श्रीवचनभूषण – सूत्रं ८

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नम:

पूरि शृंखला

पूर्व

अवतारिका

श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य​ स्वामीजी अम्माजी के विषय में तीन गुण कृपा, पारतंत्रय और अनन्यार्हतव को तीन वाक्य में समझाते हैं। 

सूत्रं

पिराट्टि मुऱ्पडप् पिरिन्ददु तन्नुडैय कृपैयै वॆळियिडुगैक्काग, नडुविल् पिरिन्ददु पारतन्त्र्यत्तै वॆळियिडुगैक्काग, अनन्तरम् पिरिन्ददु अनन्यार्हत्वत्तै वॆळियिडुगैक्काग

सरल अनुवाद

सबसे पहिले सीता माता अपनी कृपा प्रगट करने के लिये भगवान श्रीराम से अलग हुई; वह अपनी पारतंत्रय प्रगट करने के लिये मध्य में अलग हुई; तत्पश्चात अनन्यार्हतव प्रगट करने हेतु अलग हुई। 

व्याख्यान

पिराट्टि मुऱ्पडप् पिरिन्ददु …

वही – जैसे श्रीविष्णु पुराण १.९.१४५ में कहा गया “देवत्वे देव देहेयं मनुष्यत्वेच मानुषी। विणोः देहानुरूपम्वै  करोत्येषात्मनस् तनुम्॥ ” (जब वें एक भगवान के रूप में अवतरित होते हैं तब पिराट्टि भी अम्माजी के रूप में अवतरित होती है और जब भगवान मनुष्य रूप धारण करते हैं; इस प्रकार वह एक ऐसे रूप में प्रगट होती हैं जो उनके दिव्य रूप में मेल खाता हैं), क्योंकि वह भगवान से मेल खानेवाला रूप को धारण करती हैं जैसे श्रीविष्णु पुराण १.१९.१४ में कहा गया हैं “राघवत्वे अभवत् सीता ”  (जब भगवान श्रीराम रूप में अवतार लिये तब वें माता सीता के रूप में अवतार प्राप्त किये), जब वें राजा दशरथ के दिव्य पुत्र के रूप में अवतार लिये तब वें जनक राजा के यहाँ दिव्य पुत्री के रूप में अवतार प्राप्त किये। जब वें कृपाकर दण्डकारण्य में श्रीराम के संग निवास कर रही थी और रावण को कारण बनाकर वह कृपाकर लंका को चली गई  जहां उन्हें दया के अवतार के रूप में पहचाना गया। जैसे लक्ष्मी तन्त्र में कहा गया हैं “देव्या कारुण्य रूपया ” (पेरिय पिराट्टि के साथ जो दया का अवतार हैं) प्रचुर मात्रा में वह गुण हैं। वह कैसे हैं? यह हैं क्योंकि: 

  • वह अपने स्व इच्छा से कारागृह में जाती हैं ताकि वहाँ रहने वाली दिव्य स्त्रीयों को  कारागृह से मुक्त कर सके। 
  • जब वह बंदीगृह में कैद थी तो निर्दय राक्षसीय स्त्रीयाँ उन्हें दिन रात सताया करती थी; जब त्रीजटा ने स्वप्न में देखा कि रावण का सर्वनाश हो गया हैं और भगवान कि विजय हो गई हैं तो सभी स्त्रीयाँ डर कर घबराकर कांपने लगी; अम्माजी ने कहा “जब तुम्हें सताया जायेगा तो मैं वहाँ रहूँगी तुम डरना नहीं” और उन्हें शरण प्रदान किया जैसे श्रीरामायण के सुन्दरकाण्ड के ५८.९३ में कहा गया हैं “भवेयं शरणं हिवः ” (मैं तुमारी शरण बनूँगी)। 
  • इसे केवल शब्दों में ही सीमित न रहने दे, रावण पर विजय प्राप्त करने के पश्चात हनुमानजी जो उन्हें खुशखबरी सुनाने के लिए आए थे उन्होंने उन्हें पूरी तरह से पीड़ा देना चाहा और इसके लिये उनसे अनुमती मांगी; उस समय अ) माता ने उनसे विनती कि और उनके बुरे गुणों को अच्छे गुणों के रूप में उजागर किया जैसे कि श्रीरामायण के युद्ध काण्ड  ११६.३८ में कहा गया हैं “राज संश्रयवश्यानाम् ” (वें अपने राजा के लिये सेवक हैं), आ) दूसरों के कष्टों को सहन करने कि उनकी शक्ती कि कमी पर प्रकाश डाला जैसे श्रीरामायण के युद्ध काण्ड ११६.४० में कहा गया हैं “मर्षायामीह दुर्बला ” (मैं इन राक्षसीयों महिलाओं को माफ करती हूँ) और इ) उन्हें इस प्रकार निर्देश दिया कि वें माता के शब्दों को अस्वीकार न कर सके जैसे कि श्रीरामायण के युद्ध काण्ड में कहा गया हैं  “कार्यं करुणम् आर्येण न कश्चिन् नापराध्यति? ” (महामहिम को दया दिखाना चाहिये अपराध कोई नहीं करता हैं क्या?)। 

