कृष्ण लीलाएँ और उनका सार – १९ – ऋषिपत्नियों द्वारा अनुग्रह प्राप्ति

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः

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एक बार कृष्ण बलराम और उनके ग्वाल-बाल सखा वृन्दावन में किसी वन में बैठे हुए थे। ग्वाल-बालों को भूख लगी तो उन्होंने कृष्ण और बलराम की ओर देख उनसे भोजन की व्यवस्था करने के लिए प्रार्थना की।
उसी समय, कृष्ण ने उनको कहा, “अब हम भोजन कहाँ से प्राप्त कर सकते हैं? हम अपने घरों से बहुत दूर हैं। ठीक है। तो यहाँ कुछ ऋषि (सन्त) हैं जो यहाँ आश्रम बनाकर भगवान के प्रति तपस्या कर रहे हैं। कृपया उनके पास जाकर भोजन के लिए आग्रह करें, उसको हम आपस में विभाजित कर खा लेंगे।”

शीघ्र ही उन बालक वन में ढूँढने गये और उन्हें एक आश्रम मिला। ऋषि वहाँ यज्ञ कर रहे थे। वे सीधे ऋषियों के पास गये और बताया कि हम श्रीकृष्ण और बलराम के साथ हैं, भूख लगने के कारण भोजन ढूँढने आए हैं। जैसे कि ऋषि यज्ञ करने में व्यस्त होने के कारण उन बालकों को कोई उत्तर नहीं दिया। बालक निराश होकर श्रीकृष्ण के पास आए और वृत्तांत सुनाया श्रीकृष्ण ने उन बालकों को समझाया कि “अब तुम पुनः उसी स्थान पर जाकर ऋषि पत्नियों से अपनी स्थिति बताओ और भोजन एकत्र करें।”
बालक पुनः वहाँ पहुँचे, अब उन्होंने ऋषि पत्नियों से कहा “हम श्रीकृष्ण और बलराम के पास से आए हैं, कृपया हमें भूख लगी है इसलिए हमें भोजन प्रदान करें।” यह सुनकर वे ऋषि पत्नियों ने श्रीकृष्ण के प्रति अगाध प्रेम के कारण बहुत प्रकार के व्यञ्जनों को एकत्र कर श्रीकृष्ण की ओर प्रस्थान किया। अब उनके सम्बधियों (ऋषियों पतियों सहित) ने उन ऋषिपत्नियों को रोका। परन्तु वे तथापि गईं, और सभी व्यञ्जनों को श्रीकृष्ण बलराम और बालकों को अर्पित किया जिससे श्रीकृष्ण अति प्रसन्न हुए और यह भोजन स्वीकार कर सबमें बाँट दिया। अब सभी ऋषियों को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। अपने अन्तर्मन से श्रीकृष्ण से क्षमा याचना करने लगे।

इस लीला को गोदाम्बा जी (आण्डाळ्) नाच्चियार् तिरुमोऴि में अति सुन्दर वर्णन करती हैं, “वेर्त्तुप् पिसित्तु वयिऱसैदु वेण्डडिसिल् उण्णुम्बोदु ईदॆन्ऱु पार्त्तिरुन्दु नॆडुनोक्कुक् कॊळ्ळुम् पत्त विळोचनत्तु उय्त्तिडुमिन्” (मुझे भक्तविलोचनम् नामक स्थान ले चलो जहाँ कण्णन् ने (श्रीकृष्ण ने) लम्बे समय तक निवास किया, गौएँ चराने के कारण स्वेद आया हुआ है, भूख के कारण थके हैं और उदर में कष्ट हो रहा है और ऋषि पत्नियों के द्वारा भोजन लाने की और बालकों को कहने की प्रतीक्षा कर रहे हैं “जितना आप चाहते हैं उतना भोजन खाने का समय है”)। पत्तविलोचन शब्द में पत्त भक्त को सूचित करता है जिसका अर्थ है भोजन; विलोचन का अर्थ है देखना। अत्यधिक भूख के कारण वे सब ऋषि पत्नियाँ जो भोजन ला रहीं थीं उनको व्याकुलता से देख रहे थे।

सार:-

  • वेदांत में पारङ्गत होने और यज्ञों में संलग्न होने पर भी यदि भगवान के प्रति श्रद्धा का अभाव है तो उससे कोई लाभ नहीं है। यदि जिसका हृदय भगवान का नाम स्मरण और श्रवण करने से पिघलता है इससे भगवान प्रसन्न होंगे।
  • प्रत्येक को भगवान की कृपा को समझना चाहिए और स्वयं का समर्पण करना चाहिए। दूसरों की भक्ति देखकर और प्रवचन सुनकर स्वयं में सुधार करना चाहिए। यदि नहीं तो मोक्ष का कोई आशा नहीं है।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी

आधार – https://granthams.koyil.org/2023/09/25/krishna-leela-19-english/

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