श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः
<< ऋषिपत्नियों द्वारा अनुग्रह प्राप्ति
जब कृष्ण सप्त वर्ष हुए तब एक अतिमानवीय लीला की, जो बहुत ही अद्भुत थी। आइए उस आनन्दवर्धक लीला का अनुभव करें।
एक दिन, वृन्दावन में वृद्ध ग्वालों ने एकत्र होकर एक उत्सव की चर्चा की। उसी समय श्रीकृष्ण वहाँ आए और पूछा, “आप किस उत्सव के बारे में चर्चा कर रहे हैं?” उन्होंने कहा “यह भोजन के लिए आह्वान है जो हम प्रत्येक वर्ष इन्द्र के लिए करते हैं।” कृष्ण ने पूछा, “हम इन्द्र का भोजन के लिए आह्वान क्यों करते हैं?” उन्होंने कहा, “क्योंकि वह हमें वर्षा देता है और समृद्धि के साथ जीवन जीने के लिए सहायता करता है।” कृष्ण ने विचार किया, “जहाँ मैं इस शरीर के साथ विद्यमान हूँ तो किसी को भी अन्य देवता की पूजा क्यों करनी चाहिए?” इस (रीति) को समाप्त करने के विचार से योजना बनाई। कृष्ण ने कहा, “जबकि यह गोवर्धन पर्वत हर प्रकार से हमारी सहायता कर रहा है जैसे कि मेघों को रोकना और उनके द्वारा वर्षा करवाना, हमारी गोओं के लिए घास प्रदान करना और सब्जियाँ और फल प्रदान करना। आइए हम सब इसका भोग के लिए आह्वान करें” श्रीकृष्ण की इस मन्त्रणा को सबने स्वीकार किया।
भोग के लिए तिथि को निश्चित किया गया। उस दिन नगर से लोगों ने भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यञ्जनों को छकड़ों पर रख कर लाये और गोवर्धन पर्वत के आगे व्यञ्जनों का पर्वत बन गया। श्रीकृष्ण ने वहाँ आकर सबकी प्रशंसा करते हुए कहा, “अब आप सब अपने नेत्रों को बंद कर लें।यह सारा भोजन मुझे अर्पित कर दें।” सबने अपने नेत्रों को बंद कर लिया और कृष्ण उस गोवर्धन पर्वत में प्रवेश कर गये और कहने लगे, “अहम् गोवर्धनोस्मि”(मैं गोवर्धनपर्वत हूँ) और सारे भोजन को खा लिया। जब सब लोगों ने प्रसन्नता पूर्वक नेत्र खोले, देखा कि सारा भोजन खाया जा चुका है।
इन्द्र अपने निवास स्थान स्वर्ग से देखकर क्रोधित हुआ। वह श्रीकृष्ण के प्रति क्रोधित हुआ क्योंकि उन्होंने भोजन के लिए आह्वान की प्राचीन परंपरा को आगे बढ़ने से रोक दिया। इन्द्र ने अपने नियन्त्रित मेघों को मूसलाधार वर्षा करने हेतु आज्ञा दी।
घने मेघों ने वृन्दावन को घेर लिया और भयङ्कर मूसलाधार वृष्टि हुई। इसे देखकर ग्वाले और गऊएं भयभीत हो गए और श्रीकृष्ण से पूछा, “अब हम क्या करें?” श्रीकृष्ण ने उन्हें आश्रय दिया और गोवर्धन पर्वत को विपरीत करके (उल्टा कर) एक छत्र की भांति उठाकर पकड़ लिया।उन पर बिना किसी एक भी बूंद के गिरे सभी ग्वालों और पशुओं की सुरक्षा की। ग्वालों ने पूछा “क्या आप देवता हैं?” “क्या आप यक्ष हैं?” “आपने इस विशाल पर्वत को अपने करकमलों में कैसे धारण किया है?” श्रीकृष्ण ने उत्तर देते हुए कहा “मैं तो केवल एक ग्वाला हूँ। आप स्वीकार नहीं करेंगे तो मैं इस पर्वत को गिरा दूँगा।” वे भयभीत हो बोले, “ठीक है, ऐसा ही हो।”
