कृष्ण लीलाएँ और उनका सार – ४० – बाणासुर का वध

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः। श्रीमते रामानुजाय नमः। श्रीमद् वरवरमुनये नमः। श्रीवानाचलमहामुनये नमः।

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कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के पुत्र, नाम अनिरुद्ध, बहुत सुंदर था। महाबली के सौ पुत्रों में बाण सबसे बड़े थे। शोणितपुर पर उसका शासन था। बाण की पुत्री उषा अनिरुद्ध को चाहती थी और उससे विवाह कर लिया। बाण क्रोधवश उन्हें कारावास में डाल दिया। उस समय जो भयानक युद्ध हुआ आइए उसका आनन्द लें।

बाण रुद्र के प्रति समर्पित था। वह हजार हाथों वाला था। एकदा रुद्र नृत्य कर रहा था तो बाण ने ढोल बजाकर रुद्र को प्रसन्न किया। रुद्र ने बाण को आश्वासन दिया कि जब भी वह संकट में होगा, तब वह सहायता के लिए आएगा।

बाण की पुत्री उषा ने एक बार स्वप्न में एक सुन्दर पुरुष को देखा। तत्क्षण उसे उससे प्रेम हो गया। परन्तु वह बहुत दुःखी हुई जैसी वह पहले थी वह वैसी न रही। उसकी दुःखी दशा देखकर उसकी सखी चित्रलेखा सहायता करने आई। उसके पास सुन्दर चित्र बनाने की अद्भुत शक्ति थी। ऊषा की गाथा सुनकर प्रथम चित्र देवताओं और गन्धर्वों का बनाया। परन्तु वह स्वीकृत नहीं हुआ। तत्पश्चात् कृष्ण का चित्र बनाया, वह कुछ ही मिलता-जुलता था। तत्पश्चात् प्रद्युम्न का चित्र बनाया परन्तु वह भी कुछ ही मेल खाता था। अंत में जब अनिरुद्ध का चित्र बनाया देखते ही स्वीकार किया। उसी क्षण चित्रलेखा ने अनिरुद्ध के स्थान श्रीद्वारिका जी वायु मार्ग से गयीं, जहाँ वह सो रहा था। उसे पर्यङ्क सहित उठाकर ऊषा के निजी भवन में ले आईं। ऊषा ने अनिरुद्ध के प्रति अपना प्रेम प्रकट किया, अनिरुद्ध ने भी सहमति जताई और उसी क्षण विवाह करके प्रसन्नता से रहने लगे।

उषा की दासियों ने उषा में कुछ परिवर्तन देखा और सब ने बाण को सूचित कर दिया, वह भी तत्काल उसके निजी भवन में आया और देखा कि वे प्रसन्नतापूर्वक रह रहे हैं। वह क्रोधवश नागास्त्र से अनिरुद्ध पर प्रहार कर कारागार में डाल दिया।

इधर श्रीद्वारका जी में अनिरुद्ध की अनुपस्थिति से सभी चिंतित हुए। नारद जी ने वहाँ आकर बताया कि अनिरुद्ध को शोणितपुर में कैद कर लिया गया है। तत्पश्चात् कृष्ण विशाल सेना सहित शोणितपुर पहुँचे।

कृष्ण की विशाल सेना को देखकर बाण ने रुद्र से प्रार्थना की। रुद्र परिवार सहित तुरन्त युद्ध में सहायता के लिए पहुँचे। परन्तु वे कृष्ण और यादवों की वीरता और पराक्रम का सामना नहीं कर पाए। रुद्र, दुर्गा, स्कन्द, ज्वरम् आदि पराजित हुए और युद्ध स्थल से भाग गए। बाणासुर के हजारों हाथ कृष्ण द्वारा काट दिए गए, तत्पश्चात् बाणासुर ने पराजय स्वीकार कर ली। रुद्र ने आकर भगवान से क्षमायाचना कर स्तुति की।

बाण ने उषा को अनिरुद्ध और बहुत से उपहारों के साथ श्रीद्वारका जी भेजा।

आऴ्वारों ने इस गाथा का (बाणासुर का वध) बहुत से स्थानों पर आनन्द लिया है।

पेरियाऴ्वार् ने तिरुप्पल्लाण्डु में वर्णन किया है “मायप् पोरु पडै वाणनै आयिरम् तोळुम् पोऴि कुरुदि पायच् चुऴट्रिय आऴि वल्लानुक्कुप् पल्लाण्डु कूऱुदुमे” (हम भगवान की स्तुति करते हैं जिन्होंने चक्रत्ताऴ्वार् को बाणासुर  के सहस्र कंधों से रक्त की धारा बहाने के लिए उंचा कर घुमाया)।

पेरियाऴ्वार् ने अपने मून्ऱाम् तिरुवन्दादि में वर्णन करते हैं, मगन् ऒरुवर्क्कल्लाद मामेनि मायन् मगनाम् अवन् मगन् तन् कादल् मगनै शिरै सॆय्द वाणन् तोळ् सॆट्रान् कऴले निऱै सॆय्दु ऎन् नॆञ्जे निनै” (हे हृदय! कृष्ण जिनको किसी के पुत्र के रुप में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु वे एक महान दिव्य स्वरूप और दिव्य कलाओं सहित, वसुदेव के पुत्र के रूप में अवतरित हुए, उनके पुत्र प्रद्युम्न, प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध जिसको बाणासुर ने कारागार में डाल दिया)।