इस प्रकार से अपनी प्रतिबद्धता पर दृढ़ रहते हुए उन्होंने राक्षसी कि रक्षा कि जिन्होंने तब तक उन्हें पीड़ा दी थी, उन्होंने अपनी कृपा उन पर प्रगट किये। 

नडुविल् पिरिन्ददु

बीच में अलगाव यह हैं कि – जब वह भगवान के साथ अयोध्या को लौट आई और दया कर वह रहने लगी तो और उन्होंने गर्भ धारण किया तो भगवान श्रीराम ने उनसे पूछा कि उनकी कोई इच्छा हैं जैसे कि श्रीरामायण के युद्ध काण्ड ४२.३२ में कहा गया हैं “अपद्या लाभो वैदेही ममायं समुपस्तितः। किमिच्छसि सकामत्वं ब्रूहि सर्वं वरानने॥ ” (ओ वैदेही ! मैं इस संतान को प्राप्त कर धन्य हो गया हूँ; हे सबसे सुन्दर चेहरेवाली! आपकी उत्सुकता से किसकी इच्छा कर रहे हैं? उस सभी को मेरे समक्ष प्रगट करो)। माता सीता ने नम्रतापूर्वक वन में निवास करने कि अपने इच्छा पर प्रकाश डाला जैसे श्रीरामायण के उत्तर काण्ड के ४२.३३ में कहा गया हैं  “तपोवनानि पुण्यानि द्रष्टुमिच्छामि राघव​। गङ्गातीर निविश्टानि रिषीणां पुण्य कर्मणाम्॥ फल मूलाशिनां वीर पादमूलेषु वर्तितुम्। एषमे परमः कामो यन्मूल फल भोगिषु। अप्येक रात्रं काकुत्स्थ वस्येयं पुण्य कीर्तिषु॥ ” (हे रघुवंश के वंशज! में उन पवित्र वनों को देखने कि इच्छा रखता हूँ जहां तपस्या कि जाती हैं। हे कुकुत्स्थ के वीर वंशज! यदि में उन महान ऋषियों के चरण कमलों में एक रात भी निवास सकूँ जो अत्यंत पवित्र कर्म वाले हैं जो फल और मूल खाकर अपना भरण पोषण करते हैं, जिनके पास पवित्र प्रसिद्धि है तो यह अच्छा होगा। यह मेरे महान इच्छा हैं)।  श्रीराम ने उन्हें मानों इसी कारण से वन भेजा परन्तु उन्होंने ऐसा नागारीकों के आरोपों से बचाने के लिये किया। था। 

इस जुदाई का उद्देश उनके पारतंत्रय को प्रगट करना हैं जो उनकी पत्नी होने पर आधारीत हैं जहां पूर्ण रूप से उनको अपने विचारों का पालन करना चाहिए चाहे भगवान उन्हें महल की सीमा के भीतर रखे या जंगल को भेज देवे। गंगा नदी को पार करने के पश्चात लक्ष्मणजी भारी हृदय के साथ बड़ी करुणा से उन्हें भगवान क्यों जंगल भेज रहे हैं उसका स्पष्टीकरण देते हैं। यह सुनकर वह बड़ी दुखी हुई और जैसे श्रीरामायण के उत्तर काण्ड के ४८.८ में कहा गया हैं “नकल्वदयैव सौमित्रे जीवितं जाह्नवीजले। त्यजेयं राघवं वम्शे बर्तुर्मा परिहास्यति॥ ” (हे सौमित्रा नन्दन लक्ष्मण भगवान जो मेरे स्वामी हैं जिनसे मुझमे गर्भ धरान हुआ वें इस रघुवंश में उत्पन्न नहीं हो सकते हैं। मैंने गंगा जिन्हें जानवी भी कहा जाता हैं में कूदकर अपने प्राण नहीं त्यागे। मैंने ऐसा किया क्या ?)। इसके साथ जबकि वह भारी दुःख के कारण स्वयं को मारकर जीवित रहना चाहती थी, ऐसा करने के बजाय, उसने भगवान के दिव्य हृदय का अनुसरण किया और स्वयं को बचाया – ऐसा पारतंत्रय यहाँ प्रकट हुआ है। जो परतंत्र हैं उन्हें दूसरों के लिये जीना हैं और चाह कर भी स्वयं को मार नहीं सकते हैं।  श्रीशठकोप स्वामीजी भी श्रीसहस्रगीति के ५.४.३ में कहते हैं  “मायुम् वगैय​ऱियेन् वल्विनैयेन् पेण् पिऱन्दे ” (मैं जिसमें बहुत महान पाप हैं, स्त्री के रूप में  अवतार लिया, स्वयं को समाप्त करने कि तरीके नहीं हैं)। प्रथम वियोग में दस माह तक महान वियोग सहने के पश्चात जैसे उन्होंने स्वयं दया कर श्रीरामायण के उत्तर काण्ड के ४८.१७ में कहा “पतिर्हि दैवतं नार्याः पतिर्बन्धुः पतिर्गतिः। प्राणैरपि प्रियं तस्मात भर्तुः कार्यं वेशेषतः॥ ” (स्त्री के लिये पुरुष हीं भगवान हैं, पति के साथ सभी प्रकार के सम्बन्ध हैं, पति शरण्य हैं और उसे अपने जीवन से भी अधीक प्रिय होता हैं , उनके कार्य सबसे अधीक महत्त्व होते हैं),  पति के विचारों का अनुसरण करना अपना स्वाभाविक गुण हैं, ऐसा विचार करने के कारण वही कहीं वर्षों तक दु:ख में रही। इस प्रकार उन्होंने इस विरह में अपनी प्रारतंत्रय को प्रगट किया। 

