श्री: श्रीमते शठकोपाय नम:। श्रीमते रामानुजाय नम:। श्रीमद् वरवरमुनये नमः। श्रीवानाचलमहामुनये नमः।
लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियाँ
१७१– निरपेक्षनान तान् कुऱैय निन्ऱु इवनुडैय कुऱैयैत् तीर्क्कुमाय्त्तु, तान् सापेक्षनाय् निन्ऱु इवनै निरपेक्षनाक्कुम्।
सापेक्षन् – इच्छा सहित/आशापूर्ण
निरपेक्षन् -इच्छा रहित/आशा विहीन
अपनी अहैतुक/निर्हेतुक कृपा से, जीवात्माओं को पार लगाने के लिए, वे (भगवान) अवतरित होकर जीवत्माओं की इच्छाओं को पूर्ण करते हैं। भगवान स्वयं को इस प्रकार ऐसी स्थिति में रखते हैं कि जैसे किसी वस्तु के इच्छुक हैं और जीवात्मा को इच्छा हीन बना देते हैं (जिसकी इच्छाएँ पूर्ण हो चुकी हैं)।
अनुवादक टिप्पणी –एम्पेरुमान् अवाप्त समस्त कामन् जाने जाते हैं -जिनकी कोई इच्छा अधूरी न हो। वे स्वयं में आत्मतुष्ट हैं। फिर भी वे जीवात्मा की सहायता और मार्गदर्शन करने की स्थिति में ही रहते हैं। उदाहरणतः, जब इन्द्र की पूर्ण सम्पत्ति खो जाती है तब महाबली से पुनः प्राप्त करने हेतु भगवान से प्रार्थना करता है। महाबली एक ऐसा यज्ञ कर रहा था जिसमें याचक को उसकी इच्छानुसार देना होगा। इन्द्र को अपनी संपत्ति मांगने में लज्जा आ रही थी। इस लिए वह अपनी ओर से भगवान को मांगने के लिए प्रार्थना करता है। भगवान वहाँ उपेन्द्र (इन्द्र के छोटे भाई) के रूप में अवतरित होते हैं और ब्रह्मचारी वामन (बौने) के रूप में महाबली के पास जाते हैं। वह ३ पग भूमि दान में लेने के लिए मांगते हैं और महाबली सहर्ष ३ पग भूमि देना स्वीकार करते हैं। भगवान तब अपना त्रिविक्रम रूप धारण करते हैं और महाबली के स्वामित्व की प्रत्येक वस्तु को सहजता से स्वीकार करते हैं। यहाँ सौन्दर्य है -एम्पेरुमान् स्वयं सर्वस्व के स्वामी हैं, वे आसानी से महाबली से धन लेकर इन्द्र को दे सकते हैं परंतु एम्पेरुमान् स्वयं को विनम्र स्थिति में रखकर, प्रार्थना करते हैं जैसे कि उनके पास कुछ भी नहीं है और ३ पग धरा की याचना करते हैं। महाबली को ज्ञात है कि भगवान सम्पूर्ण सम्पन्न सर्वस्व के स्वामी हैं, ३ पग भूमि ऐसे देते हैं जैसे महाबली उनके स्वामी हैं। इस प्रकार जीवत्माओं की सहायता करने की महानता और उनके प्रति समर्पित होने वालों के लिए छोटी भूमिका निभाना उनका एक अद्भुत गुण है।
१७२ –इवनुक्कु स्वरूपस्थिति उण्डाम्पडि पण्णिक्कोण्डु निरपेक्षणाग वेणुमिऱे अवनुक्कु। इवनुडैय स्वरूप स्थित्यर्त्तमाग अवन् तन्नैत् ताऴ विट्टानेन्ऱाल् अदुताने नैरपेक्ष्यत्तुक्कु उडलायिरुक्कुमिऱे अवनुक्कु।
एम्पेरुमान् जीवात्मा के अस्तित्व को बनाए रखने केलिए अपनी इच्छा रहित स्थिति को दर्शाते हैं। ऐसे ही जीवात्मा के यथार्थ स्वरूप को (दासता के) को बनाए रखने केलिए और जीवात्मा के देखरेख के लिए भगवान अपनी स्थिति को छोटा करते हैं तो यह दर्शाया है कि भगवान को जीवात्मा से कुछ भी आशा नहीं है।
