श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः
एक दिन श्रीकृष्ण और बलराम अपने ग्वाल-बाल सखाओं के साथ वृन्दावन में खेल रहे थे। एक प्रलम्बासुर नामक राक्षस ग्वाल-बाल का रूप धारण कर उनकी गोष्ठी में प्रवेश कर गया। वह किसी भी युक्ति को अपनाकर श्रीकृष्ण को मारना चाहता था। उसको पहचानकर बलराम ने उसका वध करने का निर्णय लिया।
उस समय, श्रीकृष्ण और बलराम ने ग्वाल-बालों के साथ खेलना आरम्भ किया। खेल का नियम यह निश्चित किया कि पराजित दल को विजेताओं को अपने साथ रखना होगा। एक दल के नेता श्रीकृष्ण और दूसरे दल के नेता बलराम बने। प्रलम्बासुर श्रीकृष्ण के दल का सदस्य बना और वे पराजित हो गए। अब प्रलम्बासुर ने बलराम को ले जाने, तेज दौड़ने और मारने की योजना बनाई। बलराम उसके विचारों को जानते थे, बलराम ने अपना भार बड़ा लिया अब प्रलम्बासुर उस भार को उठाने में सक्षम नहीं था। बलराम ने उसे बलपूर्वक धकेला, शीर्ष पर प्रहार किया और उसका वध कर दिया।
इस लीला को आण्डाळ् नाच्चियार् (गोदाम्बा जी) ने नाच्चियार् तिरुमोऴि में दर्शाया “पिलम्बन् तन्नैप् पलदेवन् वॆन्ऱ” (प्रलम्बासुर को बलराम ने हराया) और पेरियाऴ्वार् ने पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि में वर्णन किया “तेनुगन् पिलम्बन् कालियन् ऎन्नुम्” (वे जो धेनुकासुर, प्रलम्बासुर और कलिङ्ग के नाम से जाने जाते हैं)
सार-
- पेरियाऴ्वार् यहाँ यह कहना चाहते हैं कि बलराम श्रीकृष्ण का घनिष्ठ संबंध होने के कारण यह लीला बलराम के द्वारा श्रीकृष्ण ने ही रची। जैसे कि लक्ष्मण जी के द्वारा शूर्पणखा कान और नाक काट देने का श्रेय श्रीराम जी को दिया।
- जब एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) के सामने कोई भयानक परिस्थिति आती है तो उनके भक्त उनकी रक्षा के लिए तत्पर रहते हैं। यहाँ बलराम ने भी श्रीकृष्ण को इस भयानक परिस्थिति से मुक्त किया।
अडियेन् अमिता रामानुजदासी
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