इसी प्रकार श्रीकृष्ण ने पर्वत को एक सप्ताह तक अपने हस्त में उठाकर रखा और सबको सुरक्षा प्रदान की। इन्द्र को यह सब देखकर श्रीकृष्ण की वास्तविकता और अपने अपराध का ज्ञान हुआ, तो उसने मूसलाधार वृष्टि को रोका और दौड़कर श्रीकृष्ण से क्षमा याचना करते हुए चरणों में गिर गया। इन्द्र ने स्तोत्र गाकर श्रीकृष्ण की स्तुति की और गोविंद पट्टाभिषेक किया। ऐसे श्रीकृष्ण ने इन्द्र के अभिमान का मर्दन किया।
कई आऴ्वारों ने इस लीला का विस्तृत वर्णन करते हुए आनन्द प्राप्त किया। पेयाऴ्वार् ने मून्ऱाम् तिरुवन्दादि में कहा, “अवने अरुवरैयाल् आनिरैगळ् कात्तान्” (उन्होंने स्वयं एक विशाल पर्वत के द्वारा ग्वालों की सुरक्षा की); पेरियाऴ्वार् ने पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि में कहा “पदङ्गळ् पलवुमुडैप् पाम्बरैयन् पडर् बूमियैत् ताङ्गिक् किडप्पवन् पोल् तडङ्गै विरल् ऐन्दुम् मलर वैत्तुत् तामोदरन् ताङ्गु तडवरै तान्” (जैसे आदिशेष ने विस्तृत फणों पर पृथ्वी के धारण किया हुआ है वैसे ही श्रीकृष्ण ने विशाल गोवर्धन पर्वत को अपने खुले हाथ पर धारण किया है)। उन्होंने इस लीला का आनन्द लेते हुए “अट्टुक् कुविसोट्रु” दशक में अलङ्कृत किया है। नम्माऴ्वार् (श्रीशठकोप स्वामी जी) तिरुवाय्मोऴि में कहते हैं “कुन्ऱमॆडुत्त पिरान् अडियारोडुम्” (भक्तों के साथ वह जिसने गोवर्धन पर्वत को उठाया)। तिरुमङ्गै आऴ्वार् ने तिरुनेडुन्दाण्डगम् में कहा “कल्लॆडुत्तुक्कल् मारि कात्तान्” (श्रीकृष्ण ने पर्वत के द्वारा सभी को मूसलाधार वृष्टि से बचाया।)
सार:-
- जब कोई भगवान पर पूर्ण आस्था रखता है तब भगवान कोई महान लीला के द्वारा उसकी सुरक्षा करते हैं।
- जबकि पहले ही उन्होंने जो कहा कि गोवर्धन पर्वत ही हमारी सुरक्षा करता है, जब मूसलाधारवृष्टि (ओलावृष्टि) हुई, तो उन्होंने प्रत्येक की पर्वत के द्वारा सुरक्षा की और अपने शब्दों को सार्थक किया।
- भगवान की उपस्थिति में और उनको समर्पित भक्त किसी अन्य देवता की पूजा करें, वे नहीं चाहेंगे। इसलिए उन्होंने वृन्दावन में इन्द्र की पूजा करने पर रोक लगा दी।
- जबकि इन्द्र जो देवता था, वह भी भगवान का भक्त था उसने एक भूल की तब भी भगवान ने उसके लिए पर्वत को अपने हाथों से उठाया और इन्द्र को अपनी भूल का ज्ञान कराया और अन्त में क्षमा कर दिया।
अडियेन् अमिता रामानुजदासी
आधार – https://granthams.koyil.org/2023/09/25/krishna-leela-20-english/
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