अनुवादक टिप्पणी -सब कुछ भगवान पर निर्भर है। भगवान प्रत्येक वस्तु के आधार (मूल) हैं। वे अपनी अथाह कृपा से जीवात्मा को सात्विक बनाने में लगे रहते हैं। लयम् (प्रगति) के पश्चात्, सृष्टि (सृष्टि रचना) के समय, भगवान जीवात्मा को देह और इन्द्रियाँ, ज्ञान (विवेक), शास्त्र आदि देते हैं। वह स्वयं जीवात्मा को शुद्ध करने केलिए इस संसार में अवतरित होते हैं। वे आऴ्वारों और आचार्यों की महिमा को प्रकट करते हैं और उनके माध्यम से कई जीवात्माओं का उद्धार करते हैं। परन्तु यह करने के पश्चात्, वे जीवात्मा से कोई भी आशा नहीं करते। वे यह सब जीवात्मा के उद्धार और उनको यथार्थ स्वरूप में स्थित करने के लिए करते हैं जो कि भगवान का दास है।
१७३–भगवत् विषयम् पोले वाय् वन्तपडि सोल्लवोण्णादिऱे भगवत् विषयम्।
भागवत विषयम् (तथ्यों) को समझना और महिमामंडित करना भगवत् विषयम् जितना आसान नहीं है।
अनुवादक टिप्पणी– भगवत् विषयम के लिए प्रत्येक की योग्यता भगवान के साथ शाश्वत संबंध के कारण है। भगवान के दिव्य नामों का किसी भी तरह से पाठ किया जा सकता है (अगले भाग में देखेंगे)। परन्तु भागवतों को महिममंडित करने के लिए, किसी को भागवतों की स्थिति को सही रूप में समझना होगा और उन्हें उचित रूप से महिमामंडित करना होगा। कभी कभी किसी भागवत को मात्र नश्वर प्राणी मान सकते हैं, इसलिए क्योंकि, वे भी दूसरों की तरह खाते, सोते आदि हैं, उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया जाता है। परन्तु आऴ्वारों ने भागवतजन का अनुकरणीय ढंग से महिमामंडन किया है। भगवान के भक्त को ठीक से समझा जाना चाहिए और उसके जन्म, ज्ञान, गतिविधियों, धन, उसके रहने के स्थान, उसके रिश्तेदारों और उनके कार्यों आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। इनमें से किसी भी मानदंड के आधार पर भागवत को निम्न मानना भागवत अपचार है। इस प्रकार, भागवतों की महिमा करने के लिए सबसे पहले उनके बारे में उचित ज्ञान होना आवश्यक है।
१७४ – तिरुनामम् चॊल्लुगैक्कु रुचियेयाय्त्तु वेण्डुवदु, अवर्गळे अधिकारिगळ्।
भगवान के दिव्य नामों का उच्चारण करने के लिए नाम संकीर्तन के अमृत रस का स्वाद लेना होगा। यह स्वाद ही भगवान के नाम स्मरमरण की योग्यता है।
