श्री: श्रीमते शठकोपाय नम:। श्रीमते रामानुजाय नम:। श्रीमद् वरवरमुनये नमः। श्रीवानाचलमहामुनये नमः।
लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियाँ
१८१–रक्ष्य वर्गम् कुऱैवट्र देसमागैयाले रक्षकनुक्कु सम्पत्तु मिक्किरुक्कुम् इङ्गु। कैङ्कर्यत्तुक्कु विच्छेदमिल्लामैयाले सेष भूतनुक्कु सम्पत्तु मिक्किरुक्कुम् अङ्गु।
भगवान इस संसार (भौतिक संसार) में जीवात्मा के उत्थान करके अपनी “रक्षकन” (रक्षक/उज्जीवित कर्ता) उपाधि स्थापित करने की खोज में हैं। जबकि असंख्य जीवात्माएँ हैं, इसलिए उनकी रक्षकत्वम् (संरक्षकता) यहाँ स्पष्ट रूप से स्थापित है और संसार में वे इस तत्व में बहुत समृद्ध हैं। जीवात्मा का यथार्थ स्वरूप भगवान की सेवा करना है। वह सेवाभाव ही उसका सच्चा धन है। जबकि परमपद में निर्बाध सेवा का अवसर है, इसलिए यह कैंकर्यश्री (सेवा का धन) से भरपूर है।
अनुवादक टिप्पणी – प्रणवम् में जो अकारम् है वह भगवान है। भट्टर् अष्टश्लोकी में वर्णित करते हैं -पहला श्लोक में ही- “अकारार्थो विष्णु:”। संस्कृत में, अकारम् अवरक्षणे का प्रतिनिधित्व करता है – जिसका अर्थ है रक्षा करना। यह गुण (सुरक्षा देना) श्रीमन्नारायण के लिए सबसे स्वाभाविक है। पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी ने मुमुक्षुप्पडि में सूत्र ३६, ३७, ३८, ३९ में “रक्षकम्” का सटीक अर्थ बहुत सुंदर ढंग से समझाया हैं- हम इसे मामुनिगळ् (श्रीवरवरमुनि) की अद्भुत् टिप्पणी से सटीक ढंग से समझ सकते हैं।
- सूत्र ३६- रक्षिक्कैयावदु विरोधियैप् पोक्कुगैयुम् अपेक्षितत्तैक्कॊडुक्कैयुम् – सुरक्षा का अर्थ है बाधा को दूर करना जो दुख का कारण बनते हैं और आशाओं को पूरा करना जो आनंद की ओर ले जाता है।
- सूत्र ३७- इवैयिरण्डुम् चेतनर् निन्ऱ निन्ऱ अळवुक्कु ईडायिरुक्कुम् – ये दोनों (बाधाओं को दूर करना और आशाओं को पूरा करना) जीवात्मा की स्थिति पर निर्भर है।
- सूत्र 38 – सम्सारिगळुक्कु विद्रोही चत्रुपीटाधिगळ्, अपेक्षितं अन्नपानादिगळ्; मुमुक्षुक्कळुक्कु विरोधि सम्सार संबंधम्; अपेक्षितं परमपदप्राप्ति; मुक्तर्क्कुम् नित्यर्क्कुम् विरोधि कैङ्कर्य हानि, अपेक्षितम् कैंङ्कर्य वृद्धि – संसारियों (भौतिक संसार में संलग्न) के लिए शत्रु, रोग आदि हैं बाधाएँ तथा भोजन, पानी आदि वांछनीय हैं; मुमुक्षुओं के लिए (जो भगवान की सेवा करना चाहते हैं) संसार में उनका अस्तित्व बाधा है और परमपद तक पहुँचना वांछनीय है; नित्यसूरियों और मुक्तों (जो परमपद के निवासी हैं) के लिए कैंकर्य में कोई भी विराम बाधा है और कैंकर्य वृद्धि वांछनीय है।
- सूत्र ३९ – ‘ईश्वरनै ऒऴिन्दवर्गळ् रक्षकल्लर्’ एन्नुमिडम् प्रपन्न परित्राणत्तिले सॊन्नोम्– मैंने पहले ही प्रपन्न परित्राणम् में वर्णन किया है कि “श्रीमन्नारायण एकमात्र रक्षक हैं और कोई नहीं”।
इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि भगवान का सच्चा धन उनका सभी का रक्षक होना है।
