाहता हैं और जो हर गलती के लिये बिना चुके सजा देता हैं और जो अपने निकट आने कि कोशिश करनेवालों में डर उत्पन्न करता हैं वह ऐसे भगवान को उपयुक्त तरीके से मना लेती हैं जिससे वह चेतनों को भूल जाता हैं और चेतनों को भगवान के साथ जोड़ता हैं।

उपरोक्त कारणों से चेतन जो गलतियों का प्रतिक हैं जब वह भगवान के पास आता हैं तो उसे अम्माजी के पुरुषकार कि आवश्यकता होती हैं। यही कारण हैं कि जब कोई भगवान का अनुसरण उपाय रूप में करता हैं तो सबसे पहिले पिराट्टि का अनुसरण पुरुषकार के रूप में किया जाता हैं। 

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

आधार् – https://granthams.koyil.org/2020/12/12/srivachana-bhushanam-suthram-6-english/

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