अनुवादक टिप्पणी: श्रीभागवत पुराण में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि जब कोई हरि (श्रीमन्नारायण) का नाम सामान्य रूप से, व्यंग्यात्मक रूप आदि से भी उच्चारण करता है, तो भी इसे लाभदायी माना जाता है। आऴ्वार् भी नाम संकीर्तनम् की महिमा पर प्रकाश डालते हैं – कोई भी तिरुनाम संकीर्तनम् कर सकता है। तोण्डरडिप्पोडि आऴ्वार् के तिरुमालै विशेष रूप से नाम संकीर्तनम् की महिमा को समझाने पर केंद्रित है। एकमात्र आवश्यकता उसके प्रति स्वाद/इच्छा का होना है। तिरुनाम संकीर्तनम् के लिए यही एकमात्र योग्यता है – इसे किसी भी समय, किसी भी स्थान और किसी भी स्थिति में किया जा सकता है। मुमुक्षुप्पडि में, पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी नारायण मंत्र (अष्टाक्षरी) की महिमा पर प्रकाश डालते हैं और बताते हैं कि कैसे इसने द्रौपदी की रक्षा की, तब भी जब भगवान उससे बहुत दूर थे। सूत्रम् १७ में, भले ही भगवान के दिव्य नामों का उच्चारण किसी भी उचित शिष्टाचार के बिना किया जाता है, यह दिव्य नामों की प्रकृति है कि वे पाठ करने वाले को उसकी भावनानुसार आशीर्वाद देते हैं।
१७५– शेषत्व ज्ञानम् पिऱन्दाल् स्वरूपमान वृत्ति पॆऱामैयाल् वरुम् क्लेशम् प्रायश्चित्तत्ताल् पोक्कुमदन्ऱे।
एक बार जीवात्मा और परमात्मा के बीच अनन्य दास और स्वामी के रूप में संबंध समझ में आ जाता है, तो व्यक्ति को भगवान की सेवा में संलग्न होना चाहिए। यदि कोई सेवा करने में सक्षम नहीं है और कैंकर्य के अभाव के कारण दुःखी हो जाता है, तो उसे सुधारने के लिए कोई प्रायश्चित नहीं किया जा सकता है।
अनुवादक का नोट: मुमुक्षुप्पडि सूत्र ५५ में, पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी ने वर्णन किया है कि “शेषत्वमे आत्मवुक्कु स्वरूपम्” – जीवात्मा की असली पहचान भगवान का सेवक होना है। इस सिद्धांत की चर्चा पहले भी की जा चुकी है। मामुनिगळ् (श्रीवरवरमुनि) सुंदर प्रमाणों पर प्रकाश डालते हैं जैसे “स्वत्वं आत्मनि सज्ञातम् स्वामित्वं ब्राह्मणी स्थितम्” – जीवात्मा की यथार्थ प्रकृति भगवान की संपत्ति होना है और भगवान का स्वरूप स्वामी होना है। एक बार जब यह ज्ञान जीवात्मा द्वारा ठीक से समझ लिया जाता है, तो वह एम्पेरुमान् की शाश्वत कैङ्कर्य के लिए लालायित रहेगा। उदाहरणतः, आऴ्वारों को भगवान ने निष्कलंक ज्ञान प्राप्ति की दिव्य अनुकम्पा प्रदान की। परन्तु एक बार जब उन्हें अपनी वास्तविक स्थिति की अनुभूति हुई और उन्हें अनुभव हुआ कि वे संसार (भौतिक संसार) में हैं और सीधे भगवान की सेवा करने में सक्षम नहीं हैं, तो वे दुःख के सागर में डूब गए। वे तत्क्षण एम्पेरुमान् के नित्य कैङ्कर्य करना चाहते थे। परन्तु भगवत् संकल्प के कारण वे अभी भी संसार में थे और इसके कारण वे बहुत असहाय थे। इस अवस्था में परमपद में शाश्वत कैंकर्य की उनकी इच्छा को पूर्ण करने के लिए कोई प्रायश्चित नहीं किया जा सकता था।
१७६ –इवनै अडिमै कॊळ्ळुगैयाले पुगऴुक्कु एल्लै इल्लैयाय्त्तवनुक्कु। इवनुक्कु अडिमै सॆय्गैयाले पुगऴुक्कु अन्तमिल्लैयाय्त्तु इवर्गळुक्कु।