सामान्यतः “श्री” का अर्थ सम्पत्ति होता है। श्रीवैष्णव सम्प्रदाय में जीवात्मा का ध्यान कैंकर्यश्री (दासता का धन) प्राप्त करने पर है। परमपदम को “नलम् अन्तम् इल्लदोर् नाडु” कहा जाता है – अनंत भगवत् अनुभव का निवास (जो अनंत भगवत् कैंकर्य की ओर ले जाता है)। परमपद में, जीवात्मा पूर्ण रूप से साकार अवस्था में हैं। वे अनेक प्रकार से निरंतर कैंकर्य में लगे रहते हैं। नित्यसूरि और मुक्तात्मा कितने भी भिन्न रूप धारण कर सकते हैं और परमपद में भगवान की सेवा कर सकते हैं। पॊय्गै आऴ्वार् मुदल् तिरुवन्दादि पासुरम ५३ में अदिशेष को उनके कई अद्भुत कैंकर्यों के लिए महिमामंडित किया गया है।
सेन्ऱाल् कुडैयाम् इरुन्दाल् सिङ्गासनमाम्
निन्ऱाल् मरवडियाम् नीळ् कडलुळ् ऎन्ऱुम् पुणैयाम्
मणिविळक्काम् पूम्पट्टाम् पुल्गुम् अणैयाम्
तिरुमाऱ्-कु अरवु।
आदिशेष श्रीमन्नारायण की सेवा करने के लिए कई अद्भुत रूप धारण करते हैं। भगवान जब भ्रमण के लिए जाते हैं तब वह छत्र बन जाते हैं। जब भगवान बैठते हैं तो वह सिंहासन बन जाते हैं। जब भगवान खड़े होते हैं तो वह पादुका बन जाते हैं। वह भगवान के शयन के लिए क्षीर सागर में पर्यंङ्क बन जाते हैं। वह मंगल दीपक बन जाते हैं। वह भगवान के लिए सुंदर रेशमी वस्त्र बन जाते हैं। वह सोते समय भगवान को गले लगाने के लिए तकिया बन जाते हैं। इस प्रकार जीवात्मा श्रीवैकुंठम (परमपदम्) में प्रचुर मात्रा में सेवा कर सकते हैं।
१८२– अऱिवुडैयार्क्कु पोऱुक्कवोण्णाद नरकम् सम्सारमिऱे।
जीवात्मा भगवान के सेवक हैं। जो लोग इस सिद्धांत को स्पष्ट रूप से समझ चुके हैं और परमपद में उनकी नित्य कैङ्कर्य के लिए उत्सुक हैं, उनके लिए इस भौतिक संसार में रहना ही नारकीय है।
अनुवादक टिप्पणी – नम्माऴ्वार् को स्वयं भगवान ने अपनी अहैतुकी कृपा से निष्कलंक ज्ञान का आशीर्वाद दिया है। जैसे ही आऴ्वार् को भगवान के सच्चे सेवक के रूप में अपनी स्थिति और परमपद में उनकी अनंत काल तक सेवा करने के अवसर की अनुभूति होती है, वे तिरुविरुत्तम् के अपने पहले पासुर (जो कि उनका पहला दिव्य प्रबंध है) में ही भगवान से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें तुरंत इस शरीर से छुटकारा मिल जाए। वे बलपूर्वक कहते हैं कि इस संसार में एक क्षण भी नहीं रह सकता। नम्पिळ्ळै अपने व्याख्यान में परिचित कराते हैं कि आऴ्वार् को ऐसी अनुभूति होती है जैसे वह जलती हुई आग पर खड़े हैं।
- तिरुवाय्मोऴि २.६.७ में, उन्होंने इस संसार (भौतिक संसार) को “विडिया वॆन्नरकम्” – अंतहीन नरक के रूप में कहा है।
तिरुवाइमोळि के अंत में, १०.६.५ “अरुळ् पेरुवार्” पदिगम में, जब भगवान आऴ्वार् को शीघ्र ही परमपद में लाने की अपनी इच्छा प्रकट कर रहे हैं, नम्माऴ्वार् अपने हृदय को निर्देश देते हैं “नरकत्तै नगु नॆञ्जे”– परमपद पहुचने से पहले इस संसार पर हंसो (जिसकी तुलना नरक से की जाती है)। नम्पिळ्ळै इस व्याख्यान में एक सुंदर घटना पर प्रकाश डालते हैं। जब अऴगियमणवाळ पेरुमाळ् अरैयर एक बीमारी (एक घाव के कारण) के कारण परमपद की ओर जा रहे थे, तो वह घाव को देखते हैं, हंसते हैं और कहते हैं, “मैंने तुम्हें अब हरा दिया है और मैं परमपद की ओर जा रहा हूँ”। उनका दृढ़ विश्वास था कि भगवान उन्हें परमपद तक लाने के लिए उनके साथ थे।
इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि जब जीवात्मा को अपने वास्तविक स्वरूप की अनुभूति होती है, तो भगवान से अलग होकर संसार में रहना नारकीय जीवन मानते हैं ।
१८३– सर्व साधारणनान स्वामियुडैय व्यापारमॆल्लाम् ऎनक्कॆन्न ऎनक्कॆन्नलामिऱे शेष भूतरुक्कु।
भगवान सभी के सामान्य स्वामी हैं। वह जो कुछ भी करता है, जीवात्मा एक सेवक होने के नाते सोचता है कि भगवान जीवात्मा के हित के लिए ऐसा कर रहे हैं।
अनुवादक टिप्पणी– एक बार जब हम वास्तव में समझ जाते हैं कि भगवान सबके स्वामी हैं और प्रत्येक जीवात्मा उनका सेवक है, तो हमें प्रसन्नता होगी जब भगवान किसी अन्य जीवात्मा की भी मदद करेंगे। उदाहरणतः, जब भी आऴ्वार् भगवान के बारे में सोचते हैं कि वे गजेन्द्र आऴ्वान की सहायता कर रहे हैं, तो उन्हें लगता है कि भगवान वास्तव में उनकी मदद कर रहे हैं। यह श्रीवैष्णवम् की सर्वोच्च अवस्था है – अन्य श्रीवैष्णवों की जो भी महिमा होती है, अगर कोई उसके लिए प्रसन्न होता है जैसे कि वह स्वयं महिमामंडित है, तो यह हमारे सत् संप्रदाय के समझ की सर्वोच्चता को दर्शाता है।
१८४– ज्ञानलाभमुण्डान पिन्बु “अव्वरुगिल् प्राप्ति पेट्रिलोम्” एन्ऱु वरुवदोरु कुऱैयुण्डो।
निष्कलंक ज्ञान से धन्य होने और निरन्तर भगवान के दिव्य मङ्गल गुणों का आनंद लेने में लगे रहने के पश्चात्, किसी और वस्तु की आवश्यकता नहीं है।
अनुवादक टिप्पणी– जीवात्मा की यथार्थ स्थिति को समझने के पश्चात्, भगवान के साथ अनुभवम् (बातचीत) को विशेष रूप से दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:-
- बुद्धि में भगवान के साथ उनके दिव्य रूपों, गुणों, गतिविधियों आदि की कल्पना करते हुए – पूरी तरह से संतुष्ट होना और निरन्तर ऐसे भगवत अनुभवम् में संलग्न रहना।
- यह अनुभव करते हुए कि हम अभी भी संसार में हैं और स्वयं को देखते हैं, हम दुःख के सागर में डूब जाते हैं और भगवान से अलगाव विरह अनुभव करते हैं
इसे पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी ने मुमुक्षुप्पडि द्वय प्रकरण सूत्रम् ११६ में वर्णन किया है। एक श्रीवैष्णव के आवश्यक गुणों की व्याख्या करते हुए, वह अन्य गुणों के अतिरिक्त दो गुणों पर प्रकाश डालते हैं।
- पेऱु तप्पाॆन्ऱु तुणिन्तिरुक्कैयुम् – एक श्रीवैष्णव को दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि वह निश्चित रूप से परमपद पोहुँचेगा।
- पेट्रुक्कुत् त्वरिक्कैयुम् – भगवान के नित्य सेवा की इच्छा से निरंतर परमपद पोहुँचने कि लालसा में रहना।
अऴगिय मणवाळ् पेरुमाळ् नायनार् ने अपने आचार्य हृदयम् चूर्णिका १९ में परमपदम् तक पहुंचने में पूर्ण आश्वस्त होने के इसी सिद्धांत को दर्शाया है।
शास्त्रिगळ् तेप्पक्करैयरैप्पोले इरण्डैयुम् इडुक्किप् पिऱविक्कडलै नीन्द सारक्यर् विट्टत्तिलिरुप्पारैप्पोले इरुकैयुम् विट्टु करैकुऱुकुम् कालमेण्णुवर्गळ् – जो लोग कर्म/ज्ञान/भक्ति योग का अभ्यास करते हैं, वे एक तरफ से चप्पू पकड़ेंगे और दूसरे हाथ से तैरेंगे इस संसार सागर को पार करने की आशा में। जो लोग शास्त्र (उपाय के रूप में भगवान) के सार के ज्ञाता हो चुके हैं वे भगवान को जहाज के रूप में स्वीकार करते हैं क्योंकि केवल वे ही संसार रूपी सागर को पार करने में सहायक हैं और उस जहाज के सबसे ऊँचे स्थान पर रहकर परमपदम् तक पहुँचने की प्रतीक्षा करेंगे। मामुनिगळ् का व्याख्यान इस महत्वपूर्ण चूर्णिका के लिए सटीक और सुन्दर है।
१८५– चेतननै ओऴिय अचेतननुक्कु स्थितियिल्लादाप्पोले ईश्वरनै ओऴिय आत्मावुक्कु स्थितियिल्लै।
पदार्थ (शरीर) आत्मा की उपस्थिति के बिना अपना अस्तित्व बनाए नहीं रख सकता। उसी प्रकार भगवान के बिना आत्मा अपना अस्तित्व नहीं बनाए रखती है।
अनुवादक टिप्पणी– कोई भी वस्तु जो हमारी इंद्रियों (दृष्टि, स्पर्श, अनुभव आदि) के माध्यम से देखी जा सकती है, उसे अचेतनम (वस्तु) कहा जाता है। सभी भौतिक वस्तुओं के अन्दर एक आत्मा होती है। उनके अंदर आत्मा के बिना कुछ भी स्थित नहीं रह सकता। श्रुति इस पर भी प्रकाश डालती है: अनेन जीवन आत्मना अनुप्रविष्य नामरूपे व्याकरवाणि) – इस संदर्भ में इस प्रमाण का तात्पर्य है – नाम और रूप वाली कोई भी वस्तु जीवात्मा द्वारा नियंत्रित होती है। इसी प्रकार, भगवान ही वह हैं जो सभी जीवात्माओं का पालन-पोषण करते हैं। अऴगिय मणवाल् पेरुमाळ् नायनार् ने आचार्य हृदयम चूर्णिकै २१७ में बताया है कि भगवान की व्यापक्त्वम् (सर्वव्यापी उपस्थिति) को तिरुवाय्मोऴि के तीसरे शतकम् में नम्माऴ्वार् ने पूर्ण व्याख्या की है।
१८६– पुरुषार्थम् पेऱुवदु ओरु चेतननाले। अचेतनक्रियाकलापादिकळालन्ऱे।
हम जो कुछ भी प्राप्त करना चाहते हैं, वह केवल चेतनन (जिसके पास ज्ञान और कर्म है) द्वारा ही प्रदान किया जा सकता है। यज्ञ आदि सभी कर्म अचेतनम् (वस्तु पर आधारित) हैं। इस प्रकार, परमचेतनन् (सर्वोच्च ज्ञानी) वह है जो आशीर्वाद देने वाला है। इस सिद्धांत/उद्धरण को नम्पिळ्ळै ने तिरुवाय्मोऴि १०.१०.५ व्याख्यान में दर्शाया है।
अनुवादक टिप्पणी– सभी प्रक्रियाएँ जैसे कर्म योग, ज्ञान योग, भक्ति योग, यज्ञ, दान आदि शास्त्र में दी गई प्रक्रियाएँ हैं। वे स्वयं कर्ता को कर्म का फल देने में सक्षम नहीं हैं। भगवान निरीक्षण करते हैं कि जीवात्मा इनमें से एक या अधिक प्रक्रियाओं में लगा हुआ है और कलाकार को उसके प्रदर्शन के आधार पर परिणाम देता है। इस प्रकार, हमारे पूर्वाचार्य इसी तरह से पूर्णतः भगवान पर निर्भर थे और परमपद में निर्बाध भगवत कैंकर्य के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उन्हें एकमात्र उपाय के रूप में स्वीकार करते थे।
इस प्रकार नम्पिळ्ळै के ईडु व्याख्यानम् से श्रीसूक्तियों का सुंदर संग्रह समाप्त होता है। अगले और अंतिम लेख में हम इस अद्भुत साहित्य और इसकी महिमा के बारे में सारथी स्वामीजी का एक समापन नोट देखेंगे।
अडियेन् अमिता रामानुजदासी
आधार –https://granthams.koyil.org/2013/10/divine-revelations-of-lokacharya-19/
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