तिरुमऴिसै आऴ्वार् ने तिरुच्चन्दविरुत्तम् में इसकी व्याख्या करते हुए कहा, मोडियोडु इलच्चैयाय साबम् ऎय्दि मुक्कणान् कूडु सेनै मक्कळोडु कॊण्डु मण्डि वॆञ्जमत्तु ओड वाणन् आयिरम् कर्म कऴित्त आदिमल् पीडु कोयिल् कूडु नीर् अरङ्गम् ऎन्ऱ पेरदे” (बहुत समय पहले से दुर्गा के साथ, सात्विक लोग अपने पुत्रों सहित, त्रिनेत्र रुद्र अपनी सेना के साथ आए और सभी कारणों के कारण श्रीकृष्ण के साथ युद्ध करने लगे, रुद्र के नेतृत्व वाली सेना भाग गयी, श्रीकृष्ण का श्रेष्ठ मन्दिर जो जल से घिरा है श्रीरङ्गम उसका नाम है)।

नम्माऴ्वार् ने अपने तिरुवाय्मोऴि में वर्णन किया है, “परिविन्ऱि वणनैक् कात्तुमॆन्ऱु अन्ऱु पडैयोडुम् वन्दॆदिर्न्दु तिरिपुरम् सॆट्रवनुम् मगनुम् पिन्नुम् अङ्गियुम् पोर् तॊलैयप् पोरु सिऱैप् पुळ्ळैक् कडाविय मायनै आयनैप् पोऱ्-चक्करत्तु अरियिनै अच्चुदनैप् पट्रि यान् इऱैयॆनुम् इदर् इलेने” (उस दिन जब कृष्ण स्वयं अपने दिव्य पुत्र अनिरुद्ध के लिए आए, तब रुद्र तीन नगरों को विध्वंस करते हुए अभिमान से आया और कृष्ण के विरुद्ध युद्ध के लिए खड़ा हो गया और कहने लगा “मैं बाणासुर की रक्षा करुंगा, उसके कष्टों को दूर करुंगा,” अपने पुत्र सुब्रमण्य के साथ जिसमें देवताओं और अग्नि की सेना का सेनापति होने की महानता है। कृष्ण जो एक अद्भुत अवतार जो स्वयं के छोटे से (ग्वाले के रूप में) उनके हाथ में आकर्षक दिव्य चक्र है और पेरिय तिरुवड़ि (गरुड़ाळ्वार्) पर विराजमान हो जिनके दिव्य पंखों पर प्रहार होने पर रुद्र आदि को वहाँ से भाग जाने पर विवश कर दिया। “हम पुनः नहीं लड़ेंगे” मैं उन भगवान जो अपने भक्तों के शत्रुओं का नाश करते हैं, कभी भी नहीं त्यागते उनका आनन्द लेता हूं जिससे मुझे कभी भी दु:ख नहीं होता)।

तिरुमङ्गै आऴ्वार् अपने पेरिय तिरुमडल् में इस लीला को बहुत सुन्दर प्रस्तुत किया है, “शूऴ्कडलुळ पॊन्नगरम् सॆट्र पुरन्दरनोडु एरोक्कुम् मन्वन्तर वाणन् अवुणर्क्कु वाळ् वेन्दन् तन्नुडैय पावै उलगत्तुत् तन्नोक्कुम्  कन्नियरै इल्लाद काट्चियळ् तन्नुडैय इन्नुयिर्त्तोऴियल् एम्पेरुमान् ईन्तुऴाय् मन्नुम् मणिवरैत् तोऴ् मायवन् पावियेन् ऎन्नै इंदु विळैत्त ईरिरण्डु माल् वरैत्तोळ् मन्नवन् तन् कादलनै मायत्ताल् कॊण्डु पोय् कन्नि तन् पाल् वैक्क मट्रवनोडु ऎत्तनैयो मन्निय पेरिन्बम् ऎय्दिनाळ्” (देवलोक का राजा इन्द्र जिसने समुद्र में प्रवेश किया और हिरण्यपुर के राक्षसों का विनाश कर पुरन्धर कहलाए। बाणासुर राजाओं का राजा,असुरों का उज्जवल नेतृत्वकर्ता है इन्द्र का समदर्शी है। ऊषा देखने में इतनी सुंदर कि संसार में सुंदरता की कोई समानता नहीं है, बाणासुर की पुत्री है, अपनी प्रिय सखा चित्रलेखा की सहायता से अनिरुद्ध जिसके कंधों पर तुलसी माला सुशोभित हो रही है जैसे पर्वत पर मणियां, ऊषा के साथ बहुत आनन्द पूर्वक रह रहा था)।

सार

  • अन्य देवताओं की आराधना और भगवान का विरोध करने पर कुछ भी प्राप्त नहीं होता। भगवान के प्रति ही सम्पूर्ण समर्पण कर गौरवान्वित होना चाहिए।
  • भगवान की महिमा को जानते हुए भी देवताओं में रज, तम गुण बढ़ जाते हैं तभी भगवान का विरोध करने लगते हैं। परन्तु अन्त में अपने अपराध के लिए क्षमा याचना करने लगते हैं।
  • प्रह्लाद से उसके वंश का विनाश न करने के लिए भगवान (श्रीमन्नारायण) ने कहा, और ऊषा को अपने पिता को खोकर कष्ट नहीं होना चाहिए। इस कारण भगवान ने बाणासुर के सहस्र हाथों में से चार को छोड़कर सभी काट दिए।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी।

आधार: https://granthams.koyil.org/2023/10/16/krishna-leela-40-english/

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