जब एम्पेरुमान् जीवात्माओं को अपनी उचित सेवा में लगाते हैं तो उन्हें असीम महिमा प्राप्त होती है। भगवान की सेवा करने पर जीवात्मा को असीमित महिमा प्राप्त होती है।
अनुवादक टिप्पणी– भगवान सर्वोच्च स्वामी हैं। वह अपने आप में महिमामय हैं। फिर भी जब वह जीवात्माओं को सात्विक बनाते हैं और उन्हें अपनी सेवा में लगाते हैं तो उनकी महिमा कई गुना बढ़ जाती है। तिरुवाय्मॊऴि में, ३.३ “ऒऴिविल् कालम्” पदिगम में, नम्माऴ्वार् ने इस सिद्धांत को चौथे पासुर में अद्भुत रूप से प्रकट किया है।
ईशन् वानवर्क्कु ऎन्बन् ऎन्ऱाल् अदु तेसमो तिरुवेङ्कडत्तानुक्कु नीसनेन् निरै ओन्ऱुमिलेन् एन् कण् पाशम् वैत्त परम् सुडर्च् चोदिक्के।
भगवान नित्यसूरियों के परम स्वामी हैं। परन्तु तब यह बड़ी बात नहीं है जब तिरुवेङ्कटम् में उनकी तुलना की जाती है। यहाँ वे मुझ पर कृपा कर रहे हैं जबकि मैं अत्यंत पतित हूँ और कोई अच्छे गुण नहीं हैं। मुझे स्वीकार करके उन्होंने अब महान तेज/महिमा प्राप्त किया है। इसी सिद्धांत को नम्माऴ्वार् ने तिरुवाय्मॊऴि ३.१.९ में समझाया है “मऴुङ्गात वैन्नुदिय… उन् सुडरच्चोदि मऱैयादे” – जब गजेन्द्राऴ्वान् भयानक स्थिति में थे, एम्पेरुमान् तालाब की ओर दौड़े, उनकी रक्षा की और उनके कैंकर्य को स्वीकार किया – आऴ्वार् एम्पेरुमान् की दया से आश्चर्यचकित हो गए और कहते हैं कि गजेंद्र आऴ्वान् की रक्षा करने के उनके कार्य से, उनकी महिमा कई गुना हो गई है।
जब जीवात्माएँ उनकी एकनिष्ठ सेवा करती हैं, तो उनकी भी बहुत महिमा होती है। भगवान स्वयं उन लोगों की महिमा की पहचान कराते हैं जो भगवत् गीता में पूर्ण रूप से अनुभव किया गया है।
- श्लोक ७.१६- ४ प्रकार के लोग जो उनके पास आते हैं – शोकाकुल, धन की लालसा रखने वाले, जिज्ञासु और ज्ञानी (वे जो आवश्यक सिद्धांतों को ठीक से समझ चुके हैं)।
- श्लोक ७.१७- सभी ४ प्रकार के लोगों में से, वह ज्ञानी जो मेरे प्रति पूर्ण भक्ति रखता है, सबसे अधिक महिमामंडित है। वह मुझे सबसे प्रिय है और मैं उसे सबसे अधिक प्रिय हूँ।
- श्लोक ७.१८ – जबकि, सभी ४ प्रकार के लोग जो मेरे प्रति समर्पण करते हैं सराहनीय हैं, उनमें से ज्ञानी ही है जो मुझे बनाए रखता है और मेरी आत्मा के रूप में माना जाता है, क्योंकि वह मुझे चरम प्राप्य लक्ष्य के रूप में देखता है।
१७७ – सम्सारत्तिले इरुन्ताल् इवनुक्कुप् पुगऴुण्डागिलाय्त्तु परमपदत्तिलिरुन्दाल् अवनुक्कु पुगऴुण्डावदु। इन्निलत्तैविड इवनुक्कुप् पुगऴुण्डामाप्पोले अन्निलत्तै विडविड अवनुक्कुप्पुगऴुण्डाम्। इरुवरुक्कुमिरण्डुम् अलभ्य लाभमिऱे।
