श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः
कृष्ण की लीलाओं में से एक अद्भुत लीला गोपिकाओं के साथ रास क्रीड़ा करना है। रास क्रीड़ा का अर्थ है चांदनी रात में एक दूसरे का हाथ पकड़कर आनन्दपूर्वक नृत्य करना।
एक रात्रि को श्रीकृष्ण नेवन में रहकर बांसुरी बजाना आरम्भ किया।उस बांसुरी की मधुर ध्वनि सुनकर कई गोपाङ्गनाओं ने अपने कार्य छोड़ कर श्रीकृष्ण की ओर दौड़ी।उन सभी ने श्रीकृष्ण को प्रार्थना करते हुए कहा, “आइए रास क्रीड़ा करते हैं। हम आपके करकमलों को पकड़कर आनन्दपूर्वक नृत्य करेंगी।” पहले श्रीकृष्ण ने स्वीकार नहीं किया। वे बोले, “तुम अपना कर्तव्य छोड़ कर यहां आयी हैं।यह ठीक नहीं है तुम शीघ्र ही अपने गृह लौट जाओ।” यह सुनकर वे दु:खी हुईं और रोने लगीं। उन्होंने कहा, “आप हमारे परिवार से बढ़कर हैं, आप हमारे सर्वस्व हैं। बल्कि लक्ष्मी जी धन प्रदान करने के कारण सभी देवता उनसे श्रद्धापूर्वक प्रार्थना करते हैं, वे भी आनन्द लेने और आपकी सेवा करने के भाव से आपसे अलग नहीं रहती हैं। आपके मुखोल्लास के लिए हम आपके साथ रहना चाहती हैं।”
कृष्ण ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर उनके साथ नृत्य करना आरम्भ किया। उन्होंने विभिन्न रूप धारण किए दो गोपाङ्गनाओं के मध्य में स्थित हुए जैसे में एक श्रीकृष्ण एक गोपिका, एक श्रीकृष्ण एक गोपिका इस प्रकार परमानन्द से नृत्य करने लगे।
गोपियों ने कृष्ण के साथ आनन्दवर्धक नृत्य करतने लगीं।(यह कथन भी हैकि गोपियों में अहंकार की वृद्धि होने लगी।) श्रीकृष्ण ने विचार किया, “यदि ये इस परमानन्द को सहन नहीं कर पाए तो इनके प्राण निकल जायेंगे।” और स्वयं को ओझल कर लिया। उनके अकस्मात् ओझल होने से गोपाङ्गनाएं स्तब्ध रह गईं। वे दु:ख से आच्छादित हो गईं और घने वन में श्रीकृष्ण को ढूँढने निकल गईं। उस वन की लताओं, वृक्षों, पत्र आदि से पूछा, “क्या तुमने श्रीकृष्ण को देखा है।” तत्पश्चात् एक दूसरे से बात करके विचार किया “श्री कृष्ण के ओझल होने के कारण स्वयं को व्यवस्थित कर आइए हम उनकी लीलाओं का अभिनय करें। जिससे उनसे बिछड़ने का कष्ट कुछ कम हो जाएगा।” शीघ्र ही एक गोपी ने स्वंय को पूतना के रूप में नीचे गिराकर प्रस्तुत किया और दूसरी गोपी ने श्रीकृष्ण होने का अभिनय किया कि वह दुग्ध पान कर उसको मार रही है। एक गोपी ने वत्सासुर और दूसरी गोपी ने कपित्तासुर और एक गोपी श्रीकृष्ण बनकर अभिनय करने लगीं। इस प्रकार उन्होंने स्वयं को सम्भाला और पुनः श्रीकृष्ण को ढूँढने लगीं। उन्होंने श्रीकृष्ण और अन्य गोपी के पदचिह्न देखें। उनको विचार आया “श्रीकृष्ण अन्य गोपिका के साथ गये होंगे।” और दु:खी होकर, विलाप करते हुए गाने लगीं।
तत्पश्चात् श्रीकृष्ण उनके बीच में पुनः प्रकट हुए और उन्हें आश्वासन दिया। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक उनसे वार्तालाप किया और भिन्न रूप धारण करके गोपिकाओं के साथ नृत्य किया। देवताओं ने यह अद्भुत नृत्य देखा और आनन्दित हुए। बहुत समय तक नृत्य करने के बाद, थकने के कारण श्रीकृष्ण ने यमुना नदी में डुबकी लगाई और गोपाङ्गनाओं के साथ जल क्रीड़ा की।
इस प्रकार ऎम्पेरुमान् की रास क्रीड़ा अद्भुत रूप में हुई।
आऴ्वारों ने इस लीला से आनन्दित होकर “कुरवैक् कूत्तु”। पोय्गै आऴ्वार् ने मुदल तिरुवन्दादि में कहते हैं “अरवम् अडल् वेऴम्……कुरवै कूड…….कोत्ताडि” (रास क्रीड़ा में नृत्य का आनन्द लेते हुए और पात्रों के साथ नृत्य करते हुए)। नम्माऴ्वार् (श्रीशठकोप स्वामी जी) तिरुवाय्मॊऴि में विस्तारपूर्वक श्रीकृष्ण लीला का आनन्द लेते हुए दर्शाते हैं “कुरवै आय्च्चियारोडु कोत्ताडि” (रास क्रीड़ा में गोपिकाओं के साथ नृत्य किया) से आरम्भ करते हैं। कुलशेखर आऴ्वार् ने अपने पेरुमाळ् तिरुमोऴि में कहते हैं “कचन्ऱिनाल् कुडै कवित्तदुम् कोलक् कुरवै कोत्तदुवुम्” (पर्वत को अपने हाथ में छत्र के रूप में उठाकर अद्भुत रासक्रीड़ा का आनन्द लेते हुए)। तिरुमङ्गै आऴ्वार् पेरिय तिरुमोऴि में कहते हैं “पेय्त् तायै” इस प्रकार आनन्द लेते हुए इस पासुर में आरम्भ में “कुरुवै मुन्ने कोत्तानै” (वह जिसने रास क्रीड़ा का आनन्द लिया) कहते हैं।
सार:-
- श्रीकृष्ण के द्वारा की गई यह रास क्रीड़ा स्त्री और पुरुष का वासना से भरा नृत्य नहीं है। यह जीवात्मा और परमात्मा के सम्बन्ध होने पर प्राप्त आध्यात्मिक आनंद है।
- दु:ख और सुख के बारे में जब अति हो जाती है तो सहन करना कठिन हो जाता है। इसीलिए श्रीकृष्ण ने क्रमानुसार गोपाङ्गनाओं को इस लीला का आनन्द वर्धक अनुभव दिया जिसको सहजता से सहन कर सकें।
- श्रीकृष्ण की मधुर वंशी की ध्वनि सुनकर एक चिन्तयन्ति नामक गोपिका ने अपने घर से बाहर आने का प्रयत्न किया। वार्ताकक्ष में उसके परिवार के बड़े-बूढ़े बैठे थे। वह भयभीत हो बहुत द:ख के साथ अपने कक्ष में ही पड़ी रही, जिससे उसके सारे पापों का नाश हो गया। श्रीकृष्ण की वंशी की धुन का आनन्द लेने पर उसके सारे पुण्य भी समाप्त हो गये। पुण्य और पाप दोनों समाप्त हो जाने पर उसने अपनी देह का त्याग कर दिया और परमपदम् को प्राप्त हुई।
अडियेन् अमिता रामानुजदासी
आधार – https://granthams.koyil.org/2023/09/27/krishna-leela-21-english/
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