अनन्तरम् पिरिन्ददु

अगला अलगाव हैं – भगवान के सामने पहूंचने के पश्चात, अलग होना और अपने माँ के स्थान पर पहूंचना। इस अलगाव का उद्देश – जैसे श्रीरामायण के सुन्दर काण्ड के २१.१५ में कहा गया “अनन्या राघवेणाहं भास्करेणप्रभायता ” (जिस प्रकार किरणें सूर्य से अविभाज्य हैं, उसी प्रकार मैं श्रीराम से अविभाज्य हूं) और श्रीरामायण के युद्ध काण्ड १२२.१९ में कहा गया हैं “अनन्याहि मया सीता ” (क्या सीता हमेशा मेरे साथ एकजुट नहीं रहती हैं?), उनका अनन्यार्थवम (केवल भगवान के लिये विध्यमान) यह किसी और के लिए उसके गैर-अस्तित्व पर आधारित है और इसे भगवान और स्वयं, दोनों द्वारा स्वीकार किया जाता है और इसे सभी के द्वारा स्वीकार किए जाने के लिए प्रकट किया जाता है। यह कैसे किया जाता है?

भगवान कृपाकर अश्वमेध यज्ञ करते हैं। उस समय श्रीवाल्मीक मुनि के आज्ञानुसार भगवान खुश और लव श्रीरामायण का गाँ करते हुए भ्रमण कर रहे थे। भगवान राम ने यह सुना और उन्हें राज दरबार में बुलाकर सभी बुद्धिमान राजदरबारीयों के सामाने यह सुनाया। उस समय जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि यह दोनों बालक स्वयं उनके और सीता के हीं पुत्र हैं उनका दिव्य हृदय माता सीता को स्मरण किया और उन्होंने महर्षि और माता सीता को यह कहकर संदेश बिझवाया कि “अगर वह पवित्र हैं तो तुरंत राज दरबार में पधारे और वचन देकर अपनी पवित्रता को साबित करें”। जब माता सीता भगवान वाल्मीकी के साथ उस महान दरबार में जहाँ भगवान श्रीराम विराजमान हैं पहूंची, भगवान वाल्मीकी ने कई तरीके से समझाने कि कोशिश किये कि माता सीता पवित्र हैं  तब भगवान ने  कहा कि “वों यह समझ सकते हैं कि वह पवित्र हैं, केवल महर्षि के शब्द हीं पर्याप्त हैं फिर भी देश वासियों के मन से यह विषय जड़ से समाप्त करने हेतु आपको को सभा में वचन तो देना होगा”। वह हाथ जोड़कर और अपने नेत्रों को नीचे रखकर जैसे श्रीरामायण के उत्तर काण्ड के ९७.१४ में कहा गया हैं “सर्वान् समागतान् दृष्ट्वा सीता काशाय वासिनी। अभ्रवीत् प्राञ्जलिर्वाक्यम् अदोदृष्टिरवाङ्मुखि॥ ”  माता सीता को भगवा वस्त्र धारण किये हैं सभी जन जो सभी क्षेत्र से पधारे हैं को देखते हुए, अपने नेत्र को नीचे रखकर, हाथ जोड़कर यह कहने लगी जैसे श्रीरामायण के उत्तर काण्ड ९७.१५ में कहा गया हैं  “यथाहं राघवादन्यं मनसापि न चिन्तये। तथामे माधवी देवी विवरं धातुमर्हति॥ मनसा कर्मणा वाचा यथारामं समर्थये। तथा मे माधवी देवी विवरं धातुमर्हति॥ यथैतत् सत्यम् उक्तम्मे वेद्मि रामात् परम्नच​। तथामे माधवी देवी विवरं धातुमर्हति॥ ” (अगर यह सत्य हैं कि मैंने राघव को छोड़ अपने मन में किसी ओर को नहीं बसाया हैं तो यह भूमि माँ मुझे अपनी शरण में स्थान देवें; अगर यह सत्य हैं कि मैंने श्रीराम का हीं हाथ अपने मन, वाणी और क्रिया से पकड़ा हैं तो भूमि माँ मुझे अपनी शरण में स्थान देवें; अगर मेरे शब्दों में प्रभु राम जो छोड़ अन्य कोई नहीं हैं तो भूमि माँ मुझे अपनी शरण में स्थान देवें)।  उस समय एक दिव्य सिंहासन भूमि से प्रगट हुआ भूमि माँ ने माता सीता को स्वीकार किया, अपने सिंहासन में बैठाकर रसाथलम (ब्रह्माण्ड में एक सुन्दर स्थान) कि ओर प्रस्थान किये  और दिव्य पुष्पों कि वर्षा हुई जैसे श्रीरामायण के उत्तर काण्ड ९७.१८ में कहा गया हैं “तथा शपन्त्यां वैदेह्यां प्रादुरासीन् महाद्भुतम्। भूतलात् उदितं दिव्यं सिह्मासनम् अनुत्तमम्॥ त्रियमाणं शिरोभिष्तु नागैः अमितविक्रमैः॥ दिव्यं दिव्येन वपुषा सर्वरत्न विभूषितम्॥ तस्मिन्स्तु धरणीदेवी बाहुभ्यां गृह्य मैथिलीम्। स्वागते नाभिनन्दैनाम् आसने शोपवेशयत्॥ तामासन गतां दृष्ट्वा प्रविशन्तीं रसातलम्। पुष्पवृष्टिः अविच्छिन्ना दिव्या सीतामवाकिरत्॥ ” [श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने इसका अर्थ पहिले हीं समझा दिये हैं]  – इससे हम अम्माजी के अनन्यार्थवम को समझ सकते हैं जो वह अपने बिछुड़ने से दर्शा रही हैं। 

अत: बिछुड़ने के तीन कारण जो भगवान के अवतार में दर्शाया गया हैं वह इन गुणों को इस तरीके से बताया गया हैं। अगर वो ऐसा नहीं हैं तो श्रीमहालक्ष्मीजी जो अनपायिनि (जो भगवान से अलग नहीं हो सकता हैं) और अकर्मवश्या (जो कर्म के बंधन से बंधा नहीं हो) हैं उनके लिए बिछुड़ने का कोई कारण की आवश्यकता नहीं हैं जैसे जो कर्म से बंधे हुए हैं। वह इस तरीके से अवतार केवल पुरुषकाररत्वम के गुणों को पूर्ण रूप से दर्शाने के लिये हुई हैं। इसलिये श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी श्रीगुणरत्न ५७ में कृपाकर समझाते हैं  “यदुतान्यदुदाहरन्ति सीतावतारमुखमेतदमुष्य योग्या ” (हे माता श्रीरंगनायाकी!  सीता जैसे आपके अवतारों को उन महान गुणों के लिए महिमामंडित किया जाता है जो आप में उपयुक्त रूप से मौजूद हैं और उन अवतारों को यहां इस अवतार के लिए आपके अभ्यास क्षेत्र के रूप में कहा जाता है।) इस प्रकार, उन्होंने कृपा प्रकट की जो चेतनों को आशीर्वाद देने के लिए दिखाई जाती है और पारतंत्रय और अनन्यार्हत्वम जो भगवान को आकर्षित करने के लिए दिखाई जाती है, उन लोगों में विश्वास विकसित करने के लिए जो उन्हें पुरुषकार के रूप में मानते हैं, उन्हें इन गुणों को व्यावहारिक रूप से देखने के द्वारा शास्त्र से उनके बारे में सुनने मात्र से।

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

आधा र- https://granthams.koyil.org/2020/12/14/srivachana-bhushanam-suthram-8-english/

प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – https://pillai.koyil.org

Leave a Comment