केवल यदि जीवात्मा को संसार में रहने के कारण महिमा मिलती है, तो भगवान को भी परमपद में रहने के कारण महिमा मिलेगी। जैसे जीवात्मा की महिमा संसार को छोड़ने (और परमपद में जाने) के लिए की जाती है, भगवान की महिमा परमपद को छोड़ने (और संसार में अवतरित होने) के लिए की जाती है।
अनुवादक टिप्पणी – भगवान की सेवा परमपद में नित्यसूरी और मुक्तात्माओं द्वारा की जाती है। एक बार जब भगवान के सेवक के रूप में अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, तो संसार में बध्द जीवात्मा भी परमपद में भगवान की अनंत काल तक सेवा करने के योग्य हो जाते हैं। केवल जब उन्हें अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है और वे परमपद तक पहुँचते हैं तो उनकी बहुत महिमा होती है। इसी प्रकार, भगवान सभी के सर्वोच्च स्वामी होने के नाते परमपद में अनंत सुखों का आनंद ले रहे हैं – उनके परत्व (सर्वोच्चता) के लिए उनकी बहुत महिमा है। परमपद में, प्रत्येक पूर्ण आत्मज्ञानी है और ठीक से भगवान की सेवा कर रहा है इसलिए, उनके लिए अपने कई गुणों जैसे सौलभ्यम् (सादगी), सौशील्यम् (उदारता), वात्सल्यम् (मातृ सहनशीलता), कारुण्यम् (दया) आदि को प्रकट करने का कोई अवसर नहीं है। भगवान के ये दिव्य गुण पूरी तरह से संसार में प्रकट होते हैं। तत्वत्रयम् में, पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी सूत्र १५० में भगवान के विभिन्न मङ्गल गुणों और उन गुणों के उद्देश्य की व्याख्या करते हैं।
- ज्ञानम् (ज्ञान) – अज्ञानी के लिए
- शक्ति (शक्ति) – शक्तिहीन के लिए
- क्षमामय (क्षमा करना) – उन लोगों के लिए जो गलतियाँ करते हैं
- कृपा (दया) – उन लोगों के लिए जो दुःख में हैं
- वात्सल्यम् (मातृ सहनशीलता) – जिनके पास दोष हैं उनके लिए
- शीलम् (उदारता) – वंचितों के लिए
- आर्जवम् (ईमानदारी-अखंडता) – उनके लिए जो चालाक हैं
- सौहार्दम् (दयालु) – दुष्ट हृदय वालों के लिए
- मार्धवम् (कोमल स्वभाव) – जो उसके वियोग को सहन नहीं कर सकते
- सौलभ्यम् (सरलता/आसान पहुँच) – उन लोगों के लिए जो उन्हें देखने की इच्छा रखते हैं
- इत्यादि
जैसा कि हम देख सकते हैं, केवल संसार में, ये गुण पूरी तरह से प्रकट होते हैं, क्योंकि परमपद में, प्रत्येक को पूर्ण रूप से अनुभव होता है और उनके पास भगवान द्वारा प्रदान की जाने वाली कोई वस्तु नहीं होती है। ऋग्वेद में कहा गया है कि “स उ श्रेयान् भवति जायमान:” जब भगवान इस जगत में अवतार लेते हैं तो वे और अधिक प्रशंसनीय हो जाते हैं। उनका सौलभ्यम् केवल भौतिक जगत में ही स्पष्ट रूप से प्रकट होता है। यही कारण है कि हमारे आऴ्वार् और आचार्यों ने अपना जीवन पूरी तरह से भगवान के कई अवतारों की महिमा करने में केंद्रित किया, वह भी मुख्य रूप से कृष्णावतार में जहाँ उन्होंने स्वयं को पूरी तरह से गोप और गोपियों के नियंत्रण में रखा। उनके विभवावतार (विभिन्न अवतारों) से भी अधिक, अर्चावतार (अर्चा मूर्ति रूप) प्रत्येक के लिए प्रत्येक क्षण अधिक सुलभ और आसानी से उपलब्ध है। यही कारण है कि पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी ने मुमुक्षुप्पडि सूत्रम् १३९ में यह महिमामंडित किया कि एम्पेरुमान् के सौलभ्य की चरम सीमा अर्चावतार है। इस प्रकार जब भगवान संसार में अवतरित होते हैं तो उनकी महिमा कई गुना हो जाती है।
१७८– प्राप्यत्तिऱ्-कु प्रापकमाग वेदान्तङ्गळिल् भक्तियॆन्ऱुम् प्रपत्तियॆन्नुम् इरण्डु प्रापकङ्गळै विदित्तदु। अवै इरण्डिलुम् भक्ति त्रैवर्णिकाधिकारम्। प्रपत्ति सर्वाधिकारम्।
प्राप्यम् – प्राप्त करने योग्य लक्ष्य। प्रापकम् – उपाय। वेदांत में चरम उपाय के लिए भक्ति योग और प्रपत्ति (समर्पण) को दो उपायों के रूप में जाना जाता है। इन दोनों में से, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य भक्ति योग करने के योग्य हैं। प्रत्येक व्यक्ति प्रपत्ति करने के योग्य है। यह सिद्धांत/उद्धरण तिरुवाय्मोऴि १०.४ के प्रवेशम् (परिचय) में “चार्वे तवनॆऱिक्कु” व्याख्यान है।
अनुवादक टिप्पणी– शास्त्र में, भक्ति योग और प्रपत्ति दोनों को भगवान की प्राप्ति के लिए सर्वोत्तम उपाय माने गये हैं। भक्ति योग में वेद अध्ययन (वैदिक पाठ सीखना), वेद और वेदांत के अर्थ सीखना, वेद/वेदान्त में निर्देशित कर्मानुष्ठान का अभ्यास करना और अंत में भगवान के प्रति निष्ठापूर्ण भक्ति विकसित करने से संबंधित आवश्यक सिद्धांतों को एक क्रमबद्ध रूप से धारण करना सम्मिलित है। यह प्रक्रिया केवल पहले तीन वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – के लिए प्रक्रिया में है। आऴ्वार स्वयं तिरुवाय्मोऴि १.३ में भक्ति योग की व्याख्या करते हैं – “पत्तुडै अडियवर्क्कु” पदिगम को बहुत विस्तृत वर्णन करते हैं। दूसरी ओर, प्रपत्ति जीवात्मा और परमात्मा के बीच शाश्वत संबंध पर आधारित है। प्रपत्ति भगवत्प्राप्ती के उपाय के रूप में भगवान को स्वीकार करना है। जबकि यह जीवात्मा के प्राकृतिक दृष्टिकोण पर आधारित है, कोई भी व्यक्ति प्रपत्ति करने योग्य है। आऴ्वार तिरुवाय्मोळि १.३ में प्रपत्ति की प्रक्रिया बताते हैं – “वीडुमिन् मुट्रवुम्) पदिगम् (दशक) में। नम्पिळ्ळै ने अद्भुत वर्णन किया है कि नम्माऴ्वार् पूर्णतः प्रपत्ति पर केंद्रित हैं। नम्माळ्वार १०.४ “चार्वे तवनेरिक्कु” पदिगम (दशक) और १०.५ “कण्णन् कऴलिनै” पदिगम में दिव्य सिद्धांतों का सार बताते हैं – वे वर्णन करते हैं कि भगवान के चरण कमलों को स्वीकार करना ही हमारे उज्जीवन का एकमात्र सच्चा पथ है। नम्पिळ्ळै भी दर्शाते हैं कि यह वेदान्त के साथ सुसंगत (अनुकूल) है जो यह निश्चित करता है कि “तस्मान्न्यासमेषाम् तपसामतिरिक्तिमाहु:” – सभी तपस्याओं में से प्रपत्ति सर्वश्रेष्ठ है।
१७९ – अनन्य प्रयोजनान भक्तिमान्गळुक्कुम् पलप्रतनाय् उपायमायिरुक्कुम्। तन्नैये पट्रिनार्क्कु अव्यवहितोपायमाम्।
जो बिना किसी अपेक्षा के भक्ति करते हैं, भगवान उनके लिए हितकारी होंगे और उन्हें चरम लक्ष्य तक आशीर्वाद देंगे। जो लोग भगवान को केवल उपाय के रूप में स्वीकार करते हैं, उनके लिए वह अंतिम लक्ष्य प्राप्त करने का तत्काल/पूर्ण उपाय होंगे। इस सिद्धांत/उद्धरण को तिरुवाय्मोऴि १०.४.१० में वर्णित किया गया है।
अनुवादक टिप्पणी– भगवान परम-चेतन (सर्वोच्च ज्ञानी) हैं। भक्ति योग मात्र अचेतन (आत्म-ज्ञान से रहित) है। जो लोग भगवत कैंकर्य के अतिरिक्त किसी अन्य अपेक्षा के बिना शुद्ध भक्ति योग करते हैं, भगवान उनके लिए उपाय बन जाते हैं (भले ही वे भक्ति को उपाय मानते हैं)। उन लोगों के लिए जो पूर्ण रूप से एम्पेरुमान् को समर्पित हैं और एम्पेरुमान् को उपाय मानते हैं, वे तुरंत उनकी इच्छा पूरी करते हैं और उन्हें (इस जीवन के अंत में) शाश्वत कैंकर्य का आशीर्वाद देते हैं। पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी इस सिद्धांत का मुमुक्षुप्पडि चरम श्लोक सूत्रम् २१५ और २१६ में अद्भुत वर्णन करते हैं।
- सूत्र २१५- अदावदु – सिद्धमाय्,परमचेतनमाय्, सर्वशक्तियाय्, निरपायमाय्, प्राप्तमाय्, सहायान्तर निरपेक्षामायिरुक्कै– भगवान सिद्ध हैं (सदैव विद्यमान), परमचेतनम् (सर्वोच्च ज्ञानी), सर्वशक्ति (सर्वशक्तिमान), निरपायम् (पूर्णता का कोई डर नहीं क्योंकि वह पहले से ही विद्यमान है), प्राप्तम (जीवात्मा के लिए उपयुक्त स्वामी), सहायान्तर निरपेक्षम् (किसी अन्य सहायक की अपेक्षा नहीं करता है)।
- सूत्र २१६ – मट्रै उपायङ्गळ् साध्यङ्गळागैयाले, स्वरूप सिद्धियिल् चेतननै अपेक्षित्तिरुक्कुम्; अचेतनङ्गळुमाय्, असक्तङ्गळुमायिरुक्कैयाले कार्य सिद्धियिल् ईश्वरनै अपेक्षित्तिरुक्कुम्। इन्द उपायम् अवट्रैक्कु एदिर्त्तट्टायिरुक्कैयाले, इदरनिरपेक्षमायिरुक्कु” – एक जीवात्मा को आत्मसात करने के लिए अन्य उपाय जैसे कर्म, ज्ञान, भक्ति योगम् को निष्पादित करने की आवश्यकता है। जबकि वे स्वयं ज्ञानी नहीं हैं और उनके पास फल प्राप्त करने की कोई शक्ति नहीं है, वे उस अवस्था में भगवान को ही देखते हैं। परन्तु यह उपाय (स्वयं भगवान) इन अन्य उपायों के सर्वथा विपरीत है – इसलिए भगवान स्वयं किसी से कुछ भी अपेक्षा किए बिना फलों का लाभ प्रदान कर सकते हैं।
१८० – कुट्रम् तलैनिरम्बि पुरम्बु पुगलिल्लादारै रक्षिक्कुम् ईश्वरन्। कुट्रम् निरम्बि अनुतापम् ईल्लादारै पोऱुप्पिक्कुम् पिराट्टि।
ईश्वर उन लोगों की सुरक्षा और उज्जीवन प्रदान करेगा जो दोषों से भरे हुए हैं, परंतु (स्वयं भगवान के अतिरिक्त) उनका कोई आश्रय नहीं है। पिराट्टि उन लोगों की रक्षा और उज्जीवित करेगी जो दोषों से भरे हुए हैं, फिर भी वे अपने दोषों के लिए प्रायश्चित्त भी नहीं करते हैं।
अनुवादक टिप्पणी– वात्सल्यम् (मातृत्व सहनशीलता) भगवान के सबसे महत्वपूर्ण मङ्गल गुणों में से एक है। वात्सल्यम् को ज्ञान सारम् पासुरम् २५ में अरुळाळ पेरुमाळ् एम्पेरुमानार् ने अद्भुत वर्णन किया है:
अट्रम् उरैक्किल् अडैन्दवर् पाल् अम्बुयैकोन्
कुट्रम् उणर्न्दु इगऴुम् कॊळ्गैयनो
ऎट्रे तन् कन्ऱिन् उडम्बिन् वऴुवन्ऱो कादलिप्पदु
अन्ऱतनै ईन्ऱुगन्द आ।
जब हम शास्त्र की पूर्णतर जाँच करते हैं, तो हम समझते हैं कि श्रीमन्नारायण, जो श्री महालक्ष्मी के स्वामी हैं, क्या वह अपने भक्तों को त्याग देंगे क्योंकि उनमें दोष हैं? (नहीं)। जब गाय बछड़े को जन्म देती है तो वह अपनी जीभ से बछड़े के शरीर की गंदगी को साफ करती है। (इसी प्रकार भगवान भी अपने भक्तों को उनके दोषों के साथ स्वीकार करते हैं)।
हम इसे स्वयं श्री राम के चरित्रम् में गुहन् को स्वीकार करते हुए स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। तिरुमङ्गै आऴ्वार् पेरिय तिरुमोऴि ५.८.१ में गुहन् के स्वभाव पर प्रकाश डाला है, जैसे “ऐऴै ऐदलन् कीऴ्मगन्” कि गुहन् बहुत बुरा आचरण, क्रूर स्वभाव आदि का है – फिर भी श्री राम ने उसे अपने भाई के रूप में स्वीकार कर लिया।
पिराट्टि उससे भी महान है। यहाँ तक कि जब काकासुर ने सबसे घृणित अपराध किया और उसके लिए पश्चाताप भी नहीं किया, तो वह दयापूर्वक उसे माफ कर देती है और उसे श्रीराम के चरण कमलों में भेज देती है। इसके अतिरिक्त, जब अशोक वन में रहते हुए राक्षसियों ने उन पर अत्याचार किया, तो उन्होंने उनके व्यवहार को बिल्कुल भी बुरा नहीं माना, जबकि उन राक्षसियों ने व्यक्तिगत रूप से भी अपने कृत्यों के लिए पश्चाताप नहीं किया। जब रावण का विनाश हुआ और हनुमान जी सीता माता से मिलने आए, तो उन्होंने उनसे उन राक्षसियों पर अत्याचार करने की अनुमति देने का अनुरोध किया। हनुमानजी की मनोदशा देखकर राक्षसियाँ काँपने लगती हैं। परन्तु पिराट्टि, उन राक्षसियों के प्रति कठोर होने के लिए हनुमान का दोष निकालती हैं और दयापूर्वक उनकी रक्षा करती हैं। इस प्रकार पिराट्टि अपने मातृ स्वरूप के कारण भगवान से भी अधिक दयालु हैं।
अडियेन् अमिता रामानुजदासी
आधार – https://granthams.koyil.org/2013/10/divine-revelations-of-lokacharya-